पश्चिमी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों और क्रेशरों में गन्ने की नहीं बल्कि किसानों की पेराई हो रही है। मिल प्रबंधन एक तो किसानों को उपज का सही दाम नहीं दे रहे। ऊपर से भुगतान भी किश्तों में किया जा रहा है, जिससे किसानों के माथे पर बल पड़ रह हैं। किसान अपनी फसल को लेकर इस कदर संकट से घिरे हुए हैं कि अपनी पीड़ा बयां करें तो आखिर किसके सामने। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत, मुजफ्फरनगर और सहारनपुर जिले को गन्ने का असली गढ़ माना जाता है। हर साल यहां के किसान इस उम्मीद से गन्ने की बुआई करते हैं कि शायद इस सत्र में भाव अच्छा मिल जाए, लेकिन हर बार की तरह इस सत्र में उनके पल्ले कुछ खास नहीं लग सका है। हां पिछला साल कुछ अपवाद रहा है। अच्छा भाव मिलने के कारण इस बार रकबा भी बढ़ा है। बागपत जिले में गत वर्ष करीब 65 हजार हेक्टेयर गन्ने की बुआई हुई थी तो इस साल रकबा करीब 70 हजार हेक्टेयर है। किसानों को उम्मीद थी कि इस बार उन्हें अच्छा भाव मिलेगा, लेकिन सरकार ने उनके अरमानों पर पानी फेर दिया। गन्ना विशेषज्ञ व पूर्व विधायक महक सिंह ने बताया कि गन्ने की उपज के हिसाब से सरकार गन्ने का भाव नहीं देती है। उनका कहना है कि इस साल उर्वरक, बिजली, पानी, डीजल आदि का खर्च जोड़कर गन्ने की उपज का दाम करीब 234 रुपये प्रति क्विंटल बैठता है, लेकिन सरकार द्वारा घोषित मूल्य 205-210 है। अब ऐसे में किसानों को प्रति क्विंटल 25 रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है। गत वर्ष गन्ने का मूल्य करीब 165-170 रहा था, मगर उस सत्र में भी उपज लगभग 190 रुपये क्विंटल बैठी थी। कुल मिलाकर हर साल किसानों को गन्ने की उपज पर प्रति क्ंिवटल 25 से 30 रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है। मिलों से भुगतान में देरी : बागपत जिले में तीन चीनी मिलें हैं, जिनमें दो सरकारी और एक प्राइवेट है। जिले का किसान इन्हीं मिलों के ऊपर निर्भर रहता है, लेकिन एनवक्त पर यह भी धोखा दे जाती हैं। वह गन्ने के भुगतान में देरी करती हैं। वैसे कम भाव में इनका कोई खास योगदान नहीं होता है जितना कि सरकार का होता है। गन्ना अधिकारी शेर बहादुर ने बताया कि गन्ना मूल्य पर उन्हें कोई टिप्पणी नहीं करनी है, क्योंकि यह सरकार द्वारा घोषित किया जाता है। उन्होंने यह जरूर कहा कि किसानों को उपज के हिसाब से गन्ना मूल्य दे दिया जाता है। कई बार चीनी मिलें किसानों को लाभ के हिसाब से बोनस भी देती हैं। कैसे होंगे बेटियों के हाथ पीले? : किसानों के लिए गन्ने की फसल ही सबसे अहम होती है। इसलिए वह उसी के ऊपर निर्भर रहता है और सालभर का खर्च वह गन्ने से ही निकलता है। अब सरकार द्वारा घोषित गन्ना मूल्य इतना कम है कि वह बेटियों के हाथ पीले करने में भी असमर्थ आ रहे हैं। कई किसानों से बात की गई तो उनका कहना था कि बेटियों के हाथ पीले करने के लिए उन्हें बैंकों से मोटा कर्ज उठाना पड़ रहा है। कोई किसान क्त्रेडिट कार्ड पर ऋण ले रहा है। किसानों की फसल का दाम तो बैंकों के ब्याज में ही चला जाता है और ऐसे में वह दो जून की रोटी के लिए भी मोहताज हो जाते हैं।
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