Friday, April 29, 2011

मुसीबत में पान किसान


सरकार की अनदेखी से खफा लंबे समय से आंदोलनरत पान किसानों ने अब सामूहिक आत्महत्या की चेतावनी दी है। जनवरी माह में चली शीत लहर से पान की फसल चौपट हो चुकी है और किसान मुआवजे की मांग कर कर रहे हैं। प्रकृति के इस कहर का सबसे ज्यादा खमियाजा उत्तर प्रदेश के पान किसानों को भुगतना पड़ा है। पान की खेती पर आश्रित परिवार पलायन को मजबूर हैं और भुखमरी की नौबत आ गई है। आलम यह है कि उत्तर प्रदेश के किसानों को नई खेती के लिए पान की लताएं भी पश्चिम बंगाल, राजस्थान और मध्यप्रदेश से मंगवानी पड़ी हैं। उत्तर प्रदेश में पान की नई फसल मार्च के दूसरे हफ्ते से लेकर अप्रैल की शुरुआत तक लगाई जाती है। यूपी में यह चुनावी साल माना जा रहा है, ऐसे में पान किसानों की नाराजगी राजनीतिक रूप ले सकती है। कभी किसानों के चेहरे पर मुनाफे की लाली लाने वाला पान अब घाटे का पर्याय बन गया है। इसकी फसल बेहद नाजुक होती है और यह ज्यादा गरमी या ठंड सहन नहीं कर पाती। इसे गरमी के मौसम में रोजाना चार बार और ठंड के दौरान हफ्ते में दो बार सिंचाई की जरूरत होती है। नियमित सिंचाई की जरूरत के कारण ही परम्परागत रूप से पान की फसल जलाशयों के किनारे की जाती है। लेकिन पिछले कु छ सालों से पानी की कमी के कारण पान की फसल किसानों के लिए परेशानी का सबब बन गई है। कभी पाला तो कभी लू का कहर पान किसानों की नियति बन चुका है। उड़ीसा, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी इस साल पान की फसल को नुकसान पहुंचा है लेकिन उत्तर प्रदेश में यह सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। सूबे के 17 जिलों में पान की 90 फीसद से ज्यादा फसल तबाह हो गई है। महोबा और ललितपुर जिलों में ही पान की फसल थोड़ी-बहुत बच पाई है। पश्चिम बंगाल सरकार अपने पान किसानों को राहत दे चुकी है लेकिन उत्तर प्रदेश में 85 करोड़ रुपये से ज्यादा की फसल बर्बाद होने के बावजूद किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। सरकार की बेरुखी के कारण ही सूबे में पान का रकबा घटकर आधा रह गया है। लखनऊ और महोबा में पान प्रयोग व प्रशिक्षण संस्थान खोले गए थे लेकिन अब यह संस्थान बंद किए जा चुके हैं। नई तकनीक के अभाव में किसान पुराने तरीके से खेती करते हैं लिहाजा कम मुनाफे के साथ ही जोखिम भी बढ़ जाता है। गुटखा के बढ़ते प्रचलन ने भी किसानों की कमर तोड़ने का काम किया है। आम जन-जीवन में धार्मिंक अनुष्ठानों से लेकर भोजन तक पान के महत्व को देखते हुए यह कमी शुभ संकेत नहीं है। किसी जमाने में पान की खेती का गढ़ रह चुके महोबा की पान मंडी अब वीरान हो चली है। महोबा में पान की खेती तीन हजार एकड़ से सिमटकर पांच एकड़ तक रह गई है। यहां के देसावरी पान की मांग समूचे देश में है और पाकिस्तान व अरब देशों में भी इसका निर्यात किया जाता था। घटती वर्षा और बढ़ती मंहगाई ने इसे तबाही की कगार पर पहुंचा दिया और जो थोड़ी बहुत उम्मीदें शेष हैं, उस पर सरकारी उपेक्षाएं भारी पड़ रही हैं। महोबा के पान की खासियत यह है कि देश के दूसरे हिस्सों में उपजने वाली अन्य प्रजातियों की तासीर इसके जैसी नहीं है। मुसीबत से घिरे किसानों की मदद के लिए अब तक किसी नेता ने कोई ठोस पहल नहीं की है। साल-दर-साल कुदरत का सितम सहते पान किसान हुक्मरानों की अनदेखी से निराश होकर अब पान की खेती से तौबा कर रहे हैं। विडंबना यह है कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही पान की फसल खाद-बीज पर मिलने वाली सब्सिडी और फसल बीमा के दायरे से भी बाहर है। केंद्र और प्रदेश सरकार पान किसानों के दर्द से बेखबर कान में रूई डालकर सो रही हैं। पाले से पान की फसल काली होकर नष्ट हो गई है और किसानों के पास बीज के लिए भी पुरानी बेलें नहीं बची हैं। पान के पत्ते की कीमत में 300 फीसद तक की तेजी आ चुकी है और देशी बंगला पान की कीमत 600 रुपए प्रति ढोली ( एक ढोली में 150 से 200 पत्ते होते हैं) के स्तर को पार कर गई है। पिछले साल एक ढोली 150 रुपये में मिल रही थी। देश के मशहूर बनारसी पान के पत्ते की कीमतों में भी 50 फीसद तक की तेजी आ चुकी है। अगर सरकार की कुंभकर्णी नींद अब भी नहीं टूटी तो वह दिन दूर नहीं जब किसान पान की खेती से पूरी तरह मुंह मोड़ लेंगे। पान किसानों के जख्मों पर झूठे वादों का मरहम लगाने की बजाए तत्काल नकद मुआवजे की व्यवस्था की जानी चाहिए। किसानों को पान की बेलें उपलब्ध करवाने के साथ ही लखनऊ के पान प्रयोग व प्रशिक्षण केंद्र में अविलंब जान फूं कने की जरूरत है। सरकार को समय रहते पान किसानों का संकट दूर करने की कोशिश शुरू कर देनी चाहिए अन्यथा हालात बेकाबू होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।


