Friday, December 16, 2011

बिचौलियों से मुक्त नहीं फसल की खरीद

सरकार और व्यापार का खेती और किसानों को लेकर क्या नजरिया है, बीते दिनों की कुछ घटनाओं से भारत की कृषकीय दशा को समझा जा सकता है। संसद में एक प्रश्न के जवाब में सरकार ने स्वीकारा है कि अकेले विदर्भ में 2007 से लेकर 2010 तक 1118 किसानों ने आत्महत्या की है। यह संख्या उन किसानों की है जो किसी न किसी रूप से प्रधानमंत्री राहत कोष के लाभार्थी थे। यानी साफ है कि किसानों को दिये जाने वाले पैकेज का तात्कालिक या दीर्घकालिक फायदा नजर नहीं आया। ऐसे में सवाल है कि क्या वाकई सरकारी कवायद किसानों के व्यापक हित के लिए पर्याप्त है। किसानों की वर्तमान स्थिति समझने के लिए दो उदाहरण पर्याप्त हैं। पहला तमिलनाडु का है जहां सरकार ने घोषणा की है गरीबों को एक रुपए की कीमत पर चावल उपलब्ध होगा। गरीब लोगों को कम दर पर अनाज जरूर मिले लेकिन अनाज उत्पादक किसान नजरअंदाज न हों। दरअसल सस्ती दर पर अनाज देने की राजनीतिक होड़ का खमियाजा किसान उठा रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि जिन राज्यों में सस्ती दर पर अनाज देने की प्रक्रिया शुरू हुई है और सब्सिडी में कटौती की गई है उसी के बाद से किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में इजाफा हुआ है। सस्ती दर पर अनाज उपलब्ध करवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी सहयोग दिया है। काबिलेगौर है कि यही संस्थाए कृषि क्षेत्र को सब्सिडी दिए जाने का लगातार विरोध भी करती आई हैं। जो आलू बाजार में सामान्यत: 12 रुपये किलो के भाव मिलता है, उसे किस मजबूरी के तहत किसान एक रुपये किलो बेचने के लिए मजबूर है। बिहार उत्तर प्रदेश में आलू उत्पादक किसानों की यह बड़ी समस्या है। अकेले विदर्भ के 46 लाख कपास उत्पादक किसान, देश के लाखों आलू और गन्ना उत्पादक किसान सरकार की अनुचित खरीद पण्राली का दंश झेल रहे हैं। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि जब भारत जैसे देश में खेती पर सब्सिडी लगातार कम की जा रही है, अमेरिका, चीन और हमसे कहीं छोटे अफ्रीकी देशों की अर्थव्यवस्थाओ में खेती पर सब्सिडी बढ़ाई जा रही है। पूंजीवादी मॉडल पर चलने वाले अमेरिका की खेती पर सब्सिडी 25 हजार करोड़ रुपए तक पहुंच गई है। खेती को लेकर सरकार की संकीर्ण सोच महाराष्ट्र के गन्ना किसानों के आंदोलन से भी तय होती है। हालांकि फ्री मार्केट के पैरोकारों द्वारा चलाए गए इस आंदोलन के पीछे शुगर मिलों की चीनी निर्यात की मांग काम कर रही थी। आंदोलन के बाद सरकार ने रिकवरी के आधार पर गन्ने के मूल्य तय किये। परिणामस्वरूप पश्चिम महाराष्ट्र, मराठवाड़ा और विदर्भ को गन्ने की रिकवरी के आधार पर 2050,1850 और 1800 रुपए का मूल्य दिया गया। तर्क दिया गया कि पश्चिम महाराष्ट्र में करीब 12 से 13 प्रतिशत शक्कर की रिकवरी होती है। यानी एक क्ंिवटल गन्ने में से 13 किलो चीनी। साथ ही इथेनॉल जैसे अन्य उत्पाद भी निकलते हैं। इसके पीछे का तर्क तकनीक रूप से सही हो सकता है लेकिन मूल्य निर्धारण करने वालों को सोचना चाहिए कि शक्कर कम निकलती है तो उसमें किसान का क्या दोष? दरअसल सरकार की ओर से अब तक समेकित कृषि योजनाएं नहीं बन सकी हैं। मूलभूत सुविधा देने की बजाए ब्यूरोक्रेट्स की लूट के लिए पैकेज बनाए जाते हैं। सब्सिडी देने की जगह सस्ती दर पर अनाज बेच कर किसान को भुखमरी के कगार पर पहुंचा दिया जाता है। बिजली की जगह बीजों के दाम बढ़ाए जाते हैं। उपज खरीद अब तक बिचौलियों से मुक्त नहीं हो पाई है। नियंताओं को विचार करना चाहिए कि आखिर गलती कहां है?