Wednesday, March 23, 2011

खाद के अधिक प्रयोग से भूमि उर्वरता घटी


उनके सरोकारों की सरकार


पिछले साल फरवरी में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीटी बैंगन की खेती के जमीनी प्रयोगों को बंद करते हुए भरोसा दिया था कि जब तक इनके मानव स्वास्थ्य से जुड़े सुरक्षात्मक पहलुओं की वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हो जाती, इनके उत्पादन को मंजूरी नहीं दी जाएगी। इसके बावजूद गोपनीय ढंग से मक्का के संकर बीजों का प्रयोग बिहार में किया गया। बिहार में बीटी मक्का के और धारवाड़ में बीटी बैंगन के प्रयोगों से पहले राज्य सरकार को न सूचना दी गई और न ही जरूरी सावधानियां बरती गईं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जब इस वादाखिलाफी की खबर लगी तो उन्होंने सख्त आपत्ति जताते हुए केंद्रीय समिति में राज्य के प्रतिनिधि को शामिल करने व्यावहारिक मांग की। नतीजतन पर्यावरण मंत्रालय ने बिहार में बीटी मक्का के परीक्षण पर रोक लगा दी लेकिन यहां यह आशंका जरूर उठती है कि ये परीक्षण उन प्रदेशों में जारी होंगे, जहां कांग्रेस और यूपीए के सहयोगी दलों की सरकारें हैं। गुपचुप जारी इन प्रयोगों से पता चलता है कि सरकार विदेशी कम्पनियों के आगे इतनी दयनीय है कि उसे जनता से किए वादे से मुकरना पड़ रहा है। भारत के कृषि और डेयरी उद्योग पर नियंतण्रकरना अमेरिका की पहली प्राथमिकताओं में है। इन बीजों की नाकामी साबित हो जाने के बावजूद इनके प्रयोगों का मकसद है मोंसेंटो, माहिको, बालमार्ट और सिंजेटा जैसी कम्पनियों के कृषि बीज और कीटनाशकों के व्यापार को भारत में जबरन स्थापित करना। बिहार में मक्का-बीजों की पृष्ठभूमि में मोंसेंटों ही थी। इसके पहले धारवाड़ में बीटी बैंगन के बीजों के प्रयोग के साथ इसकी व्यावसायिक खेती को प्रोत्साहित करने में माहिको का हाथ था। यहां तो ये प्रयोग कुछ भारतीय वैज्ञानिकों को लालच देकर कृषि विश्वविद्यालय धारवाड़ और तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय कोयम्बटूर में चल रहे थे। जीएम बैगन पहली ऐसी सब्जी थी जो भारत में ही नहीं दुनिया में पहली मर्तबा प्रयोग में लाई जाती। इसके बाद एक-एक कर कुल 56 फसलें वर्ण संकर बीजों से उगाई जानी थीं। दरअसल आनुवंशिक बीजों से खेती को बढ़ावा देने के लिए देश के शासन-प्रशासन को मजबूर होना पड़ रहा है। 2008 में जब परमाणु करार का हो-हल्ला संसद और संसद से बाहर चल रहा था तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कृषि मंत्री शरद पवार और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की तिगड़ी ने अमेरिका से गुपचुप समझौता था। इसी के तहत बीटी बैंगन को बाजार का हिस्सा बनाने के लिए पवार और जयराम ने आनुवंशिक बीजों को सही ठहराने के लिए देश के कई नगरों में जन-सुनवाई के नजरिये से मुहिम भी चलाई थी। लेकिन जबरदस्त जन मुहिम के चलते राजनेताओं को इस जिद से तत्काल पीछे हटना पड़ा था। बीटी बैंगन मसलन संकर बीज ऐसा है, जिसे साधारण बीज में एक खास जीवाणु के जीन को आनुवंशिक अभियांत्रिकी तकनीक से प्रवेश कराकर बीटी बीज तैयार किए जाते हैं। बीज निर्माता कम्पनियों की दलील है कि कीटाणु इन्हें भोजन नहीं बनाते और इनसे पैदावार अधिक होती है। बड़ी आबादी के चलते भारत को इसकी सख्त जरूरत है। लेकिन कृषि और स्वास्थ्य से जुड़े भारतीय वैज्ञानिकों का दावा है कि ये बीज आहार की दृष्टि से तो उत्तम हैं ही नहीं स्थानीय और पारम्परिक फसलों के लिए भी खतरनाक हैं। राष्टीय पोषण संसथान, हैदराबाद के प्रसिद्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने चेतावनी दी थी कि बीटी बैंगन के प्रभाव से बैंगन की स्थानीय किस्म मट्टूगुल्ला लगभग समाप्त हो जाएगी। बीटी कपास के उत्पादन का दुष्परिणाम आज तक भुगत रहे हैं। सिलसिला 2002 में शुरू हुआ था। इस बीज की अब तक खपत लगभग दस हजार करोड़ रुपये की हो चुकी है। यदि यही धन किसानों के हाथ में होता तो देश के ढाई लाख किसानों को आत्महत्या करने की मजबूरी नहीं झेलनी पड़ती। यह धन विदेशी कम्पनियों की तिजोरियों में गया और देश का अन्नदाता कंगाल बना। जीन रूपांतरित बीजों के इस्तेमाल में शर्त होती है कि यदि बीज खराब निकलते हैं तो प्रयोग कर रही कम्पनी को किसान को पर्याप्त मुआवजा देना होगा। लेकिन बिहार में कम्पनी ने मुआवजा देने की जवाबदेही से पल्ला झाड़ लिया।