यह है खेती की पाठशाला



मध्य प्रदेश में कृषि विकास विभाग की आत्मा परियोजना अंतर्गत संचालित कृषक खेत पाठशाला से जुड़कर उमरिया जिले के सेमरिया पंचायत के अमहा गांव के किसानों ने एक ऐसी पढ़ाई पढ़ी जिसने उन्हें आधुनिक तकनीक अपनाने और उन्नत पैदावार लेने वाला हुनरगर बना दिया। खेत-खलिहानों और किसानों के बीच रची-बसी एक ऐसी पाठशाला जो सिर्फ किताब का कोरा ज्ञान नहीं देती वरन आधुनिक कृषि तकनीक के आधार पर खेती को लाभकारी बनाने का हुनर सिखाती है। गांव अमहा इन दिनों कृषि क्षेत्र में प्रगति पर है। इस वर्ष यहां के किसानों ने प्रति हेक्टेयर 30 से 45 क्विंटल गेहूं की पैदावार हासिल की है। ज्यादातर असिंचित भूमि वाले इस गांव में पानी की समस्या से जूझते हुए ग्रामीणों ने न सिर्फ टूटे बांध का श्रमदान से जीर्णोद्धार किया बल्कि खेती में एक नया मुकाम हासिल किया है। अमहा के रामधनी सिंह, जुगंतीबाई, जगन्नाथ सिंह, प्रह्लाद, कंधई सिंह सहित सरपंच रामबाई यादव खेती में आ रहे इस बदलाव का श्रेय कृषक-खेत पाठशाला को दे रहे हैं।

आत्मा परियोजना की सहयोगी संस्था निवसीडद्वारा संचालित अमहा कृषक खेत पाठशाला के एचीवर फार्मर जगन्नाथ सिंह बताते हैं कि गत वर्ष जब यह कार्यक्रम हमारे गांव में आया तब मन में कई तरह की शंकाएं रहीं लेकिन आज जब हम अपने खेतों और उनमें लहलहाती फसलों को देखते हैं तो मन में एक नया आत्मविश्वास महसूस होता है। उन्होंने पाठशाला से जुड़े कृषि विशेषज्ञों की बातों को ध्यान में रखकर खेत की गहरी जुताई, लेवलिंग व मेड़ बंधान कराया तथा ड्रिप इरिगेशन, स्प्रिंकलर का प्रयोग करते हुए मृदा-जल प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया। इसके साथ ही कृषि व उानिकी से जुड़ी अनुदान योजनाओं का लाभ लेते हुए वे आगे बढ़े तो धान व गेंहू फसल में बीज परिवर्तन, बीजोपचार व श्रीविधि अपनाकर दूसरों के लिए आज एक रोल मॉडल बन गए हैं। गांव के युवा फूलचंद यादव बताते है कि पाठशाला के जरिये खेत की तैयारी, बीजोपचार, कतारबद्ध बुआई, रोपड़ी विकास, सूक्ष्म जैविक तत्वों, संतुलित रासायनों का प्रयोग, सिंचाई व खरपतवार नियंत्रण की लागत घटाने की तकनीक का उपयोग सिखाया जाता है। 25 सदस्यों वाली इस पाठशाला को खरीफ व रबी फसलों के मौसम फसल विविधीकरण की छह क्रांतिक अवस्थाओं के बारे में किसानों को बताया जाता है। अमहा कृषक खेत पाठशाला से जुड़े आदिवासी कृषक रामधनी सिंह ने कोलियरी से सेवा निवृत्त होने के बाद खेती को अपना मिशन बनाया और दिन-रात खेती में नए प्रयोग करते हुए पाठशाला में सीखी बातों केा साकार करने में जुट गए। रेलवे लाइन के ठीक किनारे स्थित रामधनी सिंह का प्रदर्शन फॉर्म देखने लायक है। यहां के कुएं में जिस तरह दो बोर कराकर पानी की व्यवस्था बनाई गई है वह रोचक है। भरी गर्मी में भी यहां का पानी नहीं सूखता। एक हेक्टेयर वाले फार्म के एक एकड़ में पपीता, दशहरी आम के साथ नासिक प्याज की उन्नत पैदावार और कतारबद्ध भिंडी, सब्जी व फलोत्पादन की विविधता प्रकट करती है। यहीं वर्मी कंपोस्ट की एक छोटी इकाई भी है जिसका जैविक खाद यहां की फसलों को पुष्ट कर रहा है। इस बार रामधनी सिंह ने खरीफ सीजन में धान की पूसा सुगंधा व आईआर 64 आधार बीज का विपुल उत्पादन किया तो परिवार की जुगंतीबाई ने एक एकड़ में श्रीविधि से गेंहू की एमपी 3173 किस्म की बुआई कराई। उनके इस बीज परिवर्तन से प्रेरित होकर समीप के किसानों ने भी नए प्रमाणित बीजों की बुवाई की। नतीजतन, पहले की तुलना में डेढ़ गुना फसल उत्पादन हुआ। रामधनी बताते हैं कि आत्मा परियोजना के अंतर्गत लगाए गए फसल प्रदर्शन तकनीक से जहां सिंचाई करने, उर्वरक देने, खरपतवार निकासी में लागत कम हुई वहीं एक हेक्टेयर में 40 क्विंटल उत्पादन हुआ है जो कि पहले के 20-25 क्विंवटल से अधिक है। नई और वैज्ञानिक कृषि तकनीक अपनाने के फलस्वरूप आज रामधनी सिंह और उनके परिवार को एक हेक्टेयर की खेती से लगभग 2 लाख रुपए का मुनाफा हो रहा है। आज जब खेती महंगी पड़ती जा रही है, किसानों को आए दिन प्राकृतिक प्रकोप झेलना पड़ रहा है तो ऐसे में कृषक खेत पाठशाला की कम लागत तकनीक ने अमहा गांव के किसानों को खेती की एक नई राह दी है। एक ऐसी राह जिस पर चलकर खेती को लाभ का धंधा बनाने का सफर पूरा करना है।

