चुनाव के समय मतदाताओं से बड़े-बड़े वादे करने वाली सियासी पार्टियां, सत्ता में आने के बाद किस तरह उनसे वादाखिलाफी करती हैं, हाल ही में यह बात मध्यप्रदेश में सामने आई है। पिछले विधानसभा चुनाव में अपने चुनावी घोषणा-पत्र में किसानों के 50 हजार रुपए तक के कर्ज माफ करने का वादा करने वाली बीजेपी, आज अपने वादे से मुकर गई है। चार साल होने को आए, पर सूबे में यह वादा पूरा होता नहीं दिख रहा। हद तो तब हो गई, जब मध्य प्रदेश विधानसभा के अंदर बीजेपी शासन के मंत्रियों ने ऐसे किसी वादे से अपनी अनभिज्ञता जताई। सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन और उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय दोनों ने ही इस मुद्दे पर विधानसभा में कहा कि सरकार ने किसानों के 50 हजार रुपए की कर्ज माफी का कभी कोई औपचारिक एलान नहीं किया। यानी, अपनी ही पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र को अब सरकार के मंत्री झुठला रहे हैं। सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने सरकार का बचाव करते हुए विधानसभा में बचकाना बयान दिया कि कर्ज माफी का वादा पार्टी ने किया था, सरकार ने नहीं। लिहाजा, सरकार जबावदेह नहीं। सहकारिता मंत्री के बयान से जाहिर है कि बीजेपी राज्य में किसानों और उनकी समस्याओं के प्रति कितनी संजीदा है? बीजेपी ने साल 2008 के विधानसभा चुनाव में अपने चुनाव घोषणा-पत्र में किसानों से वादा किया था कि यदि वह सत्ता में आई, तो उनका 50 हजार रुपए तक का कर्ज माफ कर दिया जाएगा। पार्टी ने इस वादे को बाकायदा पचरें में छपवाकर किसानोें के बीच बांटा। यहां तक कि पचरें में उस वक्त के अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह तक का हवाला दिया गया। कर्ज माफी के इस वादे का बीजेपी को खूब फायदा मिला। उसके वायदे पर यकीन कर सूबे के किसानों ने उसको जमकर वोट दिए लेकिन हुकूमत में दोबारा वापिस आते ही सरकार ने अपना वादा भूल गयी। सरकार ने किसानों से तो वादाखिलाफी की ही, केन्द्र से कर्ज माफी के लिए मिले 915 करोड़ रूपए में भी सेंध मार दी। आलम यह है कि सूबे में सहकारी संस्थाओं के घोटालों के चलते किसानों के 115 करोड़ रुपए के कर्ज माफ नहीं हो पाए हैं। इस बात का इकरार खुद सरकार ने किया है। राज्य सरकार की तमाम किसानोन्मुखी योजनाओं के दावों के बीच मध्य प्रदेश में तकरीबन 32 लाख 11 हजार से ज्यादा किसान आज भी कर्ज के बोझ से दबे हैं। खुद सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने विधानसभा में इस बात को माना है कि सूबे के किसान जिला सहकारी कृषि व ग्रामीण विकास बैंकों के सात हजार करोड़ रुपए से ज्यादा के कर्जदार हैं। सूबे में औसतन हर किसान पर 14 हजार 218 रुपए के कर्ज का बोझ है। जबकि कडुवी सचाई यह है कि राज्य में 30 फीसद से ज्यादा ऐसे किसान हैं, जिनके पास महज एक से लेकर तीन हेक्टेयर तक ही खेती के काबिल जमीन है। कृषि मामलों के जानकारों का मानना है कि सूबे के 50 फीसद से ज्यादा किसानों पर फिलवक्त संस्थागत कर्ज चढ़ा है। इसके अलावा किसान स्थानीय साहूकारों और बड़े व्यापारियों से भी कर्ज लेते हैं। यह कर्ज ऐसा है, जो उन्हें चैन से जीने नहीं देता। यही वजह है कि मध्य प्रदेश में बीते 10 सालों में किसानों की खुदकुशी के मामलों में लगातार इजाफा हुआ है। इन 10 सालों में यहां तकरीबन 14,155 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक सूबे में हर दिन चार किसान खुदकुशी करते हैं। साल 2003-04 में पड़े सूखे के बाद से तो यहां आत्महत्या का ग्राफ बढ़ता चला गया है। किसानों को बीज, खाद, पानी और बिजली जैसी खेती की बुनियादी जरूरतें भी नहीं मिल पा रहीं हैं, जिसके चलते वे हताशा में आत्महत्या की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं। किसी भी सरकार के लिए इससे ज्यादा अफसोस की बात क्या होगी कि उसके सूबे में किसान आत्महत्याएं करते रहें और वह इस समस्या पर गंभीरता से सोचने की बजाय उसे सिरे से ही खारिज कर दे। इस बात को अभी ज्यादा दिन नहीं गुजरे हैं, जब किसानों की आत्महत्या को कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया ने किसानों का पाप बतलाते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया था। जबकि हकीकत यह है कि किसानों की आत्महत्याओं के पीछे प्राकृतिक कारणों से ज्यादा वे कारण जिम्मेदार थे, जिन पर सरकार आसानी से काबू पा सकती थी। घटिया खाद-बीज, नकली कीटनाशक और कर्ज इन किसानों की मौत की बड़ी वजह था। इस बात की तस्दीक हाल में आई राज्य मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट ने भी कर दी है। रिपोर्ट में साफ-साफ तौर पर भ्रष्ट तंत्र, कर्ज और फसल की बर्बादी को किसानों की आत्महत्या का जिम्मेदार ठहराया गया है। राज्य में आज हालत यह है कि यदि जल्द ही किसानों के कर्ज माफ नहीं किए गए तो आत्महत्याओं का ग्राफ और भी बढ़ सकता है। कुल मिलाकर, यह पहली बार नहीं है जब बीजेपी ने सूबे के किसानों के साथ धोखा किया हो। पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के समय भी बीजेपी ने चुनाव में किसानों से पच्रे भरवाए थे और नारा दिया था, ‘भाजपा का कहना साफ, हर किसान का कर्जा माफ।’ लेकिन जब बीजेपी सरकार में आई, तो यह वादा भूल गई। दिखावे के लिए कुछ कज्रे माफ हुए और बाद में किसानों को ठेंगा दिखा दिया गया। सूबे में कमोबेश यही कहानी शिवराज सरकार, फिर दोहरा रही है। कर्ज माफी के अपने वादे पर अमल करने की बजाए उसके मंत्री हास्यास्पद दलीलें दे रहें हैं। मानो पार्टी और सरकार जुदा-जुदा हों। सरकार यह कहकर अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकती कि कर्ज माफी का वादा पार्टी ने किया था, सरकार ने नहीं। चुनाव घोषणा-पत्र पार्टी का लिखित संविधान होता है और सत्ता में आने के बाद उस पर अमल करना उसका कर्त्तव्य। जो पार्टी चुनाव घोषणा-पत्र के आधार पर सत्ता में आती है, उसका जिम्मा बनता है कि वह प्राथमिकता के आधार पर पहले अपने चुनाव घोषणा-पत्र पर अमल करे, न कि उसे खारिज कर दे। वरना, चुनाव घोषणा-पत्र पर कौन यकीन करेगा? |
Tuesday, April 3, 2012
किसानों के साथ वादाखिलाफी
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