Wednesday, May 23, 2012

गेहूं-निर्यात में बढ़ते कदम

सरकार ने केंद्रीय पूल से गेहूं निर्यात की प्रक्रिया शुरू कर दी है। स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन (एसटीसी) ने केंद्रीय पूल से गेहूं निर्यात के लिए निविदा मंगाई है। इसमें विदेशी आयातक ही भाग ले सकेंगे और विपणन सीजन 2011-12 और 2012-13 का ही गेहूं निर्यात होगा। बंदरगाह पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर गेहूं उपलब्ध होगा। गेहूं निर्यात पर विचार इसलिए हो रहा है, क्योंकि खरीद में सुस्ती और विभिन्न रुकावटों के कारण कोई दो करोड़ टन गेहूं सड़ने की स्थिति में है। इस साल 9.02 करोड़ टन के रिकॉर्ड उत्पादन का अनुमान है। जहां तक सरकारी गोदामों का सवाल है, वे फिलहाल अनाज से अटे हैं। केंद्रीय पूल में 1 अप्रैल 2012 को 543.36 लाख टन खाद्यान्न का स्टॉक था। इसमें करीब 200 लाख टन गेहूं है। चालू सीजन में सरकारी खरीद का लक्ष्य 318 लाख टन है। खुले बाजार में गेहूं का दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम है इसीलिए सरकारी केंद्रों पर ज्यादा गेहूं जा रहा है। ऐसे में सरकारी खरीद 335 लाख टन से भी ज्यादा होने का अनुमान है। गेहूं निर्यात के प्रस्ताव को मंजूरी मिल जाने से छह साल में पहली बार भारत सरकारी गेहूं भंडार को बेचने के लिए निर्यात बाजार का सहारा ले रहा है। हालांकि गेहूं का बड़े पैमाने पर निर्यात आसान नहीं है क्योंकि वैिक अनाज बाजार में सभी प्रमुख गेहूं निर्यातक- रूस, ऑस्ट्रेलिया व यूक्रेन आदि देशों के पास भारी भरकम अनाज का भंडार है। गुणवत्ता के मामले में भी भारतीय गेहूं दूसरे निर्यातक देशों के मुकाबले कमजोर है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत के मुकाबले यूक्रेन, रूस और ऑस्ट्रेलिया का गेहूं सस्ता भी है। फिर भी युगांडा, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, दुबई, और खाड़ी देशों को गेहूं की जरूरत है, लिहाजा इन देशों में भारतीय गेहूं के लिए बाजार हो सकता है। अब केंद्रीय पूल से गेहूं के निर्यात में भी सबसे बड़ी समस्या वित्तीय प्रबंधन की हो सकती है। क्योंकि गेहूं की खरीद व भंडारण की लागत साल 2012-13 में करीब 18.22 रु पये प्रति किलोग्राम रहने की संभावना है, वहीं अमेरिकी गेहूं की वैिक औसत कीमतें जनवरी-मार्च के दौरान 15.06 रुपये प्रति किलोग्राम थीं। यह भी उल्लेखनीय है कि सरकार ने सितम्बर, 2011 में गेहूं निर्यात पर रोक हटाई थी तथा निर्यातकों को खुले बाजार से गेहूं खरीद कर निर्यात की अनुमित दी थी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय गेहूं महंगा होने के कारण सितम्बर से अब तक 7.2 लाख टन गेहूं का ही निर्यात हो पाया है। इस साल भारत के लिए गेहूं का निर्यात करना इसलिए भी जरूरी है ताकि केंद्रीय पूल में नए स्टॉक के लिए जगह बन सके। यदि गेहूं का निर्यात नहीं हुआ, तो कई परेशानियां पैदा हो सकती हैं। ज्यादातर राज्यों में भी अनाज भंडारण क्षमता के मामले में स्थिति अच्छी न होने के