Monday, March 21, 2011

एंडोसल्फान की आड़ में नई साजिश


भारतीय खेतों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशक एंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने का मुद्दा राजनीतिक रंग लेता जा रहा है। केरल सरकार के बाद कर्नाटक सरकार भी एंडोसल्फान के इस्तेमाल पर रोक लगा चुकी है। केरल सरकार ने स्वास्थ्य संबंधी कारणों का हवाला देते हुए एंडोसल्फान का उपयोग गैरकानूनी घोषित कर दिया था। यूरोपीय यूनियन और कुछ एनजीओ के दबाव में एंडोसल्फान की लड़ाई वास्तविक मुद्दे से भटक गई है और अब कुछ राज्यों की सरकारें आनन-फानन में इस कीटनाशक पर रोक लगाने की तैयारी में हैं। एंडोसल्फान का मुद्दा तथ्यों से हटकर आरोप-प्रत्यारोप पर सिमट आया है और इस छद्म खेल का सारा खामियाजा आखिरकार निर्दोष किसानों को ही भुगतना पड़ेगा। चुनावी मौसम में केरल सरकार ने एंडोसल्फान पर दांव खेलकर जो पृष्ठभूमि तैयार की है, किसानों और देसी कीटनाशक कंपनियों को इसकी महंगी कीमत चुकानी पड़ेगी। एंडोसल्फान एक ऐसा कीटनाशक है, जिसका छिड़काव फल-सब्जियों को कीट-मकोड़ों से बचाने के लिए किया जाता है। पिछले चार दशकों से भारतीय किसान एंडोसल्फान का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा एंडोसल्फान निर्माता देश है और एंडोसल्फान के वैश्विक कारोबार के 70 फीसदी से ज्यादा हिस्से पर भारतीय कंपनियों का कब्जा है। भारत से लगभग 180 करोड़ रुपये के एंडोसल्फान का निर्यात किया जाता है और अकेले गुजरात ही दुनिया का 55 फीसदी से ज्यादा एंडोसल्फान उत्पादित करता है। पिछले 55 सालों से भारत में एंडोसल्फान का उत्पादन किया जा रहा है और कुछ समय पहले तक इसका बड़े पैमाने पर यूरोप को भी निर्यात किया जाता है। एंडोसल्फान पर ताजा विवाद की शुरुआत 2001 में हुई, जब एकमात्र एंडोसल्फान निर्माता यूरोपीय कंपनी बेयर क्रॉप साइंस ने इसका उत्पादन बंद करने का फैसला किया। एंडोसल्फान को अपने पोर्टफोलियो से हटाने के बाद बेयर क्रॉप साइंस ने यूरोपीय यूनियन के देशों पर इस कीटनाशक के बहिष्कार के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया। इसी दबाव के बीच 2005 में यूरोपीय संघ ने अपने सदस्य देशों से कहा कि वह ऐसे पौधों को संरक्षण वाले उत्पादों का प्रयोग बंद करें, जिसके निर्माण में एंडोसल्फान का इस्तेमाल होता है। 2005 में यूरोपीय यूनियन ने एंडोसल्फान को पीओपी यानी परसिसटेंट आर्गेनिक पॉल्यूटेंट की सूची में शामिल करने का अभियान छेड़ दिया। असल में यूरोपीय कंपनियों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए स्टॉकहोम सम्मेलन से पहले एंडोसल्फान को प्रतिबंधित जैविक प्रदूषक की सूची में डालने के लिए यह मुद्दा जोर-शोर से उठाया जा रहा है। यूरोपीय यूनियन की आर्थिक सहायता से भारत के कई गैरसरकारी संगठनों ने भी एंडोसल्फान को मानव स्वास्थ्य के लिए बड़े खतरे के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया। एनजीओ और मौकापरस्त नेताओं के गठजोड़ से देश में बनी इसी ताकतवर लॉबी ने यूरोपीय देशों के दबाव में खेती से जुड़ी तमाम समस्याओं के लिए एंडोसल्फान को उत्तरदायी ठहराया, नतीजन हड़बड़ी में कदम उठाए जाने लगे। कुछ एनजीओ की रपटों में यह दावा किया जा रहा है कि केरल के कारगोड़ जिले के लोगों पर एंडोसल्फान का बेहद प्रतिकूल असर हुआ है। यूरोपीय संस्थानों के कृषि जानकारों के हवाले से एंडोसल्फान के इस्तेमाल पर रोक लगाने की सलाह दी जा रही है। एंडोसल्फान से होने वाले नुकसान का अध्ययन करने के लिए ताबड़तोड़ तरीके से कई समितियों का गठन किया गया, लेकिन अधिकांश समितियों का कहना है कि एंडोसल्फान के मानव