Tuesday, October 16, 2012

बाजार तय करेगा गन्ना किसानों की किस्मत




ठ्ठ सुरेंद्र प्रसाद सिंह, नई दिल्ली गन्ना किसानों की किस्मत अब बाजार तय करेगा। चीनी मूल्यों के आधार पर ही गन्ने का मूल्य निर्धारित किया जाएगा। गन्ने का पूरा भुगतान पाने के लिए किसानों को छह महीने का लंबा इंतजार करना पड़ेगा। चीनी उद्योग को नियंत्रण मुक्त करने के लिए गठित रंगराजन समिति की सिफारिशों से किसान संगठन नाखुश नहीं हैं। समिति ने गन्ना मूल्य निर्धारण की मौजूदा प्रणाली में बड़ी तब्दीली करते हुए राज्य सरकारों के राज्य समर्थित मूल्य (एसएपी) को समाप्त करने की सिफारिश की है। इसकी जगह समिति ने नया फार्मूला तैयार किया है। इसके तहत गन्ना मूल्य का भुगतान दो किस्तों में किया जाएगा। केंद्र सरकार के घोषित उचित व लाभकारी मूल्य (एफआरपी) के आधार पर पहली किस्त का भुगतान गन्ना आपूर्ति के 15 दिनों के भीतर करना होगा। वहीं दूसरी किस्त अथवा पूरे भुगतान के लिए छह महीने का उस समय तक इंतजार करना होगा, जब चीनी मिलें अपना हिसाब-किताब पेश करेंगी। कृषि मूल्य एवं लागत आयोग (सीएसीपी) के चेयरमैन अशोक गुलाटी इस नए फार्मूला को गन्ना किसानों के लिए काफी मुफीद बता रहे हैं। उन्होंने इसके समर्थन में आठ साल के आंकड़ों का हवाला भी दिया है। उनके हिसाब से नए फार्मूले में चीनी उत्पादन का 70 फीसद मूल्य किसानों को मिलेगा। इसकी पहली किस्त उचित व लाभकारी मूल्य (एफआरपी) के आधार पर किसानों को दी जाएगी। दूसरी किस्त का बकाया भुगतान मिलों की चीनी बिक्री मूल्य के आधार पर किया जाएगा। इसकी गणना छह महीने बाद की जाएगी। समिति का तर्क है कि इस फार्मूले के लागू होने से गन्ना एरियर बढ़ने की नौबत नहीं आएगी। इसके विपरीत किसान संगठनों ने समिति के समक्ष गन्ना मूल्य निर्धारण के लिए खेती की लागत के साथ 50 फीसद लाभ जोड़ने की मांग की थी। किसान जागृति मंच के संयोजक सुधीर पंवार ने कहा कि किसानों को बाजार के भरोसे छोड़ना उचित नहीं है। समिति की सिफारिशें व्यावहारिक नहीं हैं।
Dainik Jagran National Edition 15-10-2012 d`f”k) Pej-10

Friday, October 5, 2012

अपनी जमीन का सवाल




 भरत डोगरा 3 अक्टूबर को ग्वालियर से एक विशाल जन-समूह की पदयात्रा आरंभ हुई। 60 हजार से अधिक पदयात्रियों के इस कारवां में आगे चलकर एक लाख लोगों तक के जुड़ने की उम्मीद है। 26 दिनों में लगभग 350 किलोमीटर की दूरी तय कर यह विशाल जनसमूह दिल्ली पहुंचेगा। यह पदयात्रा भूमि-सुधारों के जन-सत्याग्रह के तहत की जा रही है। इस आंदोलन की मांग है कि भूमि सुधार के भुला दिए गए एजेंडे को सरकार की कृषि और ग्रामीण विकास नीतियों के केंद्र में लाया जाए, भूमिहीनों को भूमि दी जाए और किसानों को भूमिहीन बनने से रोका जाए। विशेष तौर पर आदिवासियों की भूमि हकदारी का मुद्दा इसमें अधिक मजबूती से उठाया गया है। इसकी एक वजह यह भी है कि जन-सत्याग्रह में एकता परिषद की सबसे प्रमुख भूमिका है और इस जन-संगठन का आदिवासी क्षेत्रों में अधिक व्यापक आधार है। इससे पहले कई पदयात्राओं के दौरान मध्य प्रदेश, बिहार, ओडिशा आदि राज्यों में एकता परिषद की निर्धन वर्ग और आदिवासियों की भूमि हकदारी संबंधी मांगों को राज्य सरकारों ने स्वीकार किया था। इससे कई परिवारों को राहत भी मिली थी, लेकिन साथ ही नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के इस दौर में किसानों और आदिवासियों की भूमि छिनने की प्रक्रिया लगातार और तेज होती गई। सेज (विशेष आर्थिक जोन) जैसे नए कानून बनने से इस प्रक्रिया को बढ़ावा मिला। इस स्थिति में भूमि सुधारों को अधिक व्यापक स्तर पर मजबूत बनाने के लिए एकता-परिषद ने 2007 में जनादेश नाम का एक आंदोलन चलाया, जिसके अंतर्गत 25,000 निर्धन वर्ग के प्रतिनिधियों ने ग्वालियर से दिल्ली तक की पदयात्रा की। थके हुए यात्री दिल्ली के रामलीला मैदान में पहंुचे तो सरकार से वार्ता में तेजी आई। सरकार ने उस समय कई वादे तो कर दिए, पर उन्हें पूरा नहीं किया। यहां तक कि भूमि सुधार परिषद की कोई मीटिंग भी ठीक से नहीं की गई। केंद्र सरकार की इस लापरवाही से परेशान होकर एकता परिषद ने और भी व्यापक स्तर के आंदोलन जन-सत्याग्रह की तैयारी शुरू कर दी। पहले देश के लगभग 350 जिलों में जन-संवाद यात्राएं की गई। व्यापक स्तर पर जनसंपर्क किया गया और अहिंसक बदलाव में विश्वास रखने वाले लगभग 2000 जन-संगठनों का सहयोग हासिल किया गया। उसके बाद ही दूसरी ग्वालियर दिल्ली पदयात्रा शुरू हुई है। यह निर्विवाद सत्य है कि नव-उदारवाद की आर्थिक नीतियों के दो दशकों में भूमि-सुधारों की उपेक्षा हुई है, इन्हें पीछे झकेला गया है। यह कड़वी सच्चाई कई सरकारी दस्तावेजों में भी स्वीकार की जा रही है। 10वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में योजना आयोग ने कहा है कि भूमि पुनर्वितरण के संदर्भ में नौवीं योजना के अंत में स्थिति वही थी जो योजना के आरंभ में थी। दूसरे शब्दों में नौवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इस क्षेत्र में कोई प्रगति ही नहीं हुई। यह दस्तावेज स्पष्ट कहता है कि छपाई गई भूमि का पता लगाने और उसे ग्रामीण भूमिहीन निर्धन परिवारों में वितरण करने में कोई प्रगति नहीं हुई। यही नहीं, आगे यह दस्तावेज स्वीकार करता है, 1990 के दशक के मध्य में लगता है कि भूमि-सुधारों को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। हाल के समय में राज्य सरकारों की पहल इससे संबंधित रही है कि भूमि कानूनों का उदारीकरण हो, ताकि बड़े पैमाने की कॉरपोरेट कृषि को बढ़ावा मिल सके। भूमि सुधारों का यह पक्ष हमेशा से ही सबसे महत्वपूर्ण रहा है कि भूमिहीन ग्रामीण परिवारों विशेषकर खेतिहर मजदूर परिवारों में भूमि वितरण किया जाए। यह उद्देश्य आज भी सबसे महत्वपूर्ण है कि भूमिहीन को किसान बनाया जाए, पर इसके साथ ही यह नया खतरा तेजी से बढ़ने लगा है कि बहुत से किसानों की भूमि छिनने की स्थिति कई कारणों से उत्पन्न हो रही है। इन पर रोक लगाना भी बहुत जरूरी है। इस तरह भूमि-सूधारों का यह दो तरफा एजेंडा है कि भूमिहीन को किसान बनाया जाए और किसान को भूमिहीन बनने से रोका जाए। कुल मिलाकर लगभग 2-3 करोड़ तक भूमिहीन व सीमान्त किसान परिवारों को कृषि-भूमि और आवास-भूमि वितरण की सम्यक योजना बनानी चाहिए। एक परिवार को औसतन कम से कम दो एकड़ भूमि अवश्य मिलनी चाहिए। इसके साथ ही लघु सिंचाई, भूमि व जल संरक्षण, भूमि समतलीकरण संबंधी सहयोग मिलना भी जरूरी है। तभी वे सफल किसान बन सकेंगे। इसके अलावा गांववासियों के जल संसाधनों की रक्षा करते हुए जल-जंगल और जमीन की समग्र सोच को लेकर आगे बढ़ना चाहिए। जरूरतमंद