कारण किसान धरने-प्रदर्शन पर उतर आए हैं। वे मजबूरी में आढ़तियों को एमएसपी से कम भाव पर अपना गेहूं बेच रहे हैं। सरकार ने इस बार गेहूं का एमएसपी 1285 रु पये प्रति क्ंिवटल तय किया है। गौरतलब है कि कुल स्टॉक के मुकाबले भंडारण क्षमता काफी कम होने के कारण चालू सीजन 2012-13 में सरकार को लगभग पचास फीसद खाद्यान्न गोदामों के बाहर खुले आसमान के नीचे आधे- अधूरे तिरपालों के सहारे ही रखना होगा। निश्चित रूप से गेहूं के निर्यात से जहां भंडारण की कमी से संबंधित चुनौती से कुछ तात्कालिक बचाव होगा, वहीं किसानों को भविष्य में फसल की बिक्री और अच्छे मूल्य की आशा बंधेगी। मार्च 2012 में संसद में पहली कृषि समीक्षा में भी भंडारण की आवश्यकता पर जोर झलका है। छोटे किसानों के लिए भंडारण की और ज्यादा जरूरत है। भंडारण सुविधा के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है। यद्यपि सरकार ने यह जरूरत पूरा करने के लिए वेयरहाउसिंग सेक्टर में 100 फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति भी दे रखी है और विभिन्न टैक्स रियायतें देकर निवेशकों को प्रोत्साहित करने का प्रयास भी किया जा रहा है। लेकिन निवेशकों के कदम वेयरहाउसिंग सेक्टर की ओर धीमी गति से बढ़ रहे हैं। चूंकि पर्याप्त खाद्यान्न भंडारण का संबंध अच्छी विदेशी मुद्रा की कमाई से भी जुड़ गया है अत: खाद्यान्न भंडारण की अच्छी व्यवस्था से खाद्यान्न निर्यात करके खाली होते हुए विदेशी मुद्रा भंडार को भी भरा जा सकेगा। अच्छे खाद्यान्न भंडारण द्वारा यूरो और डॉलर की कमाई विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने में मददगार हो सकती है। अच्छी भंडारण क्षमता और खाद्यान्न की उत्पादकता बढ़ाकर खाद्यान्न के निर्यात को विदेश व्यापार का प्रमुख अंग भी बनाया जा सकता है। देश में खाद्यान्न उपलब्धता का वर्तमान परिदृश्य चिंताजनक है। खाद्य एवं कृषि संबंधी कुछ नए वैिक अध्ययन संदेश दे रहे हैं कि भारत में छोटे किसानों को खुशहाल बनाने पर सबसे अधिक ध्यान देना होगा। इस संदर्भ में सी रंगराजन समिति की रिपोर्ट उल्लेखनीय है जिसमें कहा गया कि देश के 4 करोड़ 60 लाख छोटे किसानों को पर्याप्त भंडारण सुविधा, आसान कर्ज और खेती के समुचित संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। अब देश में कृषि बाजारों का आधुनिकीकरण किए जाने और उन्हें बहुवांछित बुनियादी ढांचा मुहैया कराने की भी महती आवश्यकता है। यह भी ध्यान देना होगा कि खाद्य सुरक्षा के लिए हम जिस तरह गेहूं और चावल की उत्पादकता बढ़ाने की योजना बना रहे हैं, उसी अनुपात में उन्हें रखने के लिए माकू ल भंडारण सुविधा भी स्थापित करनी होगी। इस कार्य में आने वाली अड़चनों को रोकना होगा। यह ध्यान देना होगा कि भारत से खाद्यान्न निर्यात के लिए प्रतिस्पर्धी देशों के समकक्ष निर्यात की रणनीति तैयार हो। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश में कृषि सुधारों के तहत खाद्यान्न उत्पादकता वृद्धि, वेयरहाउसिंग सेक्टर के आधुनिकीकरण तथा भारतीय कृषि सेक्टर को मजबूत आधार दिया जाएगा और खाद्यान्न निर्यात को देश के निर्यात का एक अभिन्न अंग बनाया जाएगा। तभी खाद्यान्न सुरक्षा और किसान का सबलीकरण हो सकता है।