Thursday, April 28, 2011

महिला किसानों ने दिखाई राह


 संकट के दौर में महिला किसानों के कई प्रेरणादायक उदाहरण सामने आ रहे हैं, जिनमें इस संकट से बाहर निकलने की उम्मीद भी नजर आती है। कई स्थानों पर यह देखा गया है कि यदि प्रोत्साहन और सहायता मिले तो सस्ती, टिकाऊ व पर्यावरण की रक्षा के अनुकूल खेती में महिला किसान विशेष तौर पर आगे आ सकती हैं। जालौन जिले की कोंच तहसील में समर्पण संस्था और लघु सीमांत किसान मोर्चे ने ऐसी ही तकनीक फैलाने का प्रयास किया है। डांग खजूरी गांव में एक-एक बूंद पानी को बचाने और उसका उपयोग खेतों को हरा-भरा करने का सराहनीय प्रयास देखा जा सकता है। यहां के कुंओं के पानी को बचाने का प्रयास गांववासियों ने अपने सीमित साधनों से किया है। यहां के छोटे स्तर के किसान जैविक खेती के लिए कंपोस्ट और वर्मीकंपोस्ट बनाने में आगे हैं। इसमें महिला किसानों की अग्रणी भूमिका है। वे अपने छोटे-छोटे खेतों और बगीचों में लगभग 35 तरह की फसलें उगा रही हैं। जैव विविधता और पर्यावरण रक्षा पर आधारित इस खेती को सरकार से बेहतर सहायता मिलनी चाहिए। गांववासियों ने बताया कि सरकार तीन लाख रुपये भी खर्च करे तो लगभग 24 पातालतोड़ कुंओं का बेहतर उपयोग हो सकता है। जुगराजपुर गांव की रंजना शर्मा जैविक खेती के प्रयोगों के लिए चर्चित रही हैं, उन्होंने बताया कि रेडियो, पुस्तकों व प्रशिक्षण शिविर से उन्होंने जैविक खेती की जानकारी प्राप्त कर पिता को प्रेरित किया कि 25 बीघा खेत में कम से कम पांच बीघा जमीन पर बिना रासायनिक खाद व कीटनाशक दवा के खेती करें। यह प्रयोग सफल रहा तो धीरे-धीरे रंजना ने अपने परिवार की पूरी जमीन पर जैविक खेती को सफल कर दिखाया।। समर्पण के निदेशक राधेकृष्ण ने कहा कि पहले हमें भी डर था कि जैविक खेती से बाद में कितने ही लाभ हों पर रासायनिक खाद छोड़ने से आरंभ में उत्पादन कम हो सकता है। पर महिला किसानों ने अपनी मेहनत व निष्ठा से उत्पादन भी बढ़ाया और पर्यावरण की भी रक्षा की। जैविक फसलों के लिए व्यापारी बेहतर कीमत दे रहे हैं। गोरखपुर जिले में भी गोरखपुर एनवायर्नमेंट एक्शन ग्रुप जीईएजी के प्रयासों से कई महिलाओं ने टिकाऊ व पर्यावरण के अनुकूल खेती को अपनाया है। गोरखपुर की ही प्रभावती दुधई जानी-मानी महिला किसान हैं। वह अपने दस सदस्यों के परिवार के साथ अपने खेतों के बीच बने आवास में रहती हैं। गांव में उनका एक पक्का घर भी है जहां उनके बेटे और बहू प्राय: रहते हैं पर प्रभावती को अपने डेढ़ एकड़ के खेत के पास रहना ही अच्छा लगता है। 55 वर्षीय प्रभावती ने लगभग 12 वर्ष पहले गोरखपुर एनवायर्नमेंट एक्शन गु्रप के संपर्क में आने के बाद जैविक खेती की राह अपनाई। उनकी खेती की एक विशेषता यह है कि वह मिश्रित खेती का बहुत अच्छा उपयोग करती हैं और विविध किस्म की फसलों की खेती करती हैं। प्रभावती के खेत में चावल, गेहूं, मक्का व महुवा आदि के अतिरिक्त विविध किस्म की सब्जियां उगाई जाती हैं जैसे तोरई, लौकी, लोबिया, सेम, बैंगन, अरबी, आलू, प्याज, टमाटर, शकरकंद, करेला, चौलाई, मूली, मिर्च, खीरा, भिंडी, फूलगोभी, गांठगोभी, गाजर, मटर, अदरक, लहसुन आदि। तिलहन में वे सरसों उगाती हैं। अधिया पर एक बीघा अतिरिक्त जमीन लेकर वह मूंगफली की खेती भी करती हैं। दलहन में वे मूंग, उड़द उगाती हैं। मसालों में वह हल्दी, लौंग, धनिया, सौंफ उगाती हैं। प्रभावती के खेत व बगीचे में अनेक फलदार पेड़ हैं जैसे अमरूद, आम, केला, कटहल, बेल, पपीता, शहतूत, शहजन, नींबू, चकोतरा, महुआ, अनार आदि। इसके अतिरिक्त बांस भी उगाया जाता है, इनमें नीम व सागौन के भी पेड़ हैं। हानिकारक कीड़ों को दूर भगाने के लिए नीम, धतूरा, मदार, कनैल, गेंदे आदि के जिन पौधों की जरूरत होती है उन्हें भी प्रभावती ने अपने खेत में ही उगा लिया है ताकि जरूरत होने पर इसके लिए भटकना न पड़े। प्रभावती के खेत में तीन भैंस व चार बकरियां भी हैं। पहले वह मुर्गियां भी पालती थीं। अपने खेत में प्रभावती कंपोस्ट व जैविक खाद बनाती हैं। इसके अलावा मटका खाद, केंचुओं की खाद वर्मीकंपोस्ट आदि भी वह बनाती हैं। खेतों में वह वर्षा का पानी रोकने के लिए अच्छी तरह मेड़बंदी करती हैं। इस तरह पौष्टिक गुणों से भरपूर वर्ष भर जैविक अनाज व सब्जी प्रभावती के दस सदस्य के परिवार को मिल जाता है। दलहन व तिलहन की भी जरूरत मुख्य रूप से अपने खेत से ही पूरी हो जाती है। अधिकांश मसाले व कई तरह की औषधि भी खेत से ही मिल जाती हैं। जलावन व अन्य तरह की लकड़ी, बांस भी खेत से मिल जाती है। खाद व कीड़ों की दवा भी खेत पर ही तैयार हो जाते हैं। साथ ही वर्ष भर बिक्री के लिए कुछ न कुछ मिलता रहता है। जुताई-बुवाई के लिए ट्रैक्टर या बैल किराए पर लेने व बोरिंग के लिए डीजल का खर्च प्रभावती को अभी करना पड़ता है। नादेप खाद का टैंक बनाते समय प्रभावती को सीमेंट उपलब्ध नहीं था तो उन्होंने बांस व टहनियों से काम चला लिया। प्रभावती का खेत बलुवा मिट्टी का है जो उपजाऊ नहीं मानी जाती है। पर जैविक खाद के उपयोग से प्रभावती ने इस बलुवा मिट्टी के खेत को ही उपजाऊ बना दिया है। इस तरह प्रभावती ने स्वयं प्रेरणादायक कृषि तो की ही साथ में कई स्थानों पर जैविक खेती का प्रशिक्षण भी दिया है। इसी तरह गोरखपुर की रामरति रासायनिक खाद व कीटनाशक दवा का उपयोग किए बिना इतनी बढि़या खेती करती हैं कि उन्हें दूर-दूर तक जैविक खेती के आदर्श किसान की पहचान मिली है। मात्र एक एकड़ के अपने खेत पर विविधता भरी अनेक फसलों को उगाते हुए रामरति अपने पति रामबहल व परिवार के अन्य सदस्यों के सहयोग से न केवल पूरे परिवार के लिए पौष्टिक अनाज, सब्जी, फल, दलहन, तिलहन आदि का पर्याप्त उत्पादन कर लेती हैं अपितु औसतन प्रतिमाह 3000 रुपये की नकद आय भी विभिन्न फसलों से प्राप्त कर लेती हैं। पिछले वर्ष की बिक्री को याद करते हुए रामरति ने बताया कि 5,000 रुपये के तो केले ही बेच दिए व गेंहू तथा चावल भी कुल 10,000 रुपये का बेचा। इसके अतिरिक्त आलू व विभिन्न सब्जियों की अच्छी बिक्री हुई। रामरति अपने खेत पर ही कंपोस्ट और वर्मीकंपोस्ट खाद तैयार करती हैं। नीम, गोमूत्र आदि से कीड़ों से रक्षा की दवा भी बनाती हैं। कभी विशेषकर धान की रोपाई में परिवार से बाहर के मजदूर की जरूरत पड़ती भी है तो इसके बदले में वह भी मजदूरी कर लेते हैं। इससे नकद खर्च बच जाता है। इस तरह खर्च को न्यूनतम रखते हुए रामरति ने खर्च और उत्पादन में 1:13 का अनुपात प्राप्त किया यानी एक रुपये के खर्च पर 13 रुपये का उत्पादन प्राप्त किया। लगभग दस वर्ष पहले जीईएजी के कार्यकर्ताओं का संदेश सुनने के बाद रामरति ने जैविक खेती की यह राह पकड़ने का निर्णय लिया था। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवा की खेती को धीरे-धीरे लगभग तीन वर्ष के समय में पूरी तरह छोड़ दिया। तब से वह जैविक खेती के लिए बहुत निष्ठा से मेहनत से करती हंै और इससे संतुष्ट हैं। वह बताती हैं कि इससे उनकी आय भी बढ़ी है और उत्पादन भी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

