खाद्यान्न संकट की एक बड़ी वजह यह है कि हम आजादी के साठ सालों बाद भी अपने महज तीस फीसद खेतों को ही सिंचित कर सके हैं। शेष कृषि भूमि प्यास बुझाने के लिए मानसून की बाट जोहती है। ग्लोबल वार्मिग के इस दौ र में मानसून चक्र में होते जा रहे असामान्य परिवर्तन से स्थिति और खराब हो रही है । किसी साल मौसम की बेरुखी से सूखे की स्थिति बन रही है, तो कभी ज्यादा बरसात की मार फसलों पर पड़ रही है। सिंचाई व्यवस्था को ठीक कीजिए, ग्लोबल फामिंग या विदेशी निवेश इसका हल नहीं हैीं
बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में खाद्यान्न उत्पादन न बढ़ना सिलसिलेवार ढंग से की गई हमारी गलतियों का नतीजा है। हमने खेतों की सिंचाई, उनकी उत्पादकता बढ़ाने और उनकी उर्वरता को संरक्षित रखने के लिए कोई क्रमबद्ध योजना नहीं बनाई। कुछेक कार्यक्रम बने भी तो उन पर ढंग से अमल नहीं हुआ। उपजाऊ जमीन को अंधाधुंध तरीके से निचोड़ने के प्रयास ने समस्या में इजाफा किया है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे इलाकों में हरित क्रांति के बाद परम्परागत जैविक तौर-तरीकों को त्याग कर उर्वरकों का बेहिसाब प्रयोग शुरू हुआ। इससे शुरू में तो उत्पादन बढ़ा पर वक्त गुजरने के साथ ठहराव आने लगा। अब उर्वरकों और कीटनाशकों की मात्रा बढ़ाना जरूरी हो गया। नतीजतन एक ओर उर्वरकों- कीटनाशकों पर खर्च बढ़ने से खेती की लागत बढ़ी है, दूसरी ओर नशीली हो चुकी मिट्टी की उत्पादकता घट गई। खाद्यान्न संकट की दूसरी बड़ी वजह यह है कि हमारे नीतिकारों ने कृषि क्षेत्र के विकास हेतु बातें तो बड़ी-बड़ी कीं लेकिन आजादी के साठ सालों बाद भी महज तीस फीसद खेतों को ही सिंचित कर पाए। शेष कृषि भूमि प्यास बुझाने के लिए मानसून की बाट जोहती है। ग्लोबल वार्मिग के दौर में मानसून चक्र में होते जा रहे असामान्य परिवर्तन से स्थिति और खराब हो रही है। किसी साल मौसम की बेरुखी से सूखे की स्थिति बन रही है तो कभी बरसात की अधिकता की मार फसलों पर पड़ रही है। बेमौसम बारिश व तापमान में अचानक घट-बढ़ से भी कृषि उत्पादन प्रभावित हो रहा है। बुनियादी संसाधनों के अभाव में कृषि भूमि के बड़े क्षेत्र में किसान बुवाई तक नहीं कर पा रहा है।
सिंचन सुविधाओं की कमी
इस अभाव ने तो किसानों के हाथ-पाव बांध दिए हैं। जब पानी नहीं होगा तो चाहे कितने ही उन्नत बीज, प्रौद्योगिकी व उपकरण किसानों को मुहैया करा दिए जाएं, वे किसी काम के नहीं हैं। खेत में पानी न होने पर ट्रैक्टर-हार्वेस्टर क्या कर लेंगे? वैसे भी खेती के नए तरीके अपनाने का अब तक का नतीजा यही रहा कि किसान कर्ज में लगातार डूबता गया है। गलत सरकारी नीतियां ‘कोढ़ में खाज’ का काम कर रही हैं। औद्योगीकरण-शहरीकरण को ही विकास का अभिकरण मान बैठी सरकार बड़े पैमाने पर कृषि भूमि को रिहायशी इलाकों और ‘सेज’ के लिए अधिग्रहीत कर रही है। मेरा घर यूपी के शाहजहांपुर जनपद के तिलहर क्षेत्र में है। यह इलाका अपने समृद्ध उपजाऊ जमीन और कृषि उत्पादन के लिए मशहूर रहा है। लेकिन अब सड़क के दोनों किनारे निर्मित हो चुकी और निर्माणाधीन अनेक टाउनशिप दिखाई देती हैं।