स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव का कोई सबूत नहीं है। फरवरी 2001 में तमिलनाडु के फ्रेडरिक वनस्पति शोध संस्थान ने मानव रक्त, गायों व इलाके के पेड़-पौधों पर शोध करने के बाद कहा कि एंडोसल्फान के कोई अंश इनमें नहीं पाए गए। केरल कृषि विश्वविद्यालय को भी अपने शोध में एंडोसल्फान से मानव स्वास्थ्य पर होने वाले दुष्प्रभावों के बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिली। इसी तरह कृषि मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञों की समिति ने भी एंडोसल्फान और मानव स्वास्थ्य के बीच कोई संबंध होने से इनकार किया। यहां तक कि केरल सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने भी 2003 में अपनी रपट में कहा था कि एंडोसल्फान से मानव स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान के बारे में उसे कोई सबूत नहीं मिला है। सवाल उठता है कि इन सब सुझावों को दरकिनार करते हुए केरल सरकार ने एंडोसल्फान पर रोक लगाने का फैसला क्यों किया? जाहिर है कि पश्चिम की साम्राज्यवादी नीतियों के विरोध का ढोंग करने वाले वाममोर्चा के नेतृत्व वाली केरल सरकार का यह फैसला राजनीति से प्रेरित है। केरल सरकार इस फैसले के जरिए अपनी किसान हितैषी छवि चमकाने की कोशिश में जुटी है, लेकिन इस फैसले के नतीजे का अनुमान केरल के वाम योजनाकारों ने नहीं लगाया है। हकीकत यह है कि देश में इस्तेमाल होने वाले 120 लाख लीटर एंडोसल्फान में से केरल की भागीदारी सबसे कम है। गुजरात, आंध्र प्रदेश व मध्य प्रदेश समेत देश के दूसरे राज्यों में एंडोसल्फान का व्यापक इस्तेमाल किया जाता है और कहीं से भी किसानों ने इसके दुष्प्रभाव की शिकायत नहीं की है। पिछले दिनों गुजरात के किसानों ने एक खास एनजीओ की अगुवाई में चलाए जा रहे इस एंडोसल्फान विरोधी अभियान का विरोध किया था। असल में वैश्विक स्तर पर रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का कारोबार तेल के बाद दूसरा स्थान रखता है और इस कारोबार को हथियाने के लिए यूरोपीय व अमेरिकी कंपनियों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा है। यूरोपीय कंपनियां एंडोसल्फान पर रोक लगाकर उसकी जगह अपने महंगे कीटनाशकों की आपूर्ति करना चाहती हैं। फसलों की सुरक्षा में इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशकों के अंतरराष्ट्रीय बाजार की तीन बड़ी कंपनियां यूरोपीय हैं और ये कंपनियां वैश्विक कीटनाशक कारोबार के 50 फीसदी से ज्यादा हिस्से पर काबिज है। एंडोसल्फान दुनिया का तीसरा सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला कीटनाशक है, लेकिन इसके कारोबार पर भारतीय कंपनियों का एकाधिकार है। लिहाजा, यूरोपीय कंपनियां एंडोसल्फान को बाजार से बाहर करने पर तुली हुई हैं। स्टॉकहोम सम्मेलन के मद्देनजर अप्रैल माह में 172 देशों की बैठक होने वाली है, जो एंडोसल्फान को पीओपी सूची में शामिल करने के बारे में अंतिम फैसला करेगी। इनमें 27 यूरोपीय संघ के देश और 21 अफ्रीकी देश एंडोसल्फान के विरोध में ही फैसला लेने की सिफारिश करेंगे। यूरोप को निर्यात होने वाले कोको पर प्रतिबंध के डर से अफ्रीकी देशों के पास यूरोपीय यूनियन की नाजायज मांग का समर्थन करने के सिवाए कोई चारा नहीं है। यूरोपीय व अफ्रीकी देश एंडोसल्फान की वैश्विक खपत का महज 12 फीसदी इस्तेमाल करते हैं। लिहाजा, इसका खामियाजा हमारे किसानों को ही भुगतना पड़ेगा। सुखद संकेत यह कि इस लड़ाई में अर्जेटीना व चीन भारत का साथ दे रहे हैं और भारत सरकार को यूरोपीय पैसों के बल पर उछल रही एनजीओ लॉबी के दबाव में आए बगैर इस किसान विरोधी कदम का पुरजोर विरोध जारी रखना चाहिए|