लाखों परिवारों को कृषि भूमि सुनिश्चित करवाने का एक अतिमहत्वपूर्ण कार्य सरकार तुरंत कर सकती है, यदि वह वन अधिकार कानून के भटकाव को रोककर इसका सही क्रियान्वयन सुनिश्चित कर दे। यह कानून तो पहले ही बन चुका है, सरकार को तो बस इतना करना है कि इसका समुचित क्रियान्वयन सुनिश्चित कर दे। दूसरी ओर किसानों को भूमिहीन बनने से रोकने के प्रयास भी बराबरप रूप से जरूरी हैं। आज कुछ स्थानों पर किसानों की उपेक्षा और छोटे किसानों के हितों के प्रतिकूल नीतियों की मार इतनी बढ़ गई है कि उनका जीना मुहाल हो गया है। इसलिए छोटे किसानों के हितों को ध्यान में रखकर नीतियां अपनाकर इन किसानों की आजीविका की रक्षा अवश्य ही की जा सकती है। इसके अतिरिक्त सरकार को उन कानूनों को बदलना चाहिए जो किसानों को उपजाऊ भूमि से वंचित करने में अन्यायपूर्ण साबित हुए हैं। भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अन्यायपूर्ण पक्षों को बदलने की जरूरत सरकार ने खुद स्वीकार की है। सेज या विशेष आर्थिक क्षेत्र के कानून पर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है। इसी तरह वन्य जीव संरक्षण जैसे कानून में इस तरह बदलाव होना चाहिए ताकि किसान विस्थापित होने के बजाय वन्य जीवन संरक्षण से जुड़ सकें। भूमि-सुधारों को हमारे देश में अपेक्षित सफलता न मिल पाने का एक प्रमुख कारण यह भी रहा है कि जब भूमिहीन अपने अधिकारों की आवाज उठाते हैं तो उन पर बड़े भूस्वामी वर्ग के साथ-साथ पुलिस-प्रशासन का रवैया भी अक्सर दमन-उत्पीड़न का ही रहता है। सरकार को इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर कड़े निर्देश जारी करने चाहिए कि भूमि सुधारों संबंधी या इससे मिलती-जुलती मांगों के लिए जो भी आंदोलन करते हैं, उनके प्रति दमन की नीति नहीं अपनानी चाहिए। जन-सत्याग्रह राष्ट्रव्यापी स्तर का ऐसा प्रयास है, जिससे भूमि-सुधारों के उपेक्षित एजेंडे को नवजीवन मिल सकता है। इसमें समग्रता से भूमिहीनों, आदिवासियों, किसानों, मछुआरों, घुमंतुओं, शहरी आवासहीनों और हाशिए पर धकेले गए समुदायों की जरूरी मांगों को समाहित किया गया है। साथ में महिला किसानों की समान हकदारी को भी बुलंद किया है। इस प्रयास को व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Dainik Jagran National Edition 5-10-2012  कृषि Pej -9 

Thursday, October 4, 2012

कृषि के लिए झूठी दलीलें




रिटेल में एफडीआइ को कृषि की तमाम बीमारियों का रामबाण इलाज बताया जा रहा है। सरकार प्रचारित कर रही है कि इससे किसानों की आमदनी बढ़ेगी, बिचौलिये खत्म होंगे और उपभोक्ताओं को कम कीमत में सामान मिलेगा। साथ ही कृषि उपज की आपूर्ति में होने वाली बर्बादी पर अंकुश लगेगा। यह सब झूठ है। यह दोषपूर्ण नीति लागू करने के बाद उद्योग जगत तथा नीति निर्माताओं द्वारा सुविधाजनक बहाना है। यह जानने-समझने के लिए कि रिटेल में एफडीआइ का भारतीय कृषि पर क्या प्रभाव पड़ेगा, हमें यूरोप और अमेरिका के उदाहरणों पर नजर डालनी होगी। अमेरिका में वालमार्ट की शुरुआत करीब 50 साल पहले हुई थी। इस दौरान बड़ी संख्या में किसान गायब हो चुके हैं, गरीबी बढ़ गई है और इसी साल भुखभरी ने 14 सालों का रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिया है। नि:संदेह कोई भी देश फिर वह चाहे भारत हो, अमेरिका या फिर जापान, अपने किसानों तथा गरीबों को सब्सिडी देना पसंद नहीं करेगा। भारत में राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सब्सिडी घटाने की मांग हो रही है। इसी उद्देश्य से सरकार ने तेल के दामों में कई बार बढ़ोतरी करके सब्सिडी का भार आम आदमी के सिर पर डाल दिया है। यही नहीं सरकार ने यूरिया को छोड़कर अन्य खादों से भी नियंत्रण हटा लिया है। इस प्रकार कृषि को मिलने वाली सब्सिडी में सरकार भारी कटौती कर रही है। अमेरिका भी कोई अपवाद नहीं है। अगर वालमार्ट इतनी ही किसानों की हितचिंतक है तो फिर अमेरिका कृषि क्षेत्र में साल दर साल भारी सब्सिडी क्यों उडे़ल रहा है? अमेरिका में 2008 में पारित हुए कृषि बिल में पांच वर्षो के लिए 307 अरब डॉलर यानी करीब 15,50,000 करोड़ रुपये की भारी-भरकम रकम का प्रावधान किया गया है। 2002-09 के बीच अमेरिका किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता के रूप में 13 लाख करोड़ रुपये दे चुका है। विश्व व्यापार संगठन की वार्ताओं में अमेरिका ने इस सब्सिडी की जोरदार पैरवी की है और इनमें कटौती से साफ इन्कार कर दिया है। 30 धनी देशों के ओइसीडी समूह ने 2008 की तुलना में 2009 में कृषि सब्सिडी में 22 फीसदी की बढ़ोतरी की है, जबकि 2008 में भी इसमें 21 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी। 2009 में इन देशों ने 12.60 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी किसानों को दी थी। तथ्य यह है कि दिग्गज रिटेल चेन के होते हुए यूरोप के किसान बिना सरकारी सहायता के जिंदा नहीं रह सकते। क्या इससे पता नहीं चलता कि यूरोप-अमेरिका में उच्च कृषि आय बड़ी रिटेल चेन के बजाय सरकारी सब्सिडी के कारण है? असल में पूरी दुनिया में यूरोप कृषि को सहायता देने में सबसे आगे है। यूरोप में हर गाय पर करीब दो सौ रुपये की सहायता मिलती है, जबकि भारत में किसान एक गाय से रोजाना 40-50 रुपये ही कमा पाता है। इससे एक सवाल खड़ा होता है कि अगर किसानों की आमदनी में वृद्धि नहीं हो रही है तो बड़ी रिटेल चेन बिचौलियों को कैसे खत्म कर रही हैं? इसका जवाब यह है कि जो कुछ प्रचारित किया जा रहा है उसके विपरीत बड़ी रिटेल चेन बिचौलियों को खत्म नहीं कर रही हैं। उदाहरण के लिए वालमार्ट खुद एक बिचौलिया है-एक बड़ा बिचौलिया जो तमाम छोटे बिचौलियों को हड़प जाता है। असल में बड़ी रिटेल चेन में बिचौलियों की पूरी श्रृंखला होती है। इनमें गुणवत्ता नियंत्रक, मानकीकरण करने वाले, प्रमाणन एजेंसी, प्रसंस्करण कर्ता आदि बिचौलियों के ही नए रूप हैं। केवल अमेरिका में ही नहीं, यूरोप में भी किसानों की संख्या लगातार घटती जा रही हैं। वहां हर मिनट औसतन एक किसान खेती को तिलांजलि दे रहा है। अगर बड़े रिटेलों के कारण किसानों की आमदनी बढ़ती है तो मुझे कोई कारण नजर नहीं आ रहा कि किसान खेती क्यों छोड़ रहे हैं? इस बात के भी कोई साक्ष्य नहीं हैं कि बड़े रिटेलर उपभोक्ता को कम दामों में सामान मुहैया कराते हैं। लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में बड़े रिटेलर उपभोक्ताओं से खुले बाजार की तुलना में बीस से तीस प्रतिशत अधिक वसूल रहे हैं। अमेरिका और यूरोप में बड़े रिटेल स्टोरों में खाद्य पदार्थ इन स्टोरों के परोपकार के कारण सस्ते नहीं हैं। दरअसल, यहां विशाल सब्सिडी के कारण घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट आ जाती है और अमेरिका व यूरोप, दोनों ही खाद्य पदार्थो तथा अन्य कृषि उत्पादों को भारी सब्सिडी देने के लिए जाने जाते हैं। उदाहरण के लिए 2005 में अमेरिका ने अपने कुल 20,000 कपास उत्पादक किसानों को करीब 25,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी थी, जबकि इस कपास का मूल्य करीब 20,000 करोड़ रुपये ही था। इस सब्सिडी के कारण कॉटन का बाजार मूल्य करीब 48 फीसदी कम हो जाता है। इसी प्रकार खाद्य पदार्थो पर सब्सिडी दी जाती है। अमेरिका में वालमार्ट की तरह ही कारगिल व एडीएम जैसी अन्य व्यावसायिक कंपनियां बड़े स्तर पर कृषि उपजों का भंडारण करती हैं। मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि वालमार्ट, टेस्को और सेंसबरी जैसी कंपनियां उचित रूप से अन्न का भंडारण सुनिश्चित करती हैं। मनमोहन सिंह कहते हैं कि रिटेलर उचित खाद्य भंडारण सुनिश्चित करते हैं, लेकिन इसके कोई साक्ष्य नहीं हैं। खाद्यान्न का भंडारण सरकार का काम है, किंतु दुर्भाग्य से भारत में कभी खाद्यान्न भंडारण के काम को प्राथमिकता पर नहीं लिया गया। खुले में गेहूं सड़ रहा है और करोड़ों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। भारत में हमें अमूल के उदाहरण से सबक लेना चाहिए, जिसने जल्दी खराब हो जाने वाले दुग्ध उत्पादों को लंबी दूरी तक ले जाने की अत्याधुनिक आपूर्ति चेन विकसित की। हमें अमूल से सीखना चाहिए। अब जरा इस दावे पर गौर करें कि बड़ी रिटेल कंपनियों के आने से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। मनमोहन सिंह ने कहा है कि बड़ी रिटेल कंपनियां भारत में एक करोड़ रोजगार सृजित करेंगी। न जाने वह इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंच गए? अंतरराष्ट्रीय साक्ष्यों से पता चलता है कि बड़े रिटेलर रोजगार बढ़ाने के स्थान पर कम कर देते हैं। वाल-मार्ट का कुल व्यापार 450 अरब डॉलर है। संयोग से भारत का रिटेल मार्केट भी 420 अरब डॉलर से कुछ अधिक है। जहां वाल-मार्ट ने कुल 21 लाख लोगों को रोजगार दिया है, वहीं भारत में रिटेल क्षेत्र में 1.20 करोड़ दुकानों में 4.4 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि वाल-मार्ट अतिरिक्त रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं कराएगी, बल्कि करोड़ों लोगों का रोजगार छीन लेगी। निश्चित तौर पर भारत को अपने रिटेल क्षेत्र का आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि रिटेल बाजार को विदेशी खिलाडि़यों के हवाले कर दिया जाए और वह भी किसानों के नाम पर। (लेखक कृषि एवं खाद्य नीतियों के विश्लेषक हैं)

Dainik jagran National Edition , कृषि , 4-10-2012 Pej-8


Wednesday, October 3, 2012

उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण क्यों