दोषपूर्ण खरीद-भंडारण नीति


ऊंची विकास दर, अरबपतियों की बढ़ती संख्या और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में दुनिया भर में धाक जमाने जैसी उपलब्धियों वाला भारत भूख के मामले में अफ्रीकी उपसहारा देशों से भी गई-गुजरी स्थिति में है। गौरतलब है कि भुखमरी की यह समस्या खाद्यान्न की कमी के कारण नहीं, उसके महंगे होने के कारण है, जिससे वह गरीबों की पहुंच से दूर बना हुआ है। इसी का परिणाम है कि भरे हुए भंडारघरों और अनाज सड़ने की घटनाओं के बीच भुखमरी की फसल लहलहा रही है। इसी को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि जिस देश में करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार हों वहां अनाज का एक दाना भी बर्बाद नहीं जाना चाहिए। लेकिन इस फटकार से भी सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। इस समय केंद्रीय पूल में तय मानक (162 लाख टन) की तुलना में खाद्यान्न का स्टॉक दो गुना से भी अधिक (441.84 लाख टन) है। फिर चालू रबी सीजन में खाद्यान्न पैदावार 23.5 करोड़ टन से अधिक होने वाली है। इसमें अकेले गेहूं की हिस्सेदारी 8.42 करोड़ टन है, जो अब तक की सर्वाधिक है। इसे देखते हुए सरकार ने चालू खरीद सीजन में 2.62 करोड़ टन गेहूं खरीदने का लक्ष्य निर्धारित किया है। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के पास भंडारण के लिए जितने गोदाम हैं वे पिछले सालों के गेहूं व चावल से भरे पड़े हैं और लाखों टन अनाज अभी भी खुले में बने अस्थायी गोदामों में पड़ा है। नियमों के मुताबिक तिरपाल से ढके अस्थायी गोदामों में रखा अनाज हर हाल में साल भर के भीतर खाली करा लिया जाना चाहिए। लेकिन महंगाई से भयाक्रांत सरकार इन्हें खाली कराने से पीछे हट गई। ऐसे में अनाज का फिर सड़ना लगभग तय है। सरकार हर साल करीब 14,000 खरीद केंद्रों से 5.5 करोड़ टन गेहूं और चावल की खरीद करती है। लेकिन देश के दर्जन भर राज्य ऐसे हैं जहां एफसीआइ खरीद नहीं कर पाती, जिससे किसानों को सस्ती दरों पर अनाज खुले बाजार में बेचना पड़ता है। उदाहरण के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश में किसान 1000 रुपये प्रति क्विंटल पर गेहूं बेचने को मजबूर हैं जबकि गेहूं का सरकारी खरीद मूल्य 1,120 रुपये प्रति क्विंटल है और प्रति क्विंटल की सरकारी खरीद पर 50 रुपये बोनस भी मिलता है। इसी को देखते हुए कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने सरकार को सुझाव दिया है कि किसानों से खाद्यान्न की खरीद में एफसीआइ के साथ निजी क्षेत्र का भी सहयोग लिया जाना चाहिए। खरीद-भंडारण नीति को विकेंद्रित करने के उद्देश्य से भंडारण (विकास एवं विनियमन) अधिनियम 2007 के तहत सरकार ने 25 अक्टूबर 2010 को भंडारण विकास एवं नियामक प्राधिकरण का गठन किया है। इसका उद्देश्य अनाज के खरीद-भंडारण क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना है। लेकिन खरीद-भंडारण को विकेंद्रित करने में सरकारी नीतियां ही बाधक हैं। उदाहरण के लिए इस साल गेहूं की सरकारी खरीद चालू होने से पहले ही भारतीय खाद्य निगम ने पंजाब और हरियाणा के गोदामों को खाली करने के लिए दूसरे राज्यों मे गेहूं व चावल का स्टॉक भेजना शुरू कर दिया। इसे लेकर उन राज्यों ने तीखा विरोध जताया जहां बिना जरूरत के अनाज की आपूर्ति शुरू कर दी गई। उच्चतम न्यायालय ने भी सरकार को सुझाव दिया कि अनाज की भंडारण व्यवस्था को विकेंद्रित किया जाए और हरेक जिले में और जरूरी होने पर तहसील या ब्लॉक स्तर पर भी गोदाम बनाए जाएं। भंडारण क्षमता में वृद्धि के लिए सरकार ने निजी-सार्वजनिक भागीदारी के तहत दस साल की गारंटी स्कीम बनाई है। इसके तहत हर राज्य में एक नोडल एजेंसी बनाई गई है। तय योजना के मुताबिक अगले दो सालों में 150 लाख टन अनाज रखने के लिए नए गोदाम उपलब्ध हो जाएंगे जिससे एफसीआई की मौजूदा भंडारण क्षमता 308 लाख टन से बढ़कर 458 लाख टन हो जाएगी। लेकिन स्कीम की प्रगति इतनी धीमी है कि लक्ष्य प्राप्त होना कठिन लगता है। फिर राज्य सरकारों का असहयोग भी भंडारण क्षमता बढ़ाने में बाधक बना हुआ है। देखा जाए तो खाद्यान्न भंडारण के लिए जगह की व्यवस्था करना एक कठिन चुनौती है। इसका कारण है कि खाद्यान्न के उत्पादन और सरकारी खरीद में वृद्धि के बावजूद सरकार भंडारण क्षमता बढ़ाने के मुद्दे पर आंख बंद किए रही। उसकी नींद तभी टूटी जब स्थिति विस्फोटक हो गई। फिर सरकार की खरीद और भंडारण नीति बेहद केंद्रीकृत रही है। अभी तक अनाज उत्पादक क्षेत्रों में ही भंडारण सुविधा बनाने की नीति रही है, अब इसे बदलकर खपत केंद्रों को आधार बनाना होगा। इससे अनाज की अचानक ढुलाई और कीमतों में उतार-चढ़ाव की समस्या से मुक्ति मिलेगी। फिर अनाज के भंडारण को गेहूं, चावल के चक्र से मुक्ति दिलाकर विकेंद्रीकृत करना होगा। यह तभी संभव है जब पीडीएस में गेहूं, चावल के साथ-साथ दाल, खाद्य तेल, मोटे अनाजों को भी शामिल किया जाए। भंडारण सुविधा में बढ़ोतरी इसलिए भी जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन व वैश्विक तापवृद्धि के चलते खाद्यान्न उत्पादन में आकस्मिक परिवर्तन होने लगा है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