Monday, March 14, 2011

इंतजार दूसरी हरित क्रांति का


वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इस बार भी अपने बजट भाषण में देश के पूर्वी भागों में हरित क्रांति लाने का जिक्र किया है। इस बार भी इस मद पर 400 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है। इस क्रांति को मुख्य रूप से धान की पैदावार पर केंद्रित रखने का प्रयास किया जाएगा। इस तरह के प्रयास फलीभूत होते हैं तो यह देश में ‘दूसरी हरित क्रांति’ होगी। इसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि देश के जिन हिस्सों ने पहली हरित क्रांति में योगदान किया उनमें से अधिकांश में उत्पादकता में ठहराव आ गया है और वहां की मिट्टी भी बीमार होने लगी है जिसकी मुख्य वजह उर्वरकों का अत्यधिक इस्तेमाल है। इसके अलावा सस्ती बिजली के चलते भूमिगत पानी का भी आवश्यकता से अधिक उपयोग किया जाना एक कारण है। दूसरी हरित क्रांति के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आई.सी.ए.आर.) और उसकी सहायक संस्थाओं के वैज्ञानिकों को आवश्यक टेक्नॉलॉजी सुलभ करवानी होगी तथा पूर्वी क्षेत्र की राज्य सरकारों को भी इसमें पूरा सहयोग करना होगा। पहली हरित क्रांति में देश के अग्रणी अनुसंधान संगठन आई.सी.ए.आर. से सम्बद्ध भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आई.ए.आर.आई.) की अविस्मरणीय भूमिका रही है। इसमें संदेह नहीं है कि पूर्वी भारत में कृषि उपज बढ़ाने की अपार सम्भावनाएं हैं। परंतु अनियंत्रित बाढ़, जल प्रबंधन की खामियों और बिजली की कमी बुनियादी समस्याओं में हैं। इनके चलते भी उन्नत और संकर बीजों के इस्तेमाल तथा किसानों को सही सलाह देकर हरित क्रांति की दिशा में आगे बढ़ना होगा। बिहार सरकार ने पहले ही इस दिशा में कदम उठाने शुरू कर दिये हैं। राज्य में परम्परागत बीजों के स्थान पर उन्नत किस्म के बीजों को बढ़ावा देने का काम व्यवस्थित तरीके से एक निश्चित ‘रोड मैप’ के तहत किया जा रहा है। पूर्वी भारत के जिन राज्यों को दूसरी हरित क्रांति की प्रयोग भूमि के रूप में चुना गया है, वहां प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं, भूमि उर्वराशक्ति से सम्पन्न है, और जलवायु की स्थिति भी कमोबेश अनुकूल है। सबसे बड़ी बात जो अनुकूल है वह यह कि वहां के किसान भी बहुत परिश्रमी हैं। परंतु पहली हरित क्रांति के क्षेत्रों के विपरीत पूर्वी भारत के ये क्षेत्र बुनियादी ढांचे के साथ ही कृषि पर निवेश से भी वंचित रहे हैं। यद्यपि अब नई खेती तकनीकों के साथ ही पशुधन में समृद्धि लाने, मात्स्यकी के विस्तार, बागवानी और सहायक कृषि गतिविधियों को बढ़ावा देकर किसान की आय बढ़ाने की जरूरत है। इसके साथ ही लघु सिंचाई, खास तौर पर माइक्रो इरिगेशन को अपनाने, जल व मृदा संरक्षण सुनिश्चित करने, छोटे कृषि उपकरणों को बढ़ावा देने के साथ ही छोटे- छोटे केंद्रों की स्थापना कर किसानों को मौसम के अनुरूप सुझाव देने जैसे कदम जरूरी हैं। बिहार का ‘किसान पाठशाला प्रयोग’ उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर रहा है। विभिन्न राज्यों की सफलताओं को जरूरी संशोधनों के साथ अन्य राज्यों में अपनाने की जरूरत है। बिहार के अलावा उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और असम जैसे अनेक राज्यों में व उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्सों में कृषि सुधार के कार्यक्रमों को तेजी से अपनाने की जरूरत बनी हुई है। यदि सुव्यवस्थित तरीके से इस दिशा में प्रयास हुए तो अगले पांच सालों में खाद्यान्न सुरक्षा में दूसरी हरित क्रांति का अविस्मरणीय योगदान सम्भव हो सकेगा। इस संदर्भ में पहली हरित क्रांति का स्मरण स्वाभाविक है। इसी के साथ आई.ए.आर.आई. में हुए काम व उससे पहले 1965-’66 में दक्षिण पश्चिमी मानसून की विफलता की याद आती है। तब इस बात की आशंका होने लगी थी कि कहीं देश को ’43 में बंगाल में पड़े अकाल जैसी स्थिति का सामना तो नहीं करना पड़ेगा। उस समय विश्वविख्यात कृषि वैज्ञानिक डॉ. नारमन बोरलाग ने उपज बढ़ाने के लिए सहयोग का हाथ बढ़ाया और वे अपने साथ 250 टन मैक्सिको के गेहूं का बीज लेकर आए। कुछ आरम्भिक कठिनाइयों के बाद दो प्रजातियों ‘सोनोरा-64’ और ‘लेरमा रोजो’ की सफलता ने तत्कालीन कृषिमंत्री सी. सुब्रह्मण्यम को तुरंत 18,000 टन मैक्सिकन बीज आयात करने के लिए प्रेरित किया। परिणामत: पहली बार में ही गेहूं का उत्पादन 1.2 करोड़ टन के स्तर से बढ़कर 1.64 करोड़ टन के स्तर पर पहुंचा तो इसे हरित क्रांति का नाम दिया गया। भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने इसे गहन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस संदर्भ में संस्थान के निदेशकों डॉ. बी.पी. पाल, डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन , डॉ. ए. बी. जोशी, डॉ. एम. बी. राव, डॉ. एच. के. जैन, डॉ. माथुर व डॉ. कोहली जैसे अनेक कृषि वैज्ञानिकों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। सौभाग्य की बात है कि आज के कृषि वैज्ञानिक बिना किसी विदेशी मदद के ही दूसरी हरित क्रांति के सपने को साकार करने की क्षमता रखते हैं।

Monday, March 7, 2011

किसके लिए बीज विधेयक


गत वर्ष 9 नवंबर को कृषि मंत्री ने राज्यसभा में नया बीज विधेयक प्रस्तावित किया। इससे पहले 2004 में भी इस विधेयक को प्रस्तुत किया गया था किंतु विरोध के कारण इसे स्टैंडिंग कमेटी के पास भेज दिया गया था। स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट के बाद मामूली परिवर्तन करते हुए इसे पुन: प्रस्तुत किया गया है। बजट सत्र में सरकार इसे पारित कराने का प्रयास करेगी। भारत के किसान समुदाय एवं किसान संगठनों में से किसी ने भी बीज का 1966 का कानून बदलने की मांग नहीं की थी। फिर यह नया कानून किसके आग्रह पर और किसके हितों के लिए लाया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने लालच के लिए टर्मिनेटर बीज बेचने प्रारंभ किए हैं। इन बीजों से उपजी फसल का दोबारा बीज के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इसलिए किसान हर फसल पर नया बीज खरीदने को विवश होते हैं। इस तरह बीज सार्वजनिक अधिकार से व्यक्तिगत अधिकार में तब्दील हो रहे हैं। बाजार में नकली एवं सबस्टैंडर्ड बीज भी बिक रहे हैं। नया प्रस्तावित विधेयक सर्वाधिक उदार नकली एवं घटियां बीज बेचने वालों के प्रति ही है। इसमें नकली एवं घटियां बीज बेचने वालों पर 25 हजार रुपये से एक लाख रुपये तक का जुर्माना लगाने का प्रावधान है। झूठी सूचनाएं देकर बीज पंजीकृत कराने वालों के प्रति भी यह विधेयक इतना ही उदार है। उन पर पांच लाख रुपये तक जुर्माना और एक साल तक की सजा का प्रावधान है। बीज फेल होने पर किसानों के मुआवजे के बारे में भी विधेयक मुआवजा समिति बनाने की सिफारिश तो करता है, लेकिन किसानों को मुआवजा प्रदान करने का फार्मूला क्या होगा, इस पर मौन है। फसल फेल होने पर बीज की कीमत के बराबर मुआवजा एक मजाक से अधिक कुछ नहीं हो सकता। मुआवजा फसल की क्षति के बराबर दिया जाना चाहिए। बीजों के मूल्य के विषय में भी यह विधेयक मौन है। विदेशी कंपनियों द्वारा पेटेंटिड बीजों पर रायल्टी कम कराने के लिए भी विधेयक में कोई प्रावधान नहीं किए गए हैं। गत वर्ष मोनसेंटो कंपनी ने बीटी कपास के बीज पर आंध्र प्रदेश में प्रति एकड़ 18 सौ रुपये रायल्टी वसूलनी प्रारंभ कर दी थी। किसानों के आंदोलन एवं आंध्र प्रदेश सरकार के प्रयासों के बाद 750 रुपये प्रति एकड़ रायल्टी वसूली गई। फसल सीजन पर किसानों को अकसर इच्छित बीज समय पर नहीं मिल पाते। जिस कारण किसान वैकल्पिक एवं निम्न स्तरीय बीज बोने के लिए विवश होते हैं। फसल सीजन पर सर्वत्र आवश्यक बीज किसानों को उपलब्ध हों, यह किसानों की आवश्यकता है। लेकिन प्रस्तावित विधेयक में बीज वितरण के ढांचे को मजूबत करने का भी कोई प्रावधान नहीं है। भारत में कृषि राज्यों का विषय है। प्रस्तुत विधेयक में राज्यों को केवल सलाह देने की भूमिका तक सीमित कर दिया गया है। केंद्र में बनने वाली बीज समिति ही देश में बीजों का पंजीकरण करेगी। देश में अनेक कृषि जोन हैं। भिन्न-भिन्न जोनों में अलग-अलग प्रकार की फसलों की प्रधानता है। राज्य सरकारें इस कार्य को अधिक कुशलता से निर्वहन कर सकती हैं। न जाने क्यों केंद्र सरकार राज्य सरकारों के कार्य को अपने हाथ में लेना चाहती है। बीजों के पंजीकरण के प्रकार के बारे में भी विधेयक स्पष्ट नहीं है। यदि एक ही प्रकार का बीज अलग-अलग ब्रांड नाम से बिकता है, तो यह स्वागत योग्य है। लेकिन यदि एक प्रकार का बीज एक ही कंपनी बेच सकेगी तो यह पंजीकरण पेटेंटीकरण जैसा हो जाएगा। इससे एकाधिकार बढ़ेगा और बीजों के दाम भी। भारत की परंपरागत समृद्ध बीज संपदा के संरक्षण का मैकेनिज्म भी इस विधेयक में नहीं है। इसके अभाव में हमारा बीज हमारे ही हाथों से निकल कर विदेशी कंपनियों के हाथों में जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो भारतीय कृषि विदेशी कंपनियों के रहमोकरम पर हो जाएगी और भारत की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। यदि कंपनियां मौके पर बीज की आपूर्ति करने से मना कर दें और बीज की मनमानी कीमत वसूलें तब हम भारत की 60 प्रतिशत आबादी को कैसे न्याय दे पाएंगे। विदेशों से प्राप्त बीजों को भारतीय परिस्थितियों एवं अलग-अलग कृषि जोनों में परीक्षण के बाद ही पंजीकृत किया जाना चाहिए। प्रस्तुत विधेयक में विदेशों में किसी कंपनी को सर्टिफिकेशन का अधिकार देना संदेह पैदा करता है। भारत में 37.5 करोड़ एकड़ भूमि पर खेती होती है। एक-तिहाई कृषि योग्य भूमि सिचांई के अंतर्गत आती है जिस पर दो फसलें ली जाती हैं। इस प्रकार भारत में प्रति वर्ष 50 करोड़ एकड़ के लिए बीज चाहिए। यदि एक एकड़ के लिए एक हजार रुपये का बीज किसानों को खरीदना पड़े तब यह प्रति वर्ष 50 हजार करोड़ का व्यवसाय है। अभी तक कंपनियों की पहुंच 10 प्रतिशत कृषि तक ही है। हमारे संपूर्ण बीज बाजार तक ये कंपनियां पहंुचे शायद इसीलिए यह विधेयक लाया जा रहा है? भारत में बीज के व्यवसाय के रास्ते में चार कानून पहले से मौजूद हैं। क्या वर्तमान कानून उन चारों कानूनों को बाईपास करते हुए बीज कंपनियों को लाभ और किसानों को घाटा पहुंचाने के लिए लाया जा रहा है? (लेखक किसान मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)



