Wednesday, June 29, 2011

चीनी मिलों का रवैया गन्ने की खेती को ले डूबा


पूर्वाचल में गन्ना की खेती पर संकट मंडराने लगा है। चीनी मिलों की मनमानी के दुष्परिणाम अब खुलकर सामने आने लगे हैं। गन्ना लेने के बाद मिलों ने भुगतान नहीं किया तो किसानों का मनोबल टूटा और अब स्थिति यह है कि केवल गोरखपुर परिक्षेत्र में लगभग एक लाख किसानों ने गन्ना बोना छोड़ दिया है। गन्ना के बल पर समृद्धि का सपना देखने वाले पूर्वाचल की उम्मीदें अब टूटती नजर आ रही हैं। गन्ना विभाग द्वारा गन्ना विकास के नाम पर लाखों रुपये खर्च करने के बावजूद किसानों का रुझान अब गन्ने की खेती की तरफ नहीं हो रहा है। यहां की चीनी मिलों पर पुराना गन्ना मूल्य तो लगभग पचास करोड़ से ज्यादा बकाया है। नए गन्ना मूल्य में अकेले सरदार नगर चीनी मिल ने दो करोड़ व गड़ौरा चीनी मिल ने सात करोड़ रुपये दबा लिए हैं। आरसी जारी होने के बावजूद इन मिलों की मंशा भुगतान करने की नहीं दिख रही है। गन्ने की खेती से किसानों के मोहभंग का यह मुख्य कारण है। पेराई सत्र 10-11 में गन्ना आपूर्ति पर नजर डालें तो गन्ने की खेती से किसानों के मोहभंग की बात साफ हो जायेगी। गोरखपुर परिक्षेत्र में कुल 317287 गन्ना किसान हैं जिनमें से केवल 212949 किसानों ने ही चीनी मिलों को गन्ना आपूर्ति की। विभागीय सूत्रों के अनुसार सिसवा चीनी मिल परिक्षेत्र में कुल 40151 किसान गन्ना बोते थे, अब इनकी संख्या 19716 रह गयी है। इसी प्रकार गड़ौरा चीनी मिल परिक्षेत्र में 36360 की जगह 10928, बस्ती चीनी मिल परिक्षेत्र में 46463 की जगह 29462, वाल्टरगंज चीनी मिल परिक्षेत्र में 28180 की जगह 22765, रुधौली चीनी मिल परिक्षेत्र में 22996 की जगह 22457, बभनान चीनी मिल परिक्षेत्र में 65651 की जगह 61473, खलीलाबाद चीनी मिल परिक्षेत्र में 40512 की जगह 21493 व सरदार नगर चीनी मिल परिक्षेत्र में 30974 की जगह 24655 किसानों ने ही गन्ना बोया। सरदार नगर चीनी मिल परिक्षेत्र के गन्ना किसानों ने बताया कि सरदार नगर चीनी मिल किसानों का गन्ना मूल्य रोककर उससे ब्याज कमा रही है। किसान पाई-पाई के लिए मोहताज हैं और मिल उनका भुगतान करने का नाम नहीं ले रही है, इससे किसानों का मनोबल टूटा है, गन्ने का रकबा कम हुआ है.