Monday, April 25, 2011

नागपुरी संतरे पर मौसम की मार, पैदावार में आ सकती है कमी


दुनिया भर में अपने अलग स्वाद के लिए पहचाने जाने वाले नागपुर संतरे को इस बार गर्मी और बेमौसम ओलावृष्टि के कारण करीब 15 प्रतिशत तक नुकसान झेलना पड़ सकता है। नेशनल रिसर्च सेन्टर फार साइट्रस (एनआरसीसी) के निदेशक वीजे शिवंकर ने फोन पर बताया, 'मार्च में बढ़ती गर्मी और बेमौसम की ओलावृष्टि से नागपुर और उसके इर्द गिर्द करीब 15 प्रतिशत संतरे की फसल को नुकसान पहुंचा है। एनआरसीसी, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की ही एक सहयोगी संस्था है। ओलावृष्टि से फूल झड़ गए और फलों पर काले धब्बे बन गए। शिवंकर ने आगे कहा कि अगर अब भी जरूरी एहतियाती कदम एक सप्ताह के भीतर नहीं उठाए गए तो फलों को और नुकसान पहुंच सकता है। महाराष्ट्र में नागपुर के इर्द गिर्द खट्टे स्वाद वाले फलों नींबू, मौसमी और संतरों को करीब 1.5 लाख हेक्टेयर में उगाया जाता है। नागपुर को महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी के तौर पर जाना जाता है। इस क्षेत्र में संतरे का औसत उत्पादन मौजूदा समय में करीब 10 टन प्रति हेक्टेयर है जो अमेरिका, ब्राजील, इसाइल, स्पेन और दक्षिण अफ्रीका के मुकाबले काफी कम है। संतरे की 'अंबिया बहार' किस्म को इस क्षेत्र में साल के इन्हीं दिनों में उगाया जाता है। इस किस्म के पौधों में फूल फरवरी में आने शुरू होते हैं और अप्रैल के बाद से फल आना शुरू होते हैं। इनको तोड़ने का काम सितम्बर महीने के आसपास शुरू होता है। शिवंकर ने कहा कि विदर्भ के तीखे स्वाद वाले फलों के उत्पादन करने वाले क्षेत्रों में आम दिनों के विपरीत मार्च के महीने में ही तापमान बढ़कर 40 डिग्री सेल्सियस हो गया। उन्होंने कहा कि यह रुख जल्द ही गर्मी के और बढ़ने का संकेत हैं। उन्होंने कहा कि इसके अलावा वैश्विक तापमान के बढ़ने से भी साइट्रस फलों का उत्पादन इस क्षेत्र में प्रभावित हो रहा है। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में भूजल स्तर के घटने के कारण भी कई साइट्रस फलों के बागान सूख गए हैं। शिवंकर ने कहा कि इस क्षेत्र में उत्पादन की प्रक्रि या के मशीनीकरण के जरिये उत्पादकता बढ़ाकर 15 टन प्रति हेक्टेयर करने के प्रयास किए जा रहे हैं। नागपुर के संतरों की घरेलू बाजार में काफी पकड़ है।


मुसीबत में पान किसान


सरकार की अनदेखी से खफा लंबे समय से आंदोलन कर रहे पान किसानों ने सामूहिक आत्महत्या की चेतावनी दी है। जनवरी माह में चली शीतलहर से पान की फसल चौपट हो चुकी है और किसान मुआवजे की मांग कर कर रहे हैं। प्रकृति के इस कहर का सबसे ज्यादा खामियाजा उत्तर प्रदेश के पान किसानों को भुगतना पड़ा है। पान की खेती पर आश्रित परिवार पलायन को मजबूर हैं और गरीब परिवारों में भुखमरी की नौबत आ गई है। आलम यह है कि उत्तर प्रदेश के किसान नई खेती के लिए पान की लताएं भी पश्चिम बंगाल, राजस्थान और मध्य प्रदेश से मंगवा रहे हैं। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में पान की नई फसल मार्च के दूसरे हफ्ते से लेकर अप्रैल की शुरुआत तक लगाई जाती है। उत्तर प्रदेश में यह साल चुनावी साल माना जा रहा है, ऐसे में पान किसानों की नाराजगी राजनीतिक रूप ले सकती है। किसी जमाने में किसानों के चेहरे पर मुनाफे की लाली लाने वाला पान अब घाटे का पर्याय बन गया है। पान की फसल बेहद नाजुक होती है और यह ज्यादा गरमी या ठंड सहन नहीं कर पाती है। पान की फसल को गरमी के मौसम में रोजाना चार बार और ठंड के दौरान हफ्ते में दो बार सिंचाई की जरूरत होती है। जाहिर है कि नियमित सिंचाई की जरूरत के कारण ही परंपरागत रूप से पान की फसल जलाशयों के किनारे की जाती है। मगर पिछले कुछ सालों से मौसम के बदलते मिजाज और पानी की कमी के कारण पान की फसल किसानों के लिए परेशानी का सबब बन गई है। कभी पाला तो कभी लू का कहर पान किसानों की नियति बन चुका है। उड़ीसा, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी इस साल पान की फसल को नुकसान पहुंचा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में पान की फसल की फसल सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। सूबे के बांदा, इलाहाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, हरदोई, सीतापुर, कानपुर, जौनपुर और आजमगढ़ समेत 17 जिलों में पान की 90 फीसदी से ज्यादा फसल तबाह हो गई है। बर्बादी के इस मंजर से महोबा और ललितपुर जिलों में पान की फसल थोड़ी-बहुत बच पाई है। पश्चिम बंगाल सरकार अपने प्रदेश के पान किसानों को राहत दे चुकी है, लेकिन उत्तर प्रदेश में 85 करोड़ रुपये से ज्यादा पान की फसल बर्बाद होने के बावजूद किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। उत्तर प्रदेश को अपना घर बताने वाले कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी से पान किसान मदद की गुहार लगा चुके हैं, लेकिन झूठे दिलासों के सिवाए अब तक कुछ नहीं मिला है। सरकार की बेरूखी के कारण ही सूबे में पान का रकबा घटकर आधा रह गया है। किसानों की लंबी मांग के बाद लखनऊ और महोबा में पान प्रयोग और प्रशिक्षण संस्थान खोले गए थे, लेकिन अब दोनों जगह ये संस्थान बंद किए जा चुके हैं। नई तकनीक के अभाव में किसान पुराने तरीके से खेती करते हैं। लिहाजा, कम मुनाफे के साथ ही जोखिम भी बढ़ जाता है। गुटके के बढ़ते प्रचलन ने भी पान किसानों की कमर तोड़ने का काम किया है। सरकारी उदासीनता और मौसम की मार के चलते पिछले एक दशक में पान की खेती का ग्राफ तेजी से नीचे आया है। आम जन-जीवन में धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर भोजन तक पान के महत्व को देखते हुए यह कमी शुभ संकेत नहीं है। किसी जमाने में पान की खेती का गढ़ रह चुके महोबा की पान मंडी अब वीरान हो चली है। महोबा जिले में पान की खेती तीन हजार एकड़ से सिमटकर पांच एकड़ रह गई है। महोबा के देसावरी पान की मांग समूचे देश में है और पाकिस्तान व अरब देशों में भी इसका निर्यात किया जाता था। घटती वर्षा दर और बढ़ती महंगाई ने इसे तबाही की कगार पर पहुंचा दिया और जो थोड़ी बहुत उम्मीदें शेष हैं, उस पर सरकारी उपेक्षाएं भारी पड़ रही हैं। महोबा के पान की खासियत है कि देश और दुनिया के दूसरे हिस्सों में यह नहीं उपजता है और दूसरी प्रजातियों की तासीर इसके जैसी नहीं है। किसानों की आत्महत्याओं के कारण चर्चा में आए बुंदेलखंड में सियासी गोटियां खेलने के लिए राहुल गांधी, राजा बुंदेला और रीता बहुगुणा जोशी समेत कई नेता पहुंचे, लेकिन इलाके में दम तोड़ती पान की फसल को बचाने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है। साल-दर-साल कुदरत के सितम सहते पान किसान हुक्मरानों की अनदेखी से निराश होकर अब पान की खेती से तौबा कर चुके हैं। सूखे की मार झेल रहे इस इलाके के किसान पहले से ही मुसीबतों में घिरे थे, अब पान की बर्बाद फसल ने कहर बरपाया है। पान की फसल को बर्बादी के दंश से बचाने और पान किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए किसी भी सरकार ने पहल नहीं की है। कोई बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की मुहिम चला रहा है तो कोई गरीबों की झोपडि़यों में रात बिताकर अपने गरीब-हितैषी होने का प्रमाण-पत्र दे रहा है। मगर पान किसानों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए कोई आगे नहीं आया है। जब राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप लगाने तक ही सिमट जाएं तो उनसे किसानों के हित की उम्मीद लगाना बेमानी होगा। विडंबना यह है कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही पान की फसल खाद-बीज पर मिलने वाली सब्सिडी और फसल बीमा के दायरे से भी बाहर है। केंद्र और प्रदेश सरकार पान किसानों के दर्द से बेखबर कान में रूई डालकर सो रही हैं। पाले से पान की फसल काली होकर नष्ट हो गई है और किसानों के पास बीज के लिए भी पुरानी बेलें नहीं बची हैं। पान के पत्ते की कीमत में 300 फीसदी तक की तेजी आ चुकी है और देसी बांग्ला पान की कीमत 600 रुपये प्रति ढोली (एक ढोली में 150 से 200 पत्ते होते हैं) के स्तर को पार कर गई है। पिछले साल एक ढोली 150 रुपये में मिल रही थी। देश के मशहूर बनारसी पान के पत्ते की कीमतों में भी 50 फीसदी तक की तेजी आ चुकी है। अगर सरकार की कुंभकर्णी नींद अब भी नहीं टूटी तो वह दिन दूर नहीं, जब खाना तो दूर पूजा के लिए भी पान का पत्ता मयस्सर नहीं होगा। पान किसानों के जख्मों पर झूठे वादों का मरहम लगाने की बजाए नकद मुआवजे की व्यवस्था की जानी चाहिए। नई फसल के लिए किसानों को पान की बेलें उपलब्ध करवाने के साथ ही लखनऊ के पान प्रयोग व प्रशिक्षण केंद्र में अविलंब नई जान फूंकने की जरूरत है। सरकार को समय रहते पान किसानों के संकट को दूर करने की कोशिश शुरू कर देनी चाहिए। अन्यथा हालात बेकाबू होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