बंपर पैदावार, किसान फिर भी कंगाल


भारी-भरकम सरकारी अमले के बावजूद एक ओर गरीबों को दो जून की रोटी मयस्सर नहीं है, वहीं दूसरी और अनाज का सड़ना नियति बनता जा रहा है। गेहूं के बंपर उत्पादन, खरीद में सुस्ती और उसके भंडारण के लिए उपयुक्त व्यवस्था न होने से उसके सड़ने की खबरें आने लगी हैं। खाद्य मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल पंजाब में 70,000 टन गेहूं उचित रखरखाव के अभाव में बरबाद हो गया। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार राज्यों को गेहूं खरीद के लिए पर्याप्त बोरे भी उपलब्ध नहीं करा पा रही है। खरीद प्रक्रिया धीमी होने के कारण उन्हें मजबूरी में आढ़तियों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम कीमत पर गेहूं बेचना पड़ रहा है। जिन राज्यों में एफसीआइ की खरीद का नेटवर्क नहीं है, वहां तो किसान पूरी तरह महाजनों-साहूकारों की दया पर निर्भर हो चुके हैं। खाद्य मंत्रालय ने चालू खरीद सीजन में कुल 3.18 करोड़ टन गेहूं खरीदने का लक्ष्य निर्धारित किया है, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के पास भंडारण के लिए जितने गोदाम हैं, वे पिछले सालों के गेहूं और चावल से भरे पड़े हैं और लाखों टन अनाज अब भी खुले में बने अस्थायी गोदामों में रखा पड़ा है। नियमों के मुताबिक तिरपाल से ढके अस्थायी गोदामों में रखा अनाज हर हाल में सालभर के भीतर खाली करा लिया जाना चाहिए, लेकिन महंगाई से भयाक्रांत सरकार ने गेहूं निर्यात की अनुमति देने में देर कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में ऑस्ट्रेलिया, रूस और यूक्रेन का गेहूं आ जाने से भारतीय गेहूं का निर्यात लाभकारी नहीं रह गया। भंडारण के संबंध में एक दुर्भाग्य पूर्ण बात यह है कि देश में उपलब्ध भंडारण क्षमता के 76 फीसद का ही उपयोग हो पा रहा है, जबकि उपयुक्त योजना के अभाव में 24 फीसदी खाली पड़ा है। इस समय देश में 720 लाख टन अनाज भंडार है, जो सामान्य रणनीतिक रिजर्व और बफर स्टॉक की सीमा (320 लाख टन) से ज्यादा है। एफसीआइ के आंकड़ों के मुताबिक इस अतिरिक्त भंडार में अनाज के रखरखाव की लागत लगभग पांच रुपये प्रति किलो है। इस हिसाब से देखा जाए तो इस अतिरिक्त 400 लाख टन का रखरखाव खर्च लगभग 20,000 करोड़ रुपये है। अगर सरकार इस अनाज का निर्यात करती है तो 20,000 करोड़ रुपये की लगात तो बचेगी ही, जगह भी निकल आएगी। इससे नए अनाज के भंडारण की समस्या अपने आप दूर हो जाएगी। देर से ही सही, अब सरकार ने केंद्रीय पूल से गेहूं निर्यात के लिए निविदा मांगी है। इसमें विदेशी आयातक ही भाग ले सकेंगे और निर्यात कांडला और मुंद्रा बंदरगाहों से होगा। निर्यात विपणन सीजन 2011-12 और 2012-13 के गेहूं का होगा। हालांकि निविदा में निर्यात की मात्रा और कीमत तय नहीं