पाकिस्तान का एक और धोखा


लेखक पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के चुनावों की विश्वसनीयता परसवाल खड़े कर रहे हैं...
एक ऐसे समय जब सारा ध्यान भारत और पाकिस्तान के बीच विदेश सचिवों की वार्ता पर लगा हुआ है तब आज यानी 26 जून को हो रही एक महत्वपूर्ण घटना लोगों की निगाहों से कुल मिलाकर अछूती ही लग रही है। यह घटना है पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में चुनाव। पाक अधिकृत कश्मीर में नई सरकार के निर्वाचन के लिए हो रहे चुनाव ने एक बार फिर यह सवाल हमारे सामने ला दिया है कि पाकिस्तान सरकार और वहां की सेना इस क्षेत्र के लोगों और उनके मानवाधिकारों के साथ कैसा सलूक करती है? निर्वाचन प्रक्रिया में राजनीतिक और सैन्य तंत्र के हस्तक्षेप और बाहुबल के आधार पर पूर्व निर्धारित परिणाम प्राप्त करने की कोशिश की बातें न केवल अंतरराष्ट्रीय समुदाय में हो रही हैं, बल्कि अब पाकिस्तान के भीतर भी ऐसे सवाल उठने लगे हैं। पाकिस्तान की एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन पहले ही पीपीपी नीत सरकार पर यह आरोप लगा चुकी है कि वह चुनाव में धांधली कर रही है। मतदाता सूची में गड़बडि़यों फर्जी पहचान पत्र वितरित करने के तथ्यों ने चुनावी प्रक्रिया पर गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है। जहां तक भारत का प्रश्न है तो विदेश मंत्रालय के हवाले से कहा गया है कि इस्लामाबाद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के प्रति गंभीर नहीं है। विदेश मंत्रालय ने कहा है कि जिस तरह उन राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को प्रतिबंधित कर दिया है जिन्होंने जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के विचार का समर्थन नहीं किया है उससे पता चलता है कि पाकिस्तान अपनी इस कथित नीति के प्रति कितना अगंभीर है कि जम्मू-कश्मीर के भविष्य का निर्धारण वहां के लोगों द्वारा किया जाना चाहिए। इससे पता चलता है कि नए चुनाव भी पहले के चुनावों का री-प्ले होंगे जब लोगों को अपनी पसंद के राजनीतिक दल और उम्मीदवार को मत देने का अवसर नहीं दिया गया। पाकिस्तान सरकार की धांधली का प्रमाण है पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग के एक दल द्वारा तैयार की गई यह रपट जिसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के चुनाव आयुक्त और वरिष्ठ न्यायाधीशों के खिलाफ अनेक शिकायतों का ब्यौरा दिया गया है। इन शिकायतों में ब ताया गया है कि चुनाव आयुक्तों और न्यायाधीशों ने किस तरह चुनावों के दौरान और उसके बाद किस तरह अनियमितताओं पर पर्दा डालने में मदद दी। संघीय सरकार अनेक विवादास्पद कानूनों का सहारा लेकर विरोधी दलों के उम्मीदवारों को दंडित भी करती है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के अंतरिम संविधान में एक प्रावधान है जिसके तहत ऐसे किसी भी उम्मीदवार को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है जो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की विचारधारा के खिलाफ प्रचार अथवा कार्य करे। जबरन प्रतिबंधित कर दिए गए उम्मीदवारों द्वारा दायर की जाने वाली याचिकाएं चुनाव आयोग और न्यायालयों में सतही आधारों पर खारिज कर दी जाती हैं। गैर-पीपीपी दलों के उम्मीदवार इस कदर चिंतित हैं कि उनमें से एक ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर असेंबली की 12 गैर-क्षेत्रीय सीटों के निर्वाचन के लिए मतदाता सूची तैयार करने के चुनाव आयोग के अधिकार को चुनौती दी है। इन सीटों के लिए पाकिस्तान के किसी भी भाग का उम्मीदवार चुनाव लड़ सकता है। मतदाता सूची तैयार करने का काम 2006 में हुए पिछले चुनाव में भी विवादास्पद तरीके से किया गया था। उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त (सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश) नई सूची तैयार करने के इच्छुक थे, जबकि पार्टियां चाहती थीं कि पुरानी सूची को ही अपडेट किया जाए। जब न्यायाधीश की सिफारिश राजनीतिक पार्टियों द्वारा खारिज कर दी गई तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद मुख्य न्यायाधीश ने चुनाव आयुक्त के रूप में उनका स्थान लिया। मुख्य न्यायाधीश सेना द्वारा नियुक्त किए गए थे और राजनीतिक दलों ने अंदेशा जताया कि चुनाव में गड़बडि़यां की जा सकती हैं। मौजूदा चुनाव प्रक्रिया में भी इसी प्रकार के आरोप सामने आए। फर्जी पहचान पत्र तैयार करने के अतिरिक्त मनमाने तरीके से मतदाता सूची बनाई गईं। इसके अलावा संघीय सरकार ने लोगों को चुनाव के ऐन पहले गैस और बिजली के कनेक्शन देकर एक प्रकार की रिश्वत भी दी। सरकार का हस्तक्षेप इससे भी प्रमाणित होता है कि चुनाव के दो रिटर्निग अफसर त्यागपत्र देने के लिए विवश हुए। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के प्रधानमंत्री सरदार अतीक अहमद खान ने हाल में स्वीकार किया है कि वोटर लिस्ट तैयार करने में गलतियां हुईं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के नेताओं और लोगों की इससे भी बड़ी आशंका यह है कि चुनावों में गड़बड़ी में आइएसआइ और सेना की भूमिका हो सकती है। आइएसआइ की पीओके में भूमिका किसी से छिपी नहीं है और चुनाव आयुक्त, न्यायाधीशों तथा अन्य सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति में इसे महसूस भी किया जा सकता है। इस्लामाबाद कैसा भी दावा क्यों न करे, लेकिन पीओके में चुनावों के नाटक ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि कश्मीर के संदर्भ में वह कैसा दोहरा रवैया अपनाए हुए है। (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