कृषि भूमि का इतर प्रयोग भी घातक
खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरत तो खेती का रकबा बढ़ाने व अनुपजाऊ जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने की है लेकिन सरकारें इसके उलट कृषि भूमि को इतर कायरे के लिए इस्तेमाल की अनुमति देकर खाद्य संकट को गम्भीरतम स्तर तक पहुंचाने को तत्पर दिख रही है। जहां तक जीएम फसलों द्वारा खाद्यान्न उत्पादन के संकट से निबटने का प्रश्न है तो बात घूम-फिरकर सिंचाई पर आ जाती है। जीएम फसलों के खेल में मल्टीनेशनल कम्पनियों के अपने हित हैं। लेकिन सारा दोष उन्हीं पर मढ़ना ठीक नहीं। हमारे नीतिकार बच्चे तो हैं नहीं कि मल्टीनेशनल उन्हें बहला लें। हमारे लोग ही निजी फायदे के लिए उनके हाथों में खेलेंगें तो मल्टीनेशनल को दोष देने का फायदा नहीं है। हालांकि जीएम फसलों को एकदम से नकारना भी उचित नहीं है। इसका एक उदाहरण बीटी कपास है। ऐसा नहीं है कि बी.टी. कपास की खेती हर जगह फेल ही हुई।
पहले ठीक हो आपूर्ति की व्यवस्था
खाद्यान्न संकट के इस दौर में हमारी सरकार और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद खाद्य सुरक्षा बिल को लेकर बेमतलब की बहस में उलझी हैं। जब यह स्थापित तथ्य है कि विधेयक के मसौदे में शामिल वितरित होने वाली खाद्यान्न की मात्रा की व्यवस्था करना फिलहाल हमारे वश में नहीं तो बेहतर है कि बहस के बजाय अन्न उत्पादन बढ़ाने के तरीके और कार्यक्रम पर ध्यान केंद्रित किया जाए। सिर्फ कागजी तौर पर भोजन का अधिकार देने का आखिर क्या फायदा है? यदि सरकार एनएसी की सिफारिशों पर सहमत भी हो जाए तो खाद्यान्न की व्यवस्था कहां से की जाएगी? बेहतर होगा कि पहले आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित हो; उसके बाद वितरण के तरीके व मात्रा पर विमर्श हो। फिलहाल कृषि और किसानों को बदहाली से उबारने की ज्यादा जरूरत है। किसान हताश है, निराश है, कर्ज में डूबा है और खेती से ऊब चुका है। एनएसएसओ के एक सव्रेक्षण के मुताबिक 43 फीसद किसानों का कहना है कि वे महज मजबूरी में इस पेशे से जुड़े हुए हैं। हमें किसानों को इस निराशा के भंवर से उबारना होगा। इसके लिए कृषि नीति में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है ताकि खेती को मुनाफे का धंधा बनाया जा सके। जब हाड़तोड़ मेहनत करने, गर्मी-सर्दी-बरसात में श्रम करने के बाद भी किसान बदहाल रहेंगे तब हमारी खाद्य सुरक्षा खतरे में ही रहेगी। इसके लिए कई स्तरों पर काम करने की जरूरत है। जमीन की उत्पादकता को बढ़ाने व कृषि भूमि के व्यावसायिक उपयोग पर तत्काल पाबंदी लगाने की भी जरूरत है।
उपाय जो किये जाएं
सब्सिडी का इस्तेमाल उर्वरकों के बजाय खेतों की सेहत सुधारने में किया जाना चाहिए। किसानों की उपज के मूल्य निर्धारण में सरकार को और उदारता बरतनी होगी। अब तक सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को तय करते वक्त शहरी मध्य वर्ग को महंगाई से बचाने के प्रयास में किसानों के साथ संकीर्ण नजरिया दिखाती रही है। जब तक सरकार किसानों के श्रम और देश को भोजन उपलब्ध कराने में उनके योगदान की महत्ता