है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कम कीमतों को देखें तो बिना निर्यात सब्सिडी के गेहूं का निर्यात संभव नहीं होगा। चालू फसल सीजन में 25.26 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन होने का अनुमान है, जिसमें मुख्य हिस्सेदारी गेहूं और धान की होगी। देखा जाए तो भंडारण समस्या की मूल वजह गेहूं और धान केंद्रित कृषि रणनीति ही है। आज ये फसलें निश्चित रिटर्न के चलते नकदी फसलों में तब्दील हो चुकी हैं, लेकिन दलहनों, तिलहनों और मोटे अनाजों की खेती घाटे का सौदा बनी हुई है। ऐसे में यदि गेहूं, धान किसानों को उनकी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिली तो इस मामले में भी देश का हाल खाद्य तेल और दालों जैसे ही होगा। गौरतलब है कि उदारीकरण की नीतियों के तहत जब देश में सस्ता पामोलिव-सोयाबीन तेल आयात होने लगा तब सरकार ने तिलहनों की खरीद से मुंह फेर लिया, जिसका परिणाम हुआ कि खाद्य तेल आयात तेजी से बढ़ा। जो देश 1993 तक खाद्य तेलों के मामले में लगभग आत्मनिर्भर था, वही आज दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक बन चुका है। 2011-12 में 94 लाख टन खाद्य तेल का आयात किया गया, जिसके लिए सरकार को 35,000 करोड़ रुपये चुकाने पड़े। यह धनराशि सरकार की बहुचर्चित योजना मनरेगा के साल भर के आवंटन के बराबर है। इसी प्रकार सरकार हर साल 5000 करोड़ रुपये की 25 से 30 लाख टन दालों का आयात करती है। एक ओर सरकार पूर्वी भारत में खाद्यान्नों की पैदावार बढ़ाने के लिए दूसरी हरित क्रांति लाने में जुटी हुई है, वहीं दूसरी ओर इन राज्यों के किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा बनी हुई है। सरकार हर साल करीब 14,000 केंद्रों से अनाज की खरीद करती है, लेकिन देश के दर्जन भर राज्य ऐसे हैं, जहां एफसीआइ खरीद नहीं कर पाती। इससे किसानों को सस्ती दरों पर अनाज खुले बाजार में बेचना पड़ता है। इसी को देखते हुए कृषि लागत एवं मूल्यन आयोग ने सरकार को सुझाव दिया है कि किसानों से खाद्यान्न की खरीद में एफसीआइ के साथ निजी क्षेत्र का भी सहयोग लिया जाना चाहिए। जब गोदाम बनाने में निजी क्षेत्र की मदद ले रहे हैं तो अनाज खरीद में संकोच क्यों? खरीद-भंडारण नीति को विकेंद्रित करने के उद्देश्य से भंडारण (विकास एवं विनियमन) अधिनियम 2007 के तहत सरकार ने 25 अक्टूबर 2010 को भंडारण विकास एवं नियामक प्राधिकरण (डब्ल्यूडीआरए) का गठन किया है। इसका उद्देश्य अनाज के खरीद-भंडारण क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना है। डब्ल्यूडीआरए स्थानीय करों, स्टॉक सीमा जैसे व्यापारिक बाधाओं को दूर करने के साथ-साथ भंडारण क्षमता बढ़ाने हेतु निजी-सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी मॉडल) के तहत दस साल की गारंटी स्कीम बनाई है। इसके तहत पिछले तीन सालों में सरकार ने 1.50 करोड़ टन क्षमता वाले गोदामों के निर्माण की योजना बनाई है, लेकिन जमीनी हकीकत इसके उलट है, क्योंकि 2011 तक मात्र 89 लाख टन क्षमता के गोदामों टेंडर फाइनल