देश में है 100 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में वेटलैंड


भारत में पहली बार देश के सभी नम इलाकों (वेट लैंड) की सूची तैयार कर ली गई है। इसरो ने यह सूची उपग्रह से मिले चित्रों के आधार पर तैयार की है। नम भूमि में जलस्तर सतह पर या सतह के करीब होता है और यह इलाका कृषि के लिए सबसे योग्य भूमि मानी जाती है। इन इलाकों के चिन्हित होने से अब सरकार इनकी देखभाल अपने हाथ में ले सकेगी और इसको संरक्षित कर सकेगी। इस सर्वे के बाद देश की अमूल्य संपदा का सही लेखा-जोखा मिला है। भारत के पास कुल 100 लाख हेक्टेयर वेटलैंड है। यह सबसे समृद्ध हरित संपदा देश को विकास के नए पायदान तक ले जा सकती है। इसरो की शहरीकृत संस्था स्पेस एप्लीकेशन सेंटर (एसएसी) ने यह सूची तैयार की है और एटलस पर दिखने वाले देश के ऐसी सभी नम क्षेत्रों का लेखा-जोखा पहली बार तैयार कर लिया गया है। नम क्षेत्र सबसे हरियाली वाले और सबसे उपजाऊ क्षेत्र होते हैं। इन इलाकों के चलते जलीय-चक्र संतुलित रहता है और यह क्षेत्र तूफान और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं को आने से रोकते हैं। इस उपजाऊ जमीन में ना सिर्फ भरपूर शुद्ध पानी होता है बल्कि इस भूमि से बेहतरीन भोजन और अन्य प्राकृतिक उत्पाद भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। एसएसी के निदेशक डॉ. रंगनाथ आर नवलगंुड के अनुसार इन नम इलाकों को 19 श्रेणियों में रखा गया है। इन नक्शे में पानी के फैलाव से लेकर जल आधारित हरित क्षेत्र और दलदली भूमि शामिल है। एसएसी के अध्ययन के अनुसार नदियों को छोड़कर नम इलाकों का फैलाव 100 लाख हेक्टेयर है जो कि देश के भौगोलिक इलाके का तीन फीसदी से कुछ अधिक हिस्सा है। इन सौ लाख हेक्टेयर नम क्षेत्र में से करीब 25 लाख इलाके ही संरक्षित हैं। इसके अलावा 24 लाख हेक्टेयर विशुद्ध दलदल है। झील और तालाब 70 लाख हेक्टेयर में हैं। जमीन की सतह पर छिपा जल 13 लाख हेक्टेयर में है। हरियाली व वन क्षेत्र 47 लाख हेक्टेयर में है जबकि मूंगे की चट्टानें 14 लाख हेक्टेयर में हैं। राज्य वार कुल नम क्षेत्र 96.12 फीसदा का 18.52 प्रतिशत अंडमान व निकोबार द्वीप में है। दमन दीव में 18.46 और गुजरात में 17.56 फीसदी है, जोकि सबसे अधिक है। वहीं सबसे कम नम इलाके मिजोरम, हरियाणा, दिल्ली, सिक्कम, नगालैंड और मेघालय में हैं जिनका कुल योग भी 1.5 फीसदी से कम है। खास बात यह भी है कि भारत के पास सबसे लंबा समुद्र तट होने के नाते समुद्र के अंदर भी कुछ नम क्षेत्र आता है। इन तटीय इलाको में नम क्षेत्र की अन्य खूबियों के अलावा खनिज भी भरपूर हैं। इस समृद्ध संपदा से देश के विकास के नए प्रतिमान खड़े किए जा सकेंगे।