मेश चतुर्वेदी भारत में इन दिनों भूमि अधिग्रहण के खिलाफ कम से कम 1700 आंदोलन हो रहे हैं। निश्चित तौर पर इनमें से सभी आंदोलनों के साध्य और साधन सही नहीं है। यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि इन आंदोलनों में सबके लक्ष्य भी सही नहीं होंगे। इसके बावजूद अगर पूरे देश में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ इतने आंदोलन चल रहे हैं तो यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि उदारीकरण के दौर में लगातार आगे बढ़ रही नव आर्थिकी के लिए हो रहे भूमि अधिग्रहण में कहीं न कहीं कोई खोट अवश्य है। इस खोट की तरफ ध्यान दिलाने के लिए गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े रहे गांधीवादी कार्यकर्ता और भारतीय एकता परिषद के अध्यक्ष पीवी राजगोपाल पिछले एक साल से लगातार देशव्यापी यात्रा पर हैं। दो अक्टूबर 2011 को शुरू हुई उनकी यात्रा का समापन दिल्ली में इस साल दो अक्टूबर को होना था। इस यात्रा में एक लाख लोगों को दिल्ली पहुंचना था। यात्रा के आखिरी दौर में ग्वालियर से एक लाख लोगों की यात्रा का दिल्ली आना अपने आप में सांसत वाली बात होती। ये लोग ग्वालियर में जुट भी गए हैं। देशभर के भूमिहीन और मेहनतकश आदिवासी और दूसरे तबके के लोगों की एक लाख की संख्या जुट जाना भी कम बड़ी बात नहीं है। पीवी राजगोपाल अपनी इन्हीं मांगों को लेकर 2007 में 25 हजार लोगों को दिल्ली लाकर उदारीकरण के दौर के भूमि सुधारों पर रोष जता चुके हैं। शायद केंद्र सरकार को यह याद रहा, यही वजह है कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आगे आना पड़ा और पीवी राजगोपाल को ग्वालियर में ही यह मार्च खत्म करने के लिए अपील करनी पड़ी। यह सच है कि उदारीकरण के बाद लगातार देश में कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण बढ़ता गया है। भूमि अधिग्रहण को लेकर मोटे तौर पर देश के किसानों में दो वजहों से गुस्सा है। दूर-दराज के इलाकों में आज भी जमीन से मां और बेटे जैसा ही रिश्ता है। फिर खेती के लिए उपजाऊ जमीन कोई एक दिन में तैयार नहीं होती। देश के अब भी ज्यादातर लोगों की रोजी-रोटी खेती पर ही निर्भर है। लोगों का सवाल यह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी ने जिस जमीन को सोना उपजाने वाली बनाया, उसका ही अधिग्रहण क्यों हो। देश में अब भी बंजर और दलदली जमीन की कमी नहीं है। इन भोले-भाले लोगों का सवाल यह है कि आखिर इस जमीन को क्यों नहीं विकसित किया जा सकता और उसे उद्योगपति क्यों नहीं अपने उद्योगों के लिए विकसित करते। ऐसा नहीं कि देश में इसका इतिहास नहीं है। टाटा एंड संस की पहचान टाटा स्टील की स्थापना जमशेद जी नौशेरवां जी टाटा ने सिंहभूम के जंगलों में की थी। उन्होंने इसके लिए उपजाऊ जमीन का चुनाव नहीं किया। बिड़ला ग्रुप की सबसे कमाऊ यूनिट हिंडाल्को भी सोनभद्र की रूखी पहाडि़यों के बीच स्थित है। दुनिया में भी ऐसे उदाहरण हैं। दुबई शहर भी रेत के बीचोंबीच न सिर्फ बसाया गया, बल्कि वहां हरियाली भी है। इस छोटे से सवाल का जवाब भोले और मेहनतकश किसानों को कम से कम सरकार की तरफ से नहीं मिल रहा है। नई आर्थिकी ने उपजाऊ धरती को किस तरह बिल्डरों और सेज के नाम पर निगला है, इसकी बानगी दिल्ली के नजदीक हरियाणा में भी देखी जा सकता है। कभी अपने उपजाऊपन के लिए हरियाणा में सहजता से बाग-बगीचे लगाना भी संभव नहीं था, वहां बिल्डरों द्वारा ऐसी ही आर्थिक गतिविधियों के लिए उपजाऊ जमीनें ली जा रही हैं और उनका बोलबाला बढ़ा है। रही-सही कसर स्थानीय प्रशासन और अधिकारियों की मिलीभगत ऐसे उपजाऊ इलाके की जमीनों के अधिग्रहण को लेकर नए तरह के रोष की वजह बनी है। दरअसल, करोड़ों की कीमत