Sunday, April 17, 2011

एक पौधे से ही लीजिए दो किस्म की फसलें


पौधा एक और फसल दो। चौंक गए! रांची आइए, एक ही पौधे में टमाटर और बैंगन दोनों फलते हुए दिख जाएंगे। हेसाग निवासी मनोहर लाल चावदा ने काफी मेहनत और शोध के बाद इन पौधों को तैयार किया है। पहाड़ी जड़ी-बूटी के पौधे में बैंगन और टमाटर की ग्राफ्टिंग की है। पिछले वर्ष जुलाई में लगाए गए पौधे अब भी फल-फूल रहे हैं। पौधे की लंबाई अब सात फीट हो गई है। मनोहर लाल ने बताया कि इलाके में मिलने वाले जंगली पौधों वृहती की खासियत देखकर उनके दिमाग में यह आइडिया आया। वृहती जिसे स्थानीय भाषा में कुटमा कहते हैं, इसकी आयु काफी ज्यादा होती है। जबकि सब्जी के पौधों की अधिकतम आयु एक वर्ष। पहले चरण में मनोहर ने कुटमा के पौधे पर बैंगन को ग्राफ्ट किया, प्रयोग सफल रहा। इसके बाद इसी पौधे पर टमाटर ग्राफ्ट किया गया। कुछ ही दिनों बाद इस पौधे पर बैंगन और टमाटर दोनों फलने लगे। इन दोनों सब्जियों की सफलता पूर्वक ग्राफ्टिंग के बाद मनोहर अब शिमला मिर्च पर प्रयोग आजमाने में जुटे हुए हैं। बचपन से ही मनोहर लाल को पेड़ों से लगाव था। सरकारी नौकरी छोड़ दी। कुछ दिनों तक दर्जी का काम किया। लेकिन सिर पर तो जुनून सवार था पेड़-पौधों के प्रति। अपने घर के आंगन में ही छोटी सी जगह पर पौधों पर शोध शुरू किया। काफी मशक्कत के बाद तीन तरह के पौधे उन्होंने विकसित किए। एक केवल बैंगन का, दूसरा ग्राफ्टेड बैंगन और तीसरा ग्राफ्टेड बैंगन व टमाटर का पौधा है। तीसरे पौधे में बैंगन की चार किस्मों को ड्राफ्ट किया गया है। सबमें फल-फूल दिख रहे हैं। मनोहर लाल ने पपीता पर भी शोध किया है। एक पेड़ में तीन स्थानों पर मिट्टी लगाकर कलम जमाने का कार्य किया है। पिछले वर्ष इसकी अच्छी फसल भी उन्हें मिली है।