Wednesday, June 15, 2011

कूड़े से तैयार होगा खेतों के लिए सोना


कूड़ा अब कूड़ा नहीं खरा सोना बन जाएगा। सड़कों पर गंदगी व बदबू फैलाने वाले कूड़े में मौजूद जैविक (सड़ने वाले) कचरे का इस्तेमाल गुणवत्तायुक्त जैव उर्वरक बनाने के लिए किया जाएगा। यह जैव उर्वरक किसान के खेतों में सोना बरसाएगा। राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआइ) ने शनिवार को अमेरिकी संस्था प्रोटेरा इंटरनेशनल की शाखा प्रोटेरा इंडिया के साथ अनुबंध पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। एनबीआरआइ के निदेशक डॉ. सीएस नौटियाल ने बताया कि जैव उर्वरक के रूप में ऐसा उत्पाद बनाने की कोशिश की जाएगी जो व्यवसायिक रूप से उत्तम होने के साथ खेतों की पैदावार बढ़ाने के साथ कृषि भूमि की उर्वरकता भी बढ़ा सके। डॉ. नौटियाल ने बताया कि इस जैव उर्वरक को बनाने के लिए चूंकि कार्बनिक पदार्थो का प्रयोग किया जाएगा इसलिए यह पर्यावरण के लिए भी लाभकारी साबित होगा। प्रोटेरा इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मार्क होजज ने बताया कि जैव उर्वरक के क्षेत्र में भारत में बहुत काम हुआ है। इंडो यूएस फाउंडेशन फॉर रिसर्च के मुख्य कार्यकारी अधिकारी प्रो. अरुण गोयल ने बताया कि हरदोई रोड पर वर्ष 2003 में सौ करोड़ की लागत से स्थापित किए गए एशिया बायो एनर्जी संयत्र को पुन: चलाने की जुगत की जा रही है। कूड़े केलिए एक निजी संस्था से बात हो चुकी है। प्रो. गोयल ने बताया कि कूड़े से बिजली बनाने के अलावा प्लास्टिक से आरडीएफ (रिफ्यूज्ड डेराइव्ड फ्यूल) तैयार होगा, जिसे गुणवत्ता युक्त बायोफर्टिलाइजर में तब्दील किया जाएगा। इस कार्य के लिए एनबीआरआइ का सहयोग लिया जाएगा। उन्होंने बताया कि जैव उर्वरक बनाने के लिए कृषि कचरे के साथ दौलतगंज व भरवारा में निकल रहे कचरे का उपयोग भी खाद बनाने के लिए किया जाएगा। इसमें लगभग सौ करोड़ रुपये का खर्च आएगा, जिसे अमेरिकी कंपनी प्रोटेरा वहन करेगी। कृषि निदेशक डॉ. मुकेश गौतम ने बताया कि तैयार जैव उर्वरक का प्रयोग किसान उत्पादकता बढ़ाने के लिए करेंगे। हालांकि इस प्रोजेक्ट को राज्य सरकार की हरी झंडी मिलना बाकी है। प्रो. गोयल ने बताया कि अनुमति मिलने के एक साल के बाद यह कार्य शुरू कर दिया जाएगा.

Wednesday, June 1, 2011

खेती की खतरनाक खरीद


लेखक औद्योगिक विकास के नाम पर कृषि योग्य भूमि के अंधाधुंध अधिग्रहण के
गंभीर खतरे गिना रहे हैं

1996 में विश्व बैंक के तत्कालीन उपाध्यक्ष और अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान सलाहकार समूह के अध्यक्ष डॉ. इस्माइल सेरेगेल्डिन ने एक बयान जारी किया। उन्होंने कहा कि विश्व बैंक का आकलन है कि अगले बीस वर्षो में भारत में ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्रों में विस्थापन करने वालों की संख्या फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी की कुल आबादी के दोगुने से भी अधिक हो जाएगी। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की कुल आबादी करीब 20 करोड़ है। इस प्रकार विश्व बैंक का मानना था कि 2015 तक भारत में 40 करोड़ लोग गांवों से शहरों में चले जाएंगे। मैंने समझा कि यह एक चेतावनी है, किंतु जब मैंने इसके बाद की विश्व बैंक की अन्य रपटों का अध्ययन किया तो मुझे उसके असल इरादों का भान हुआ। दरअसल, विश्व बैंक इस प्रक्रिया को रोकना नहीं, तेज करना चाहता था। 2008 में जारी विश्व विकास रिपोर्ट में विश्व बैंक ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया कि भारत में भूमि की किरायेदारी शुरू होनी चाहिए। इसके अनुसार, भूमि बहुत ही महत्वपूर्ण संसाधन है, किंतु यह ऐसे लोगों (किसानों) के हाथों में केंद्रित है, जो इसका कुशलतापूर्वक उपयोग नहीं करते। विश्व बैंक का कहना है कि इन लोगों को इन संसाधनों से बेदखल कर देना चाहिए और भूमि उन लोगों को सौंप देनी चाहिए जो इसका कुशलता से उपयोग कर सकें और वास्तव में ये लोग कॉरपोरेट क्षेत्र के ही हो सकते हैं। किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करने की यह प्रक्रिया लंबे समय से चल रही है और अब अपने चरम पर पहुंच गई है। जिस तेज रफ्तार से सरकार भूमि अधिग्रहण के माध्यम से किसानों को जमीन से बेदखल कर रही है इससे विश्व के सामने खाद्य सुरक्षा का संकट गहराता जा रहा है। दुर्भाग्य से हमें यह समझाने की कोशिश की जाती है कि खाद्य उत्पादन के मोर्चे पर घबराने वाली कोई बात नहीं है, क्योंकि कॉरपोरेट जगत खाद्यान्न का कुशलतापूर्वक उत्पादन कर सकता है। मुख्यत: इसी मंशा से 1995 में विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने के बाद से विकासशील देशों में धनी देशों की ओर से अनुदानित और सस्ती दरों पर खाद्यान्न के आयात की बाढ़ आ गई है। इसी प्रकार मुक्त व्यापार समझौतों के नाम पर द्विपक्षीय समझौते और क्षेत्रीय व्यापार संधियों के माध्यम से विकासशील देशों में औद्योगिकीय उत्पादित खाद्यान्न और खाद्य उत्पादों के लिए बाजार विकसित किया जा रहा है। इस प्रकार भूमि और जीविकोपार्जन केंद्रीय मुद्दों में तब्दील हो चुके हैं। ग्रामीण भारत से 40 करोड़ लोगों के संभावित विस्थापन से भारत अब तक विश्व में हुए सबसे बड़े पर्यावरणीय विस्थापन का साक्षी बन जाएगा। यह अवधारणा केवल भारत तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि एक बड़ा क्षेत्र इसकी चपेट में आ जाएगा। मेरा अनुमान है कि आने वाले वर्षो में भारत और चीन के 80 करोड़ लोग गांवों से शहरों की ओर कूच कर जाएंगे। जिन करोड़ों लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर किया जा रहा है उन्हें कृषि शरणार्थी कहा जा सकता है। क्या हम समझ सकते हैं कि विश्व किस दिशा में जा रहा है? क्या हम अनुमान लगा सकते हैं कि इस भयानक रफ्तार से विस्थापन के कारण कितने गंभीर सामाजिक-आर्थिक और साथ ही राजनीतिक संकट खड़े हो सकते हैं? इसके बजाय हमें बताया जा रहा है कि बढ़ता शहरीकरण वैश्वीकरण और आर्थिक संवृद्धि का अपरिहार्य परिणाम है। हमें बार-बार बताया जा रहा है कि वैश्वीकरण ने राष्ट्रीय सीमाओं का अंत कर दिया है। यह सुनने में अच्छा लग सकता है, किंतु मुझे लगता है कि आने वाले कुछ बरसों में राष्ट्रों की सीमाएं धुंधली होने के बजाए और गहरी व लंबी हो जाएंगी। विकासशील देशों में जिस रफ्तार से और जिस हद तक भूमि हड़पने का सिलसिला चल रहा है वह चिंता का विषय है। उदाहरण के लिए एक भारतीय कंपनी ने अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में तीन हजार वर्ग किलोमीटर भूमि हासिल कर ली है। यह क्षेत्र बहुत से छोटे देशों के क्षेत्रफल से भी अधिक है। एक दिन इस भूमि के मालिक झंडा फहराकर यह घोषणा कर सकते हैं कि यह एक स्वतंत्र राष्ट्र है। आप इस संभावना को खारिज कर सकते हैं, किंतु हमें अधिक सावधानी से काम लेना होगा। देर-सबेर समाज कृषि, खाद्य सुरक्षा और भूमि संसाधन की सच्चाई से रूबरू होगा। जितना जल्द यह होगा, उतना ही बेहतर होगा। समस्या यह है कि हम इस तरह के गंभीर मुद्दों पर किसी खास नजरिये और परिप्रेक्ष्य में ही विचार करते हैं, जबकि जमीनी सच्चाई यह है कि ये मुद्दे बहुआयामी और बहुकोणीय होते हैं। जब तक हम ऐसा करने में सफल नहीं होंगे तब तक हम सही संदर्भ में विशिष्ट विचार प्रस्तुत करने में सफल नहीं होंगे। मैं जिन मंचों पर जाता हूं उनमें यह व्यापक सोच नदारद नजर आती है। शायद यही कारण है कि हम अंतरदृष्टि और सार्थकता के साथ असल मुद्दों से भटक जाते हैं। कृषि-व्यापार से यह प्रतीत होता है कि भारत और चीन जैसे देशों को अन्य देशों में अधिक खाद्य उत्पादन करना चाहिए। घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत और चीन द्वारा विदेशों में भूमि की खरीदारी को न्यायोचित ठहराया जा रहा है। अधिक खाद्यान्न उत्पादन की जरूरत के मद्देनजर भारी-भरकम कृषि भूमि की खरीदारी की वकालत की जा रही है। आज लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में शायद ही कोई देश हो जिसकी भूमि न हड़पी जा रही हो। भुखमरी और कुपोषण के शिकार इथियोपिया में आठ हजार से अधिक कंपनियां जमीन हथियाने के प्रयास में हैं। यह देश पहले ही 2000 कंपनियों को 27 लाख हेक्टेयर भूमि आवंटित कर चुका है, जिसमें भारत की कंपनियां भी शामिल हैं। ये कंपनियां इथियोपिया के लिए खाद्यान्न का उत्पादन नहीं करेंगी, बल्कि इसका निर्यात करेंगी। यहां से उत्पादित खाद्यान्न की पहली खेप सऊदी अरब भेजी भी जा चुकी है, जबकि इस देश की जनता दाने-दाने की मोहताज है। यह मुझे इतिहास के काले अध्याय की याद दिलाता है। कुछ दशक पहले आयरलैंड के अकाल की 150वीं वर्षगांठ के आयोजन में मैंने भाग लिया। यह अकाल 19वीं सदी के मध्य में पड़ा था। सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए शहर के मेयर ने कहा था कि मैं हैरान हूं कि उस समय कितने बर्बर लोग थे। लोग भूख से मर रहे थे और फिर भी खाद्यान्न के बोरे के बोरे इंग्लैंड भेजे जा रहे थे। मुझे नहीं लगता कि समाज की इस बर्बर प्रकृति में कोई अंतर आया है। आने वाले समय में हम और भी बर्बर समाज में रहेंगे। इथियोपिया में जिस तरह भूमि हड़पी जा रही है, यह बर्बरता से कम नहीं है। देश में लोग भूख से मर रहे हैं और कंपनियों के पास खाद्यान्न के निर्यात की कानूनी अनुमति है। भविष्य में ऐसे और भी उदाहरण देखने को मिलेंगे। (लेखक कृषि एवं खाद्य नीतियों के विश्लेषक हैं)


कृषि क्षेत्र में लुक ईस्ट नीति से उम्मीद


इसी महीने के पहले हफ्ते जब मेघालय में उमियम स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्वोत्तर पर्वतीय क्षेत्र अनुसंधान परिसर मेंकिरनके नाम से नई पहल आरंभ हुई तो राष्ट्रीय मीडिया का इस तरफ ध्यान नहीं गया। यह मौका क्षेत्रीय समिति की 20वीं बैठक का था जहां पूर्वोत्तर के सभी राज्यों के कृषि वैज्ञानिक और देश के कुछ अन्य विशेषज्ञ उपस्थित थे। यह मौका इसलिए खास महत्व का था कि इस माध्यम से कृषि क्षेत्र में पूरब की तरफ देखने की नीति को अमली जामा पहनाने के प्रयास को अच्छी पहल के रूप में स्थापित किया जा सकता था। देश में बढ़ती जनसंख्या और कृषि भूमि पर निरन्तर दबाव के चलते खाद्य सुरक्षा की चुनौती गंभीर है। देश की आबादी में हर साल डेढ़ करोड़ का इजाफा हो रहा है और खेती में इस्तेमाल जमीन के दूसरे उपयोगों के लिए मांग निरन्तर बढ़ रही है। लिहाजा उत्पादन वृद्धि के बावजूद कीमतों में भी वृद्धि का रुख है। अनुमान है कि 2020 तक खाद्यान्न उत्पादन को 23.58 करोड़ टन के मौजूदा स्तर से बढ़ा कर 28.5 करोड़ टन तक ले जाना होगा। प्रयासों के बावजूद अब तक उत्पादन में वांछित वृद्धि नहीं हो पाई। कृषि विकास दर अनेक सालों में दो प्रतिशत के आसपास सिमट कर रह गई। अपवादस्वरूप इस साल फसल अच्छी हुई और विकास दर चार प्रतिशत के अपेक्षित लक्ष्य से ऊपर 5.4 प्रतिशत रही। बुनियादी बात यह है कि देश के अनेक इलाके पिछली हरित क्रांति के लाभ से वंचित रह गए। इनमें पूर्वी भारत पूर्वोत्तर के क्षेत्र शामिल हैं। कृषि मामले में अब तक उपेक्षित पूर्वोत्तर के लिएकिरनके माध्यम से सार्थक टेक्नोलॉजी और जरूरी संसाधन सुलभ करवाने की उम्मीद की जा सकती है। खाद्य सुरक्षा संबंधी चुनौतियों के संदर्भ में हरित क्रांति से वंचित इलाकों की उत्पादक क्षमता का दोहन अनिवार्यता माना जाने लगा है परन्तु देश के अन्य पूर्वी क्षेत्रों की तुलना में विशिष्ट भौगोलिक जलवायु परिस्थितियों वाले पूर्वोत्तर के लिए वही पैकेज लागू करना संभव नहीं है जो बिहार, बंगाल, उड़ीसा या उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्सों में लागू किया जा सकता है। प्राय: मांसाहार और जूम खेती के लिए चर्चित पूर्वोत्तर में खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भरता नहीं है। ऐसे में समूचे पूर्वोत्तर के लिए अलग से कृषि संबंधी ज्ञान, जानकारी और क्षेत्र विशेष के लिए सार्थक सुसंगत टेक्नोलॉजी तैयार करना अत्यावश्यक हो गया है। क्षेत्र के कृषि सम्बद्ध संगठनों, किसानों और प्रसार से जुड़े लोगों के लिए साझे मंच का गठन समय की मांग है।किरनइन जरूरतों को पूरा करने के साथ इस तरह से ज्ञान-प्रबंधन सुनिश्चित करेगी कि उत्पादन की परिस्थितियों में आने वाले तमाम बदलावों को इस प्रयास में समाहित करने के साथ ही उत्पादक गतिविधियों के लिए उत्प्रेरक की भूमिका का ठीक-ठीक निर्वहन हो सके। उम्मीद की जा सकती है कि इस पहल पर आगे मजबूती से बढ़ने पर क्षेत्र के किसानों और उनके हित साधकों को विश्वसनीय आंकड़े, उपयोगी सूचनाएं, खेती की सटीक एवं सार्थक टेक्नालॉजी एक स्थान पर सुलभ हो सकेगी। इसी साल फरवरी में जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए लचीली कृषि पर राष्ट्रीय पहल आरंभ करने के तीन महीने बाद ही भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नेकिरनके रूप में जो पहल की है, वह पूर्वोत्तर की आकांक्ष और खाद्य सुरक्षा की जरूरत पूरा करने की क्षमता रखती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डॉ. एस. अय्यप्पन ने रेखांकित किया किकिरनको क्षेत्र में उद्यमशीलता को उत्प्रेरित