Wednesday, March 14, 2012

कृषि शोध का पिछड़ापन


भारतीय कृषि शोध संस्थान (आइएआरआइ) के स्वर्ण जयंती समारोह को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रयोगशाला से भूमि तक की कमजोर कड़ी पर गहरी चिंता व्यक्त की। उन्होंने भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए 12वीं योजना के अंत तक कृषि शोध पर होने वाले खर्च को कृषि जीडीपी के मौजूदा एक फीसदी से बढ़ाकर दो फीसदी करने का आ ान किया। देखा जाए तो कृषि शोध का बहुआयामी प्रभाव पड़ता है। विभिन्न अध्ययनों से प्रमाणित हो चुका है कि कृषि शोध क्षेत्र में खर्च किया गया हर एक रुपया अलग-अलग खाद्यान्न के हिसाब से 1.39 से लेकर 3.66 रुपये तक का प्रतिफल देता है। बागवानी फसलों में तो यह प्रतिफल और भी अधिक होता है। 11वीं योजना में केंद्र द्वारा कृषि शोध पर सार्वजनिक व्यय को 0.7 फीसदी से बढ़ाकर 0.9 फीसदी कर दिया गया। राज्यों के आवंटन को जोड़ें तो यह यह खर्च कृषि जीडीपी के एक फीसदी तक पहुंच जाता है। भले ही यह अनुपात चीन व ब्राजील की भांति न हो, लेकिन इतना भी कम नहीं है कि देश के कृषि शोध संस्थान किसानों की जरूरतों को पूरा न कर सकें। उदाहरण के लिए 2011-12 के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का बजट 2800 करोड़ रुपये है। पिछले पांच वषरें में इसमें दो गुनी बढ़ोतरी हो चुकी है। इसके बावजूद देश के किसान बीजों, कृषि विधियों, मशीनरी आदि के लिए विदेशी कंपनियों के मोहताज बने हुए हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो देश के कृषि अनुसंधान केंद्र सफेद हाथी बन चुके हैं। यह ठीक है कि 2005-06 के बाद भारतीय कृषि अच्छा प्रदर्शन कर रही है, लेकिन इस उपलब्धि का श्रेय कृषि शोध संस्थानों के बीज व तकनीक को न होकर ऊंचे समर्थन मूल्य और लोगों की क्रय शक्ति में बढ़ोतरी को जाता है। पिछले एक दशक में आइसीएआर की एकमात्र उपलब्धि पूसा 1121 नामक बासमती धान की किस्म का विकास है, जिससे हर साल देश को 50 अरब रुपये की विदेशी मुद्रा हासिल हो रही है। इससे स्पष्ट है कि बीजों का विकास मुनाफे का सौदा है। अकेले हाइब्रिड बीज का बाजार 8,000 करोड़ रुपये सालाना तक पहुंच गया है। भले ही जीएम तकनीक के उपयोग को लेकर विवाद हो, लेकिन हाईब्रिड को पैदावार बढ़ाने का एक बेहतर उपाय माना गया है। यही कारण है कि देश में हाइब्रिड बीज का बाजार 15 से 20 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है। ये कम समय व पानी में अधिक उपज दे रहे हैं। लेकिन सार्वजनिक शोध तंत्र की निष्कि्रयता के चलते निजी क्षेत्र व बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने हाइब्रिड बीज बेचकर मोटा मुनाफा बटोर रही हैं। फिर सरकारी कृषि वैज्ञानिकों के खेत से जुड़ाव घटने के कारण प्रयोगशाला से निकली उपलब्धियों का एक-तिहाई ही किसानों तक पहुंच पाता है। दलहन, तिलहन क्षेत्र में भारत के लगातार पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण यही है। गौरतलब है कि इसी आइसीएआर और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों के प्रयासों से देश में हरित क्रांति हुई जिससे भारत न सिर्फ खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना बल्कि अनाज का निर्यात करने में भी सक्षम हुआ। लेकिन आज वही कृषि शोध संस्थान थक चुके हैं जिससे बहुराष्ट्रीय और निजी कंपनियों को घरेलू बीज बाजार पर आधिपत्य जमाने का मौका मिल गया। इसके विपरीत, ब्राजील और चीन के सरकारी शोध संस्थान मजबूती से खड़े हैं और घरेलू कंपनियों के साथ संयुक्त उद्यम स्थापित करके किसानों की जरूरतों के अनुरूप बीजों का उत्पादन कर रहे हैं। आइसीएआर को भी संसाधनों का रोना न रोकर देश की निजी बीज उत्पादक कंपनियों के साथ संयुक्त उद्यम स्थापित करने चाहिए। इससे वह ऊंची पैदावार वाली किस्मों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने में सक्षम होगा और भारतीय किसानों को बीज, तकनीक आदि के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मोहताज नहीं होना पड़ेगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)