किए गए हैं। इन गोदामों के तैयार होने में अभी कई साल लगेंगे। भंडारण क्षमता बढ़ाने में राज्य सरकारों का असहयोग भी एक बड़ी बाधा बन चुका है। सरकार ने 1 अप्रैल 2011 में ग्रामीण भंडारण योजना की शुरुआत की, लेकिन उसे भी अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है। देखा जाए तो खाद्यान्न भंडारण के लिए जगह की व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती है। इसका कारण है कि खाद्यान्नों के उत्पादन और सरकारी खरीद में वृद्धि के बावजूद सरकार भंडारण क्षमता बढ़ाने के मुद्दे पर आंख बंद किए रही। उसकी नींद तभी टूटी, जब स्थिति विस्फोटक हो गई। फिर सरकार की खरीद और भंडानरण नीति बेहद केंद्रीकृत रही है। अभी तक अनाज उत्पादक क्षेत्रों में ही भंडारण सुविधा बनाने की नीति रही है, अब इसे बदलकर खपत केंद्रों को आधार बनाना होगा। इससे अनाज की अचानक ढुलाई और कीमतों में उतार-चढ़ाव की समस्या से मुक्ति मिलेगी। भंडारण समस्या से निपटने के लिए फिर अनाज के भंडारण को गेहूं, चावल के चक्र से मुक्ति दिलाकर विविधीकृत करना होगा। 

Saturday, May 19, 2012

पंजाब में सड़े अनाज से बनेगी शराब


पंजाब के गोदामों और अनाज भंडारण के लिए खुले में बनाई गई प्लींथों पर रखे हुए अनाज का एक हिस्सा अब देश में गरीब का निवाला नहीं बन पाएगा। इस पर नॉट फिट फॉर हयूमन कंजंप्शन का ठप्पा लग चुका है। केंद्र सरकार की भंडारण नीति और रेलवे की अनाज ढुलाई गति इस सड़े अनाज को अमीर के प्याले में डालने वाली है, वो भी भारी सब्सिडी के साथ। शराब पर चाहे जितना आबकारी कर लग रहा हो पर इसे बनाने वाली कंपनियों को पंजाब में सड़ चुका करीब 47 हजार टन अनाज इस साल सब्सिडी के साथ अथवा बाजार भाव से एक तिहाई दामों पर मिलने वाला है। अगले साल भी ग्रेन बेस शूगर फ्री व्हीस्की अथवा सस्ती वोदका बनाने वाली किसी कंपनी को कच्चे माल की कमी न आए, इसका प्रबंध भी सरकार ने कर दिया है। यही नहीं चार से पांच हजार टन सड़ा अनाज अगले साल भी नीलाम किया जाएगा। संभव है तब तक हमारी व्यवस्था प्रकृति की आड़ में कुछ ऐसे और इंतजाम कर दे कि फिर आने वाले सालों में भी कमी न आने पाए। राज्य सरकार की अनाज खरीद एजेंसियों की तालमेल कमेटी के चेयरमैन भुपिंदर सिंह कहते हैं कि खराब होने वाली गेहूं का आंकड़ा आधा से एक फीसद ही है। इसे बढ़ा चढ़ाकर दिखाया जा रहा है, लेकिन अगर अनाज खराब हुआ है तो जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए, पर आप इसे सिर्फ कर्मियों के सिर पर नहीं थोप सकते। केंद्र सरकार के मापदंड के अनुसार गेहूं की सेल्फ लाइफ नौ महीने है, पर पंजाब के गोदामों में 2009 का गेहूं भी पड़ा है। 