करने के अलावा सहारा भी देना होगा। उन्होंने पूर्वोत्तर के युवा कृषि वैज्ञानिकों से नौकरी के बजाय उद्यमशीलता का वरण करने की जो सलाह दी। इस पर अमल हुआ तो क्षेत्र में कृषि में आत्म निर्भरता खाद्य सुरक्षा के युग का आरंभ होगा। इस पहल में क्षेत्रीय जैव विविधता के संरक्षण, संवर्धन संस्कार के बीज भी छिपे हैं। यह प्रयास सफल रहा तो पूरे भारत के लिए नए सोपान तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त होगा। पूर्वोत्तर के लिएकिरनके रूप में नए प्रयास के नतीजों पर ध्यान केन्द्रित करने के अलावा खाद्यान्न सुरक्षा को अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। अनाज उत्पादन के साथ ही बागवानी उत्पादों और पशुधन के विकास पर भी समुचित ध्यान देना होगा। क्षेत्र में सब्जी और फलोत्पादन की अनुकूल परिस्थितियां हैं। जरूरत किसानों तक पहुंचने और उन्हें सही दिशा देने की है। भंडारण की समस्या देखते हुए प्राथमिक उत्पाद के प्रसंस्करण की जरूरत है। बागवानी उत्पादों का और क्षेत्र के जाने माने उत्पादों अदरक, हल्दी और फलों आदि के प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन के उपायों से किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है। चुनिंदा उत्पादों और वनस्पति से बहुमूल्य यौगिकों जैसे एंटी वायोटिक पदाथोर्ं आदि को अलग निकालने की व्यवस्था की जा सकती है। इस प्रकार के विकास के कुछ मॉडल विकसित किये जा रहे हैं। यह जरूरी है कि कृषि उत्पादों के मूल्य संवर्धन के साथ उनकी गुणवत्ता भी सुनिश्चित की जाए। इसके लिए सभी मानकों का निर्धारण और अनुपालन सुनिश्चित करना होगा। पूर्वोत्तर राज्यों में सुअर पालन उल्लेखनीय सहायक कृषि गतिविधि है। देश में सुअरों की कुल संख्या का 28 प्रतिशत पूर्वोत्तर राज्यों में है। सुअर के मांस इससे तैयार अन्य उत्पादों की बढ़ती मांग के चलते अधिक वैज्ञानिक ढंग से सुअर पालन को बढ़ावा दिया जा रहा है। गुवाहाटी स्थित राष्ट्रीय शूकर अनुसंधान केन्द्र ने नस्ल सुधार की दिशा में अच्छी पहल की है। नई नस्लों से उत्पादकता में वृद्धि संभव होगी। क्षेत्र के कृषि विकास के प्रयास की श्रृंखला में उमियम में हुए विचार-विमर्श को भी देखा जाना चाहिए। वहां सम्पन्न र्चचा के आलोक में 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए ठोस रणनीति निर्धारित की जा सकेगी। दूसरी हरित क्रांति के लक्ष्य देखते हुए ही लुक ईस्ट नीति पर जोर दिया जा रहा है। सघन और मिश्रित खेती के तरीकों पर काम चल रहा है। फसल के रोग और कटाई के बाद बर्बादी रोकने पर भी ध्यान देना होगा। कृषि-वानिकी इस क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण है। यहां की विशेष जरूरतें देखते हुएकिरनके माध्यम से पूर्वोत्तर के किसानों को चौबीसों घंटे आवश्यक तकनीकी जानकारी और सलाह मिल सकेगी। वहां की भौगोलिक और जलवायु संबंधी परिस्थितियां देखते हुए उच्च-मूल्य उत्पादों और बागवानी के साथ अधिक उपज देने वाली धान की किस्मों को बढ़ावा मिले। वहां जैविक खेती की अनुकूल परिस्थितियां हैं परन्तु भूमि की उर्वरा शक्ति ठीक रखने के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों की तरफ ध्यान देने की जरूरत है। वैसे राष्ट्रीय स्तर पर 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के औसत की तुलना में पूर्वोत्तर में उर्वरकों का इस्तेमाल मात्र 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के स्तर पर रहा है। यहां जैविक खेती सुदृढ़ कर भूमि की उर्वरता वर्तमान स्तर से आगे ले जाने की जरूरत है। पूर्वोत्तर की समस्याएं जटिल जरूर हैं परन्तु समन्वित प्रयासों से वांछित परिणाम निकल सकते हैं।