Friday, December 16, 2011

बिचौलियों से मुक्त नहीं फसल की खरीद

सरकार और व्यापार का खेती और किसानों को लेकर क्या नजरिया है, बीते दिनों की कुछ घटनाओं से भारत की कृषकीय दशा को समझा जा सकता है। संसद में एक प्रश्न के जवाब में सरकार ने स्वीकारा है कि अकेले विदर्भ में 2007 से लेकर 2010 तक 1118 किसानों ने आत्महत्या की है। यह संख्या उन किसानों की है जो किसी न किसी रूप से प्रधानमंत्री राहत कोष के लाभार्थी थे। यानी साफ है कि किसानों को दिये जाने वाले पैकेज का तात्कालिक या दीर्घकालिक फायदा नजर नहीं आया। ऐसे में सवाल है कि क्या वाकई सरकारी कवायद किसानों के व्यापक हित के लिए पर्याप्त है। किसानों की वर्तमान स्थिति समझने के लिए दो उदाहरण पर्याप्त हैं। पहला तमिलनाडु का है जहां सरकार ने घोषणा की है गरीबों को एक रुपए की कीमत पर चावल उपलब्ध होगा। गरीब लोगों को कम दर पर अनाज जरूर मिले लेकिन अनाज उत्पादक किसान नजरअंदाज न हों। दरअसल सस्ती दर पर अनाज देने की राजनीतिक होड़ का खमियाजा किसान उठा रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि जिन राज्यों में सस्ती दर पर अनाज देने की प्रक्रिया शुरू हुई है और सब्सिडी में कटौती की गई है उसी के बाद से किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में इजाफा हुआ है। सस्ती दर पर अनाज उपलब्ध करवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी सहयोग दिया है। काबिलेगौर है कि यही संस्थाए कृषि क्षेत्र को सब्सिडी दिए जाने का लगातार विरोध भी करती आई हैं। जो आलू बाजार में सामान्यत: 12 रुपये किलो के भाव मिलता है, उसे किस मजबूरी के तहत किसान एक रुपये किलो बेचने के लिए मजबूर है। बिहार उत्तर प्रदेश में आलू उत्पादक किसानों की यह बड़ी समस्या है। अकेले विदर्भ के 46 लाख कपास उत्पादक किसान, देश के लाखों आलू और गन्ना उत्पादक किसान सरकार की अनुचित खरीद पण्राली का दंश झेल रहे हैं। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि जब भारत जैसे देश में खेती पर सब्सिडी लगातार कम की जा रही है, अमेरिका, चीन और हमसे कहीं छोटे अफ्रीकी देशों की अर्थव्यवस्थाओ में खेती पर सब्सिडी बढ़ाई जा रही है। पूंजीवादी मॉडल पर चलने वाले अमेरिका की खेती पर सब्सिडी 25 हजार करोड़ रुपए तक पहुंच गई है। खेती को लेकर सरकार की संकीर्ण सोच महाराष्ट्र के गन्ना किसानों के आंदोलन से भी तय होती है। हालांकि फ्री मार्केट के पैरोकारों द्वारा चलाए गए इस आंदोलन के पीछे शुगर मिलों की चीनी निर्यात की मांग काम कर रही थी। आंदोलन के बाद सरकार ने रिकवरी के आधार पर गन्ने के मूल्य तय किये। परिणामस्वरूप पश्चिम महाराष्ट्र, मराठवाड़ा और विदर्भ को गन्ने की रिकवरी के आधार पर 2050,1850 और 1800 रुपए का मूल्य दिया गया। तर्क दिया गया कि पश्चिम महाराष्ट्र में करीब 12 से 13 प्रतिशत शक्कर की रिकवरी होती है। यानी एक क्ंिवटल गन्ने में से 13 किलो चीनी। साथ ही इथेनॉल जैसे अन्य उत्पाद भी निकलते हैं। इसके पीछे का तर्क तकनीक रूप से सही हो सकता है लेकिन मूल्य निर्धारण करने वालों को सोचना चाहिए कि शक्कर कम निकलती है तो उसमें किसान का क्या दोष? दरअसल सरकार की ओर से अब तक समेकित कृषि योजनाएं नहीं बन सकी हैं। मूलभूत सुविधा देने की बजाए ब्यूरोक्रेट्स की लूट के लिए पैकेज बनाए जाते हैं। सब्सिडी देने की जगह सस्ती दर पर अनाज बेच कर किसान को भुखमरी के कगार पर पहुंचा दिया जाता है। बिजली की जगह बीजों के दाम बढ़ाए जाते हैं। उपज खरीद अब तक बिचौलियों से मुक्त नहीं हो पाई है। नियंताओं को विचार करना चाहिए कि आखिर गलती कहां है?

Monday, November 21, 2011

खेती की नई चुनौती


पिछले तीन साल से खाद्य महंगाई थामने में जुटी सरकार के सामने क्रॉप हालिडे ने एक नई चुनौती पैदा कर दी है। बढ़ती लागत और घटती आय की वजह से आंध्र प्रदेश के पूर्वी व पश्चिमी गोदावरी, गुंटूर, वारंगल जिलों में छोटे व सीमांत किसानों ने खेती न करने का फैसला किया। अब ये किसान खेती के बजाय मनरेगा के तहत मजदूरी करेंगे। किसानों में असंतोष की मूल वजह उर्वरक, कीटनाशक, बीज और श्रमिकों के मूल्य में बेतहाशा बढ़ोतरी है। इससे उत्पादन लागत इतनी बढ़ गई है कि किसान अब खेती छोड़कर रोजी-रोटी के वैकल्पिक साधनों की ओर रुख कर रहे हैं। देखा जाए तो 2009 में पोषक तत्व आधारित सब्सिडी (एनबीएस) अपनाने के बाद उर्वरकों के दाम तेजी से बढ़े हैं। अधिकांश फसलों में प्रयुक्त होने वाले डाई अमोनियम फास्फेट (डीएपी) की कीमतें पिछले तीन वषरें में 450 रुपये से बढ़कर 950 रुपये प्रति कट्टा (50 किग्रा) हो गईं हैं। फिर किसानों को डीएपी के एक कट्टे के लिए 1350 रुपये तक चुकाना पड़ता है क्योंकि जरूरत के समय इसकी किल्लत हो जाती। इसी प्रकार यूरिया की कीमत दोगुनी बढ़ चुकी है। पिछले पांच वषरें में श्रमिकों की लागत 300 फीसदी तक बढ़ी है। तटीय आंध्र प्रदेश के बेहद उपजाऊ इलाकों को कोनासीमा के नाम से जाना जाता है। धान की भरपूर पैदावार के चलते इसे प्रदेश का धान का कटोरा कहा जाता है। लेकिन इस साल यहां के 40,000 किसानों ