कर्ज के बोझ तले किसानों की आत्महत्याओं और गरीबी के कारण लाखों लोगों के भूखे सो जाने की खबरें बताती हैं कि आज हालात किस तरह बिगड़े हुए हैं। ऐसे समय में किसानों और गरीबों को संबल देना समाज व सरकार दोनों की ही जिम्मेदारी है। जिंदगी में मुसीबतें आती हैं किंतु उनसे लड़ने का हौसला खत्म हो जाए तो क्या बचता है? ऐसे में सरकारी तंत्र को ज्यादा संवेदना दिखाने की जरूरत है। उसे यह प्रदर्शित करना होगा कि वह किसानों के दर्द में शामिल है। कर्ज लेने और न चुका पाने का जो भंवर हमने शुरू किया है, उसकी परिणति तो यही होनी थी। भारतीय खेती का चेहरा, चाल और चरित्र सब कुछ बदल रहा है। खेती अपने परंपरागत तरीकों से हट रही है और नए रूप ले रही है। आज सरकारी तंत्र के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है कि इतनी सारी किसान समर्थक योजनाओं के बावजूद क्यों किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हैं। किसान इस जाल में लगातार फंस रहे हैं और कर्ज का बोझ लगातार बढ़ रहा है। बाजार की नीतियों के चलते उन्हें सही बीज, खाद और कीटनाशक घटिया मिलते हैं। जाहिर तौर पर इसने भी फसलों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डाला है। इसके चलते आज खेती हानि का व्यवसाय बन गई है। अन्नदाता खुद एक कर्ज के चक्र में फंस जाता है। मौसम की मार अलग है। सिंचाई सुविधाओं के सवाल तो जुड़े ही हैं। किसान के लिए खेती आज लाभ का धंधा नहीं रही। वह एक ऐसा कुचक्र बन रही है जिसमें फंसकर वह कहीं का नहीं रह पा रहा है। उसके सामने परिवार को पालने से लेकर आज के समय की तमाम चुनौतियों से जूझने और संसाधन जुटाने का साहस नहीं है। वह अपने परिवार की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहा है। कर्ज में डूबा किसान आज मौसम की मार, खराब खाद और बीज जैसी चुनौतियों के कारण अगर हताश और निराश है तो उसे इस हताशा से निकालने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है? आज सरकार, समाज और मीडिया को मिलकर एक वातावरण बनाना होगा कि समाज में गरीबों और किसानों के प्रति आदर बढे़ और उसे दो जून की रोटी की उपलब्धता सुनिश्चित हो ताकि वह मौत को गले न लगाएं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हालांकि तुरंत इस विषय में धोषणा करते हुए कहा कि किसानों को फसल का पूरा मुआवजा मिलेगा और किसानों को आठ घंटे बिजली भी मिलने लगेगी। निश्चय ही मुख्यमंत्री की यह घोषणा कि किसानों को हुए नुकसान के बराबर मुआवजा मिलेगा एक संवेदशील घोषणा है। सरकार को भी इन घटनाओं के अन्य कारण तलाशने में समय गंवाने की बजाय किसानों को आश्वस्त करना चाहिए। मूल चिंता यह है कि किसानों की स्थिति को देखते हुए जिस तरह बैंक कर्ज बांट रहे हैं और किसानों को लुभा रहे हैं वह कहीं न कहीं किसानों के लिए घातक साबित हो रहा है। कर्ज लेने से किसान उसे समय पर चुका न पाने कारण अनेक प्रकार से प्रताडि़त हो रहा है और उसके चलते उस पर दबाव बन रहा है। सरकार में भी इस बात को लेकर चिंता है कि कैसे हालात संभाले जाएं? इस संदर्भ में सरकार खाद्य सुरक्षा के अधिकार विधेयक को पारित करके देश की एक बड़ी आबादी के रूप में रह रहे किसानों की बड़ी मदद कर सकती है। सरकार के तंत्र को सिर्फ संवेदनशीलता के बल पर इस विषय से जूझना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए अन्नदाताओं के मनोबल को बढ़ाने के लिए सरकार कुछ ऐसे कदम उठाएगी जिससे वे आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए विवश न हों। व्यावसायिक लाबियों के दबाव में हमारे केंद्रीय कृषि मंत्री किस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, यह सारे देश ने देखा है। एक तरफ बर्बाद फसल तो दूसरी ओर बढ़ती महंगाई, आखिर आम आदमी के लिए इस गणतंत्र में आखिर क्यों नहीं जगह हो सकती है? यह सब एक संवेदनशील समाज को झकझोरकर जगाने के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन इसके बावजूद हमारे सत्ताधीशों की कुंभकर्णी निद्रा जारी है। ऐसे में क्या हम दिल पर हाथ रखकर यह दावा कर सकते हैं कि हम एक लोककल्याणकारी राज्य की शर्तो को पूरा कर रहे हैं। नौकरशाही किसानों की आत्महत्याओं को एक अलग रंग देने में लगी है। सत्ता में बैठे नेता जनता को गुमराह जरूर कर सकते हैं, लेकिन किसानों की आह लेकर कोई भी राजसत्ता लंबे समय तक सिंहासन पर नहीं रह सकती है। इस बारे में समय रहते हमें सोचना होगा और यथोचित कदम उठाने होंगे।
Sunday, January 23, 2011
दाने-दाने को मोहताज अन्नदाता