2005 में मामला सर्वोच्च न्यायालय तक जाने के बाद एफसीआइ ने एक साल में ही गेहूं उठवाने की बात स्वीकार की थी, पर अब फिर हालात वहीं के वहीं आ गए हैं। वहीं, पंजाब में एकबारगी सड़कों पर खराब होते धान को ठिकाने लगाने के लिए नई तकनीक की तलाश कर सस्ती बीयर बनाने का विचार भी यहां के नेता दे चुके हैं। वर्ष 2002 के बाद चलाए गए डाइवर्सिफिकेशन अभियान के दौरान कहा गया कि द्वि-फसलीय चक्र ने जौ व गन्ने की खेती के अधीन रकबा खत्म कर दिया है और हम धान की पैदावार इतनी बढ़ा चुके हैं कि संभल नही रहा। तर्क दिया गया कि हिमाचल प्रदेश के दूरदराज के पहाड़ी क्षेत्रों में फल उगते ज्यादा हैं पर मैदानों तक लाना खासा मंहगा हो जाता है। ऐसे में वहां की सरकारों ने वाइन पालिसी बनाई और राजस्व बढ़ाने के साथ रोजगार भी उपलब्ध करवा दिया। हाल ही के वर्षो का उदाहरण दे उक्त खुलासे के साथ सोशल साइंसेज एंड हेल्थ फोरम के डा.पीपी खोसला कहते हैं कि पंजाब के अनाज और देश के हालात को आप इस तरह से नहीं देख सकते। आपको अनाज सड़ने से रोकने के ही उपाय करने होंगे। या तो आप जमीन की कीमत के आधार पर गोदामों का किराया बढ़ाएं या फिर जहां सस्ते गोदाम हैं वहां मानसून आने से पहले गेहूं ले जाएं। डा.खोसला कहते हैं कि गेहूं और धान ही क्यों खराब होता है? केंद्र के संस्थान एफसीआइ का चावल तो कभी नहीं सड़ता।

दो करोड़ टन गेहूं सड़ने की नौबत


केंद्र और राज्य सरकारों की सुस्ती के कारण किसानों को अधिक अन्न उपजाने की सजा मिलने के आसार बनते दिख रहे हैं। खून-पसीना बहाकर पैदा किया अन्न अब किसान आंखों के सामने सड़ते देखेंगे। यही नहीं साढ़े आठ करोड़ टन से ज्यादा रिकार्डतोड़ फसल पैदा करने के बाद भी किसानों की जेब खाली रहेगी और गरीबों के पेट पहले की तरह ही भूखे। चूहे-कीड़े-मकोड़े खुले में सड़ता अनाज पहले जमकर छकेंगे और उसके बाद चांदी होगी तो शराब निर्माताओं की, क्योंकि किसानों के नाम पर कसमें खाने वाली सरकारों के पास उसकी फसल को रखने के इंतजाम ही नहीं हैं। इसके कारण दो करोड़ टन गेहूं बर्बाद होना तय है। केंद्रीय खाद्य मंत्री केवी थॉमस ने स्वीकार किया कि अन्न की ज्यादा पैदावार और भंडारण क्षमता में भारी अंतर बन गया है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों को खाद्यान्न भंडारण का अनुभव न होने से स्थितियां और खराब हो सकती हैं। अस्थायी व पक्के गोदामों में छंटाकभर अनाज रखने की जगह नहीं है। देश की बड़ी मंडियों में लाखों टन गेहूं खुले में जमा हो चुका है। उसे तिरपाल तक से ढकने की सुविधा नहीं है। एक जून तक 3.18 करोड़ टन गेहूं भंडारण का लक्ष्य है, लेकिन केंद्र ने हाथ खड़े कर भंडारण की जिम्मेदारी गेहूं उत्पादक राज्यों पर डाल दी है। सरकारी गोदामों में गुरुवार तक 7.80 करोड़ टन खाद्यान्न जमा हो चुका है। इसमें 3.00 करोड़ टन चावल और बाकी 2.30 करोड़ टन गेहूं है। उनमें पिछले सालों का लगभग 70 लाख टन पुराना अनाज भी भरा पड़ा है। देश में कुल 6.38 करोड़ टन खाद्यान्न भंडारण की क्षमता है। पंजाब, हरियाणा, उप्र और मप्र में रोजाना 10 लाख टन गेहूं आ रहा है। मंत्रालय के अनुमान के मुताबिक 1 जून 2012 तक इस क्षमता के मुकाबले दो करोड़ टन अनाज अधिक हो जाएगा। आशंका है कि मानसून की पहली बौछार के साथ बर्बादी की शुरुआत हो जाएगी। जिन राज्यों ने जितना बढ़-चढ़कर बंपर पैदावार की उन्हीं का अनाज सबसे ज्यादा सड़ेगा।