वाली जमीनों का प्रशासन कौडि़यों के भाव अधिग्रहण करके मोटी कमाई कर रहा है। नोएडा के आसपास के किसानों का संघर्ष भी इसी संदर्भ को लेकर है, लेकिन दुर्भाग्यवश ये आंदोलन भी सिर्फ राजनीतिक फायदे हथियाने का जरिया भर बन गए हैं। विपक्ष में रहते वक्त तक पार्टियां इन किसानों और भूमिहीनों के वाजिब हकों की बात तो खूब करती हैं, लेकिन सत्ता में लौटते ही उनका भी रुख वैसा ही हो जाता है, जैसा पूर्ववर्ती सरकारों का रहता है। लिहाजा, यह समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। यही वजह है कि पीवी राजगोपाल की देशव्यापी यात्रा को भरपूर समर्थन मिला। उनकी जगह पर कोई भी आंदोलनकारी समूह होता तो उसे भी ऐसा ही समर्थन मिलता। बहरहाल, राजगोपाल और उनकी संस्था ने जिन मांगों को लेकर मार्च की तैयारी की है, उन पर भी गौर फरमाया जाना चाहिए। पहली मांग तो यह है कि सबसे पहले राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति बनाई जानी चाहिए। स्पष्ट भूमि सुधार नीति के अभाव में प्रशासन भी मनमानी करता है और उसकी कीमत लोगों को चुकानी पड़ती है। दूसरी मांग बड़ी मार्के की है। संविधान ने कुछ मूल अधिकार तो भारतीय नागरिक को दिए हैं, लेकिन उसमें सिर पर छत का अधिकार शामिल नहीं है। राजगोपाल की टीम का तर्क है कि अगर लोगों को सिर पर छत का मूल अधिकार मिल गया तो उन्हें आसानी से उनकी जमीनों से बेदखल नहीं किया जा सकेगा। फिर मूल अधिकारों के रक्षक के तौर पर सुप्रीम कोर्ट भी इसमें आधिकारिक हस्तक्षेप कर सकेगा। चूंकि अब तक आवास की सहूलियत उपलब्ध कराना राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में ही शामिल है, लिहाजा इसके लिए राज्य जवाबदेह भी नहीं है। एकता परिषद की तीसरी मांग है खेती की जमीन के लिए लैंड पूल बनाया जाए, ताकि भूमिहीनों को कम से कम रोटी के लिए खेती लायक जमीन दी जा सके। चौथी और आखिरी मांग यह है कि राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद को प्रभावी बनाया जाए। इसके साथ ही भूमि संबंधी कानूनों और इन मांगों को लागू करने के लिए ताकतवर नियामक संस्था और फास्ट ट्रैक अदालतें स्थापित की जानी चाहिए। हालांकि अब तक भूमि सुधारों को लेकर जो सरकारी रवैया रहा है, उसमें इन मांगों को मान लेना आसान नहीं है। वैसे भी ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने जिस भूमि सुधार कानून का प्रस्ताव किया है, उसे ही नई आर्थिकी के पैरोकार पचा नहीं पा रहे हैं। इस पर विचार करने के लिए जो मंत्री समूह बनाया गया है, वह भी कोई ठोस फैसला नहीं ले पाया है। इस प्रस्तावित कानून में अधिग्रहण के लिए पंचायतों के बहुमत का साथ पाने का प्रावधान सब पर भारी पड़ रहा है। बहरहाल, सरकार ने पीवी राजगोपाल को उनकी मांगों पर विचार करने का भरोसा दिया है। योजना आयोग उनसे कई बार बातचीत भी कर चुका है। इस भरोसे पर एकता परिषद का प्रस्तावित मार्च फिलहाल रुक गया है, लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि पांच साल पहले तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी भूमि सुधार और उसे लेकर जारी आंदोलनों की मांगों पर विचार करने का भरोसा दिया था। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Dainik Jagran  National Edition 3-10-2012 Agricultural Pej 9