कृषि वैज्ञानिकों की पहल से दिल्ली में सब्ज बाग


दिल्ली-एनसीआर की बढ़ती जरूरतों के मद्देनजर अब एनसीआर में ही अनोखा खाद्य बैंक विकसित किया जा रहा है। एनसीआर के चार गांवों को गोद लेकर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के विज्ञानियों ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि छह महीने में इस योजना के नतीजे सामने होंगे और दो से तीन सालों में दिल्ली-एनसीआर में अनाज और सब्जियों का खुद का खाद्य बैंक तैयार हो जाएगा। इस स्थिति में अन्य राज्यों पर निर्भरता भी कम हो जाएगी। संस्थान ने सोनीपत के पबसरा, गुड़गांव के कुंबावास, फरीदाबाद के बदरपुर सईद एवं गाजियाबाद के परतापुर गांव को गोद लिया है। इन सभी गांवों का चयन करते हुए दो बातों का खासतौर पर ध्यान रखा गया कि एक तो अगले कम से कम पांच साल तक यहां जमीन का अधिग्रहण न हो, दूसरे वहां सिंचाई की व्यवस्था भी ठीकठाक हो तथा किसान भी पूर्ण सहयोग के लिए तैयार हों। संस्थान के निदेशक हरि शंकर गुप्ता बताते हैं कि कई माह से अंडर प्रोसेस इस योजना के तहत पहले चरण में गेहूं व कुछ मौसमी सब्जियां उगाई गई हैं। इसके अतिरिक्त यहां किसानों को कम पानी में अधिक सिंचाई व नई-नई कृषि तकनीकों का ज्ञान भी दिया जा रहा है। जल्द ही यहां सभी सब्जियों सहित फूलों की खेती भी शुरू कर दी जाएगी। गुप्ता के मुताबिक फिलहाल यहां जो फसल बोई गई है वह छह माह में तैयार हो जाएगी। गुप्ता ने बताया कि इन गांवों की एक खासियत इनका चारों दिशाओं में हाईवे के समीप होना भी है। इससे हम इन्हें देशभर के किसानों के लिए मॉडल विलेज के रूप में दर्शा पाएंगे। हमारी योजना आगे चलकर देश के तकरीबन एक सौ गांवों को इसी तर्ज पर विकसित करने की है। उन्होंने बताया कि ये चारों गांव इतनी सब्जियां और अनाज की पैदावार नहीं कर पाएंगे कि दिल्ली-एनसीआर की सभी जरूरतें पूरी हो जाएं, लेकिन अन्य राज्यों पर निर्भरता अवश्य कम हो जाएगी। इन गांवों में उपजा अनाज और सब्जियां उन्नत तकनीकों से उपजा होने के कारण स्वास्थ्य के लिए भी बेहतर होंगी।


Sunday, March 6, 2011

कृषि रसायन उद्योग की रफ्तार होगी तेज


भारतीय कृषि रसायन उद्योग वर्ष 2012 तक 7.5 फीसदी की सालाना बढ़ोतरी के साथ 170 करोड़ डॉलर (करीब 7,650 करोड़ रुपये) तक पहुंच सकता है। कैमसन बायोटेक्नोलॉजी लिमिटेड के संस्थापक एवं प्रबंध निदेशक धीरेन्द्र कुमार ने यह उम्मीद जताई। उन्होंने कहा कि बढ़ती आबादी, खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने पर अधिक जोर, प्रति एकड़ उपज बढ़ाने के दबाव के साथ-साथ कृषि भूमि की सीमित उपलब्धता और पुष्पों की खेती