को सही ढंग से स्वीकार कर उन्हें उचित मूल्य नहीं देती किसान और कृषि क्षेत्र खुशहाल नहीं हो सकता। परेशान किसान मजबूरी में या तो खेती छोड़ कर शहरों में विस्थापन को विवश होगा या मुसीबतों से छुटकारा पाने के लिए उसी आत्महत्या के रास्ते की ओर बढ़ेगा जिसे पिछले 15 सालों में करीब दो लाख किसान अपना चुके हैं। खेती में फसलों की विविधता को बढ़ावा देने की जरूरत है। पीडीएस में सिर्फ गेहूं और चावल को शामिल करने और सिर्फ उनकी सरकारी खरीद ने हमारी अन्न की विविधता को नुकसान पहुंचाया है। अन्यथा हमारा किसान मक्का, बाजरा और मडुवा आदि जिंसों की गैर-सिचिंत इलाकों में खेती कर खाद्य सुरक्षा में योगदान करता था। अब सरकार इससे सबक लेते हुए इन मोटे अनाजों को अपनी खरीद प्रक्रिया और पीडीएस के दायरे में शामिल करना चाहिए।
विदेशी निवेश हल नहीं
इस समस्या का हल खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को अनुमति देने में तलाशना बिल्कुल उचित नहीं है बल्कि सरकार जो सहूलियतें विदेशी कम्पनियों को देने की सोच रही है वह अपने कारोबारियों को मुहैया कराकर उसके प्रभाव का आकलन करे। इससे भी ज्यादा जरूरत इस बात की है कि सरकार खाद्यान्न को अतिरिक्त उपलब्धता वाले क्षेत्र से जरूरतमंद इलाके तक तत्काल पहुंचाने के लिए कोई ठोस व्यवस्था अमल में लाए और इसके क्रियान्यवयन में बाधक बन रहे कानूनों को तत्काल समाप्त करे। इस क्षेत्र में पूंजीपतियों के बजाय मंझोले और छोटे व्यापारियों को हिस्सेदारी के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साथ ही इसके नियमन के लिए सरकार द्वारा उचित मैकेनिज्म स्थापित करने चाहिए।
पहले अपने खेत सींचे
जहां तक खाद्य सुरक्षा के लिए ग्लोबल फार्मिग को अपनाने का सवाल है यह आवश्यकता और नैतिकता दोनों से समान रूप से जुड़ा विषय है। इसके तहत चीन और अरब देशों ने बड़े पैमाने पर अफ्रीका में भूमि किराए पर लेकर खेती शुरू की है। अफ्रीका में भूमि और पानी की प्रचुर उपलब्धता है। लेकिन ग्लोबल फार्मिग के वक्त यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ऐसा करना दोनों संबंधित देशों के हित में हो। यदि इस तरीके से खेती में निवेश करने वाले देशों को लाभ होने के साथ अफ्रीकी देशों में भुखमरी कम हो सके तो यह स्वागतयोग्य है। लेकिन यदि इसकी आड़ में अफ्रीकी देशों का महज शोषण हुआ तो अनुचित होगा। हमारी कुछ कम्पनियां केन्या में गुलाब की खेती कर रही हैं। यह बिल्कुल अनुचित है। अरब देश यदि अपने यहां उपजाऊ भूमि के अभाव में ग्लोबल फार्मिग के लिए अफ्रीका का रुख करते हैं तो यह समझ में आता है। लेकिन भारत जैसे देश, जो अब तक अपनी उपलब्ध भूमि का समुचित उपयोग नहीं कर पाए हैं, अफ्रीका का रुख करना गैरजरूरी है। हमें अपना पूरा ध्यान, ऊर्जा और संसाधन कृषि भूमि को सिंचित करने, उसकी उत्पादकता बढ़ाने और किसानों की वास्तविक जरूरतों के अनुरूप उन्हें संसाधन मुहैया कराने पर लगाना चाहिए। तब खाद्य सुरक्षा से सम्बंधित सभी समस्याओं का हल हमें अपने कर्मठ किसानों द्वारा ही मिल जाएगा।
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