Saturday, April 16, 2011

उर्वरक नीति से बर्बाद होते किसान


गांधीजी ने एक बार अपनी दक्षिण भारत यात्रा के दौरान तमिलनाडु में एक किसान से पूछा कि आपका राजा कौन है? किसान ने आसमान की तरफ इशारा करते हुए कहा कि चाहे कोई भी हो, लेकिन सबसे बड़ा राजा तो ऊपरवाला ही है। ऐसा लगता है कि वर्षो से गांधीजी के नाम पर देश चला रही कांग्रेस ने किसानों को अंतिम राजा के भरोसे ही छोड़ दिया है। लंबे समय से चर्चा चल रही थी कि किसानों को उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी का तरीका बदला जाएगा, मगर अब किसानों को नकद सब्सिडी का सब्जबाग दिखाया जा रहा है। अब कहा जा रहा है कि वित्त वर्ष 2012-13 से पहले किसानों को सीधे पैसा देना मुश्किल है। जाहिर है कि नकद सब्सिडी और कुछ नहीं, बल्कि किसानों को भरमाए रखने के लिए यूपीए सरकार का एक तीर है। देश में हरित क्रांति की शुरुआत के समय कहा गया था कि रासायनिक उर्वरकों के कम इस्तेमाल का कारण उत्पादन कम हो रहा है। तब न तो देश की मिट्टी की गुणवत्ता की जांच की गई और न ही यह जानने की कोशिश की गई कि किस प्रदेश की मिट्टी में कौन से पोषकतत्व की कमी है। हरित क्रांति की उस आंधी में यह मान लिया गया कि मशीनों और उर्वरकों का ज्यादा से ज्यादा उपयोग ही विकसित खेती की निशानी है। हालांकि हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी हुई, लेकिन अब इसके अगुवा प्रदेशों मसलन हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उत्पादन दर नकारात्मक हो गई है। बंजर में तब्दील होते खेतों से निराश किसान मौत को गले लगाते रहे, लेकिन सत्ताधीशों ने कुछ करोड़ रुपये के पैकेज देकर जनता को बरगलाते रहे। समस्या की तह में जाने का प्रयास किसी ने नहीं किया और अब बंजर होती उपजाऊ जमीन के भयंकर आंकड़े सामने आ रहे हैं। भारतीय कृषि शोध संस्थान ने पिछले दिनों विजन 2030 दस्तावेज प्रकाशित किया है, जिसके मुताबिक। खेती लायक देश की कुल 14 करोड़ हैक्टेयर में से 12 करोड़ हैक्टेयर भूमि की उत्पादकता घट चुकी है। यही नहीं 84 लाख हैक्टेयर कृषि योग्य भूमि जलप्लावन अथवा खारेपन की समस्या से ग्रसित है। तेजी से घट रहे पेड़-पौधे और खनन कार्यो में हो रही बढ़ोतरी ने भी कृषि योग्य भूमि की कब्र खोदने का काम किया है। वनावरण घटने से मिट्टी में प्राकृतिक खाद की कमी होती जा रही हैं, वहीं बढ़ते खनन से मिट्टी में उपलब्ध तत्वों का अनुपात गड़बड़ा गया है। मिट्टी में किस पोषक तत्व की कमी है यह जाने बिना ही हमारे किसान सस्ते उर्वरकों का नुकसानदायक इस्तेमाल कर रहे हैं। रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित उपयोग के कारण ही खेती लायक भूमि बेजान हो चुकी है। रासायनिक उर्वरकों से किसानों के बर्बाद होने की कहानी को यूरिया पर मिलने वाली सब्सिडी के जरिए आसानी से समझा जा सकता है। यूरिया पर सब्सिडी देने की शुरुआत 1977 में की गई थी। यूरिया की कीमतें सरकार तय करती है और उर्वरक कंपनियां सरकारी दर पर ही यूरिया की बिक्री करती हैं। उर्वरक कंपनियों को लागत मूल्य से कम कीमत पर यूरिया बेचने से होने वाले घाटे की भरपाई के लिए सरकार सब्सिडी जारी करती है। उर्वरक कंपनियों को सब्सिडी के रूप में ज्यादा पैसा मिले इसके लिए जरूरी था कि किसानों को यूरिया के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया जाए। उर्वरक कंपनियों के दबाव में कृषि वैज्ञानिकों और सरकार ने यूरिया के प्रचार-प्रसार में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखा। मिट्टी में कमी चाहे जिंक, फॉस्फेट या किसी दूसरे किसी पोषक तत्व की रही हो, लेकिन किसानों को केवल यूरिया के छिड़काव की ही सलाह दी गई । नतीजन यूरिया पर दी जाने वाली सब्सिडी का बिल साल दर साल बढ़ता गया और इसके साथ ही उर्वरक कंपनियों के थैले भी भरते रहे। इस लूट से किसान रासायनिक उर्वरकों के जाल में फंसते गए। किसानों के कल्याण के नाम पर रचे गए इस ढोंग ने यूरिया के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया, नतीजन देश की उपजाऊ मिट्टी में पोषक तत्वों का अनुपात इस कदर बिगड़ गया कि अब उत्पादन दर नकारात्मक हो गई है। विडंबना यह है कि 2004-05 से लेकर अब तक महज पांच सालों में रासायनिक उर्वरकों की खपत में 40 से 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इस दौरान देश में खाद्यान्न उत्पादन केवल दस फीसदी बढ़ा है। आजादी के बाद से ही जैविक उर्वरकों को हाशिये पर डालकर सरकारें रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने में जुटी रहीं। 1950-51 में रासायनिक उर्वरकों की सालाना खपत 70 हजार टन थी वहीं 2010-11 में यह बढ़कर साढ़े ़पांच करोड़ टन हो गई है। गौर करने वाली बात यह है कि देश की कुल उर्वरक खपत में यूरिया का हिस्सा 2.7 करोड़ टन है यानी इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरकों में आधे से ज्यादा यूरिया है। यूरिया से इस अत्यधिक मोह के कारण मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों मसलन जिंक, जिप्सम, कॉपर सल्फेट व कैल्शियम की भारी कमी हो गई है। यूरिया की अधिकता से कार्बनिक तत्वों की कमी हो गई है जिससे मिट्टी कड़ी होकर तेजी अनुपजाऊ मिट्टी में तब्दील होती जा रही है। गंगा के मैदानी इलाकों समेत अधिकांश जगह उत्पादन स्थिर या नकारात्मक हो गया है। रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते दखल से कृषि की लागत में भी अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है, लिहाजा छोटे किसान खेती छोड़ रहे हैं। नाइट्रोजन की अधिकता के कारण यूरिया पर्यावरण की दृष्टि से भी खतरनाक है और हमारी आसपास की आबो-हवा को भी तेजी से बिगाड़ रहा है। पर्यावरणविदों का मानना है कि महज रासायनिक उर्वरकों का निर्माण रोककर ही भारत हरित गैसों के उत्सर्जन में आठ फीसदी की कमी कर सकता है। यूरिया के बेहताशा उपयोग ने पानी की मांग को बढ़ाया है और आज राजस्थान के श्रीगंगानगर व हनुमानगढ जैसे जिलों में जल-संकट इसी का परिणाम है। ग्रीनपीस नामक स्वयंसेवी संगठन के सर्वे में यह बात सामने आई थी कि देश के 96 फीसदी किसान रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं, लेकिन सब्सिडी के चलते वह विवश हैं। यह सुखद संकेत है कि अधिकांश किसान इस सच्चाई से वाकिफ हैं कि रासायनिक उर्वरकों के कारण ही मिट्टी का उपजाऊपन घट रहा है। रासायनिक उर्वरकों के लगातार उपयोग से मिट्टी में रहने वाले उपयोगी केंचुए और कीड़े-मकोड़े मर चुके हैं। अब मिट्टी की घटती उर्वरता से बेहाल किसान आत्महत्या कर रहे हैं। नीति-निर्धारक गलत कृषि नीति पर विचार करने की बजाय सब्सिडी बचाने के फेर में उलझ रहे हैं। उर्वरकों में पोषक तत्वों की उपलब्धता के आधार पर सब्सिडी देने की योजना पिछले साल लागू की गई थी, लेकिन यूरिया को इस योजना से बाहर रखा गया। हालांकि यूरिया कंपनियों को मालामाल करने के लिए यह कदम उठाया गया, लेकिन बेवजह इसे राजनीतिक संवेदनशीलता का मसला बताकर किसान हित का रंग दे दिया गया। अब यूपीए सरकार के आर्थिक मैनेजर दावा कर रहे हैं कि यूरिया को एनबीएस योजना में शामिल करने के बाद सब्सिडी बिल में 20 फीसदी से ज्यादा की कमी आएगी। सवाल है कि सरकार सब्सिडी बिल कम करने की जुगत में है या किसानों के भले के लिए कुछ करना चाहती है|