एवं बागवानी में हुए विकास के कारण भविष्य में कृषि रसायनों का इस्तेमाल बढ़ने की उम्मीद है। बकौल कुमार कंपनियां किसानों को कृषि रसायनों के सही मात्रा में इस्तेमाल के बारे में प्रशिक्षित करने के अपने प्रयासों में तेजी ला रही हैं। बढ़ती जागरूकता के कारण भी इन रसायनों के इस्तेमाल में तेजी आएगी। मौजूदा समय में कीटनाशकों का इस्तेमाल न किए जाने के कारण हर साल करीब 17 अरब डॉलर की फसल बर्बाद होती है। उन्होंने बताया कि पिछले तीन साल में भारत का पुष्प उत्पादन उद्योग 50 प्रतिशत बढ़ा है। राष्ट्रीय बागवानी मिशन ने वर्ष 2012 तक उत्पादन दोगुना करने का लक्ष्य रखा है। ऐसे में बागवानी व पुष्प उत्पादन क्षेत्र को बड़ी मात्रा में रसायनों की जरूरत होगी। भारत का कृषि रसायनों का बाजार वर्ष 2009 के 1.22 अरब डॉलर से बढ़कर वर्ष 2011 में 1.36 अरब डॉलर का हो गया। कुमार के मुताबिक अमेरिका, जापान और चीन के बाद भारत दुनिया में कृषि रसायनों का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। जैव उवर्रक और बायोसाइड्स रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का सबसे अच्छा विकल्प हैं। जैव उवर्रक कंपनियां रासायनिक उवर्रकों के स्थान पर प्राकृतिक बायोसाइड्स के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने का प्रयास कर रही हैं। बायोपेस्टीसाइड्स वे कीटनाशक होते हैं, जिन्हें जानवरों या पौधों के बैक्टीरिया और कुछ निश्चित खनिजों जैसे प्राकृतिक सामग्रियों से तैयार किया जाता है। बायोसाइड्स काफी प्रभावी, पर्यावरण अनुकूल और गैर टॉक्सिक हैं। रासायनिक उवर्रकों के लंबे समय तक इस्तेमाल करने से जमीन की गुणवत्ता और उवर्रता प्रभावित होती है, लेकिन जैव उवर्रकों का ऐसा कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। जो किसान अपनी जमीन की गुणवत्ता के क्षरण का सामना कर रहे हंै, वे अब अपने पांरपरिक तौर-तरीके को बदलने के लिए बाध्य हो रहे हैं। कुमार ने कहा कि रासायनिक उवर्रकों के प्रभावों के बारे में जागरूकता के साथ-साथ भारत से फलों और सब्जियों के निर्यात में भारी बढ़ोतरी ने भी रासायनिक कीटनाशक व्यवसाय और इसके विकास को काफी प्रभावित किया है। भारत के कीटनाशकों का बाजार करीब आठ हजार करोड़ रुपये का है और यह पांच से सात फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है। रासायनिक उवर्रकों के मामले में एशिया में भारत का चीन के बाद दूसरा स्थान है और वैश्विक स्तर पर देश 12वें स्थान पर है। वैश्विक कृषि रसायन उद्योग 2003 के 9.3 प्रतिशत के संचयी वार्षिक विकास दर से बढ़कर वर्ष 2008 में 41.7 अरब डॉलर तक पहुंच गया|