कर्ज के बोझ तले किसानों की आत्महत्याओं और गरीबी के कारण लाखों लोगों के भूखे सो जाने की खबरें बताती हैं कि आज हालात किस तरह बिगड़े हुए हैं। ऐसे समय में किसानों और गरीबों को संबल देना समाज व सरकार दोनों की ही जिम्मेदारी है। जिंदगी में मुसीबतें आती हैं किंतु उनसे लड़ने का हौसला खत्म हो जाए तो क्या बचता है? ऐसे में सरकारी तंत्र को ज्यादा संवेदना दिखाने की जरूरत है। उसे यह प्रदर्शित करना होगा कि वह किसानों के दर्द में शामिल है। कर्ज लेने और न चुका पाने का जो भंवर हमने शुरू किया है, उसकी परिणति तो यही होनी थी। भारतीय खेती का चेहरा, चाल और चरित्र सब कुछ बदल रहा है। खेती अपने परंपरागत तरीकों से हट रही है और नए रूप ले रही है। आज सरकारी तंत्र के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है कि इतनी सारी किसान समर्थक योजनाओं के बावजूद क्यों किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हैं। किसान इस जाल में लगातार फंस रहे हैं और कर्ज का बोझ लगातार बढ़ रहा है। बाजार की नीतियों के चलते उन्हें सही बीज, खाद और कीटनाशक घटिया मिलते हैं। जाहिर तौर पर इसने भी फसलों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डाला है। इसके चलते आज खेती हानि का व्यवसाय बन गई है। अन्नदाता खुद एक कर्ज के चक्र में फंस जाता है। मौसम की मार अलग है। सिंचाई सुविधाओं के सवाल तो जुड़े ही हैं। किसान के लिए खेती आज लाभ का धंधा नहीं रही। वह एक ऐसा कुचक्र बन रही है जिसमें फंसकर वह कहीं का नहीं रह पा रहा है। उसके सामने परिवार को पालने से लेकर आज के समय की तमाम चुनौतियों से जूझने और संसाधन जुटाने का साहस नहीं है। वह अपने परिवार की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहा है। कर्ज में डूबा किसान आज मौसम की मार, खराब खाद और बीज जैसी चुनौतियों के कारण अगर हताश और निराश है तो उसे इस हताशा से निकालने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है? आज सरकार, समाज और मीडिया को मिलकर एक वातावरण बनाना होगा कि समाज में गरीबों और किसानों के प्रति आदर बढे़ और उसे दो जून की रोटी की उपलब्धता सुनिश्चित हो ताकि वह मौत को गले न लगाएं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हालांकि तुरंत इस विषय में धोषणा करते हुए कहा कि किसानों को फसल का पूरा मुआवजा मिलेगा और किसानों को आठ घंटे बिजली भी मिलने लगेगी। निश्चय ही मुख्यमंत्री की यह घोषणा कि किसानों को हुए नुकसान के बराबर मुआवजा मिलेगा एक संवेदशील घोषणा है। सरकार को भी इन घटनाओं के अन्य कारण तलाशने में समय गंवाने की बजाय किसानों को आश्वस्त करना चाहिए। मूल चिंता यह है कि किसानों की स्थिति को देखते हुए जिस तरह बैंक कर्ज बांट रहे हैं और किसानों को लुभा रहे हैं वह कहीं न कहीं किसानों के लिए घातक साबित हो रहा है। कर्ज लेने से किसान उसे समय पर चुका न पाने कारण अनेक प्रकार से प्रताडि़त हो रहा है और उसके चलते उस पर दबाव बन रहा है। सरकार में भी इस बात को लेकर चिंता है कि कैसे हालात संभाले जाएं? इस संदर्भ में सरकार खाद्य सुरक्षा के अधिकार विधेयक को पारित करके देश की एक बड़ी आबादी के रूप में रह रहे किसानों की बड़ी मदद कर सकती है। सरकार के तंत्र को सिर्फ संवेदनशीलता के बल पर इस विषय से जूझना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए अन्नदाताओं के मनोबल को बढ़ाने के लिए सरकार कुछ ऐसे कदम उठाएगी जिससे वे आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए विवश न हों। व्यावसायिक लाबियों के दबाव में हमारे केंद्रीय कृषि मंत्री किस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, यह सारे देश ने देखा है। एक तरफ बर्बाद फसल तो दूसरी ओर बढ़ती महंगाई, आखिर आम आदमी के लिए इस गणतंत्र में आखिर क्यों नहीं जगह हो सकती है? यह सब एक संवेदनशील समाज को झकझोरकर जगाने के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन इसके बावजूद हमारे सत्ताधीशों की कुंभकर्णी निद्रा जारी है। ऐसे में क्या हम दिल पर हाथ रखकर यह दावा कर सकते हैं कि हम एक लोककल्याणकारी राज्य की शर्तो को पूरा कर रहे हैं। नौकरशाही किसानों की आत्महत्याओं को एक अलग रंग देने में लगी है। सत्ता में बैठे नेता जनता को गुमराह जरूर कर सकते हैं, लेकिन किसानों की आह लेकर कोई भी राजसत्ता लंबे समय तक सिंहासन पर नहीं रह सकती है। इस बारे में समय रहते हमें सोचना होगा और यथोचित कदम उठाने होंगे।
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