देश-विदेश को वैदिक खेती सिखा रहा हरियाणा का किसान


सिरसा वेद-पुराण सिर्फ हमारी सभ्यता-संस्कृति के वाहक नहीं, बल्कि अभी भी सफलता की गारंटी हैं। वैदिक युग के नुस्खे से मिश्रित या सामुदायिक खेती से जबर्दस्त नतीजे लेकर सिरसा के छोटे से कस्बे के किसान हरपाल सिंह ग्रेवाल ने कुछ यही साबित किया है। सिरसा से 12 किलोमीटर दूर स्थित बाबा सावन सिंह थेड़ी के किसान हरपाल सिंह ग्रेवाल ने वेद-पुराणों में वर्णित कृषि पद्धति को आधुनिक प्रयोगों के संग अपनाकर खेती की अनोखी राह दिखाई है। पिता से मिले ज्ञान के तहत वे अपने खेतों में एक साथ चार फसलों की उपज ले रहे हैं। इससे न केवल अधिक उपज होती है, बल्कि परंपरागत खेती की कई समस्याओं से भी मुक्ति मिलती है और फसल चक्र जैसे मसले का अंत भी। वह बताते हैं कि अग्निहोत्र, वृक्ष आयुर्वेद, पांचांग आदि पुराणों में कृषि के विविध रूपों को वर्णित किया गया है। इस नुस्खे या मिश्रित खेती में चार फसलों की एक साथ खेती होती है। इनके बीजों को एक साथ मिलाकर इसकी बुवाई की जाती है। पिछले 20 वर्षो से गेहूं, चना, सरसों व अलसी की पैदावार एक साथ प्राप्त रहे हैं। मिश्रित खेती से पैदावार भी अधिक मिल रही है। एक एकड़ में गेहूं 10 क्विंटल, चना छह क्विंटल, अलसी एक क्विंटल तथा सरसों पांच क्विंटल प्राप्त होता है। ग्रेवाल के साथ अब कई किसान जुड़ गए हैं और उन्होंने डाल दी है सामुदायिक खेती की नींव। अभी वह रूपाली शेरगिल, दलजीत सिंह भड़ाल, जसपाल सिंह ग्रेवाल व खुद की लगभग 87 एकड़ जमीन में सामुदायिक खेती कर रहे हैं। ग्रेवाल से खेती का यह गुर सीखने अमेरिका, आस्ट्रेलिया से हर वर्ष किसानों के दल आ रहे हैं। ग्रेवाल ने फसलों की सिंचाई के लिए वाटर हार्वेस्टिंग को अपनाया है। इसके तहत 4.1 एकड़ भूमि में वाटर बैंक बनाया है। 95 फीट चौड़ाई तथा 17 फीट गहराई वाला वाटर बैंक पर्यावरण को भी अनुकूल रखता है। सवाल रहा इन चारों फसलों को काटने के बाद अलग करना तो ग्रेवाल के अनुसार इसमें कोई परेशानी नहीं होती। पहले सरसों की फसल को काटा जाता है और शेष तीन फसलों को एक साथ काटते हैं। पुराने समय में सिरकियां या झारना होती थीं। उसी विधि से इन्हें आसानी से अलग कर लिया जाता है। झारना लोहे की प्लेट होती है जिसमें अलग-अलग आकार के छेद होते हैं। थ्रेसर में अलग-अलग आकार के झारने का प्रयोग करके एक ही समय में गेहूं, चना व अलसी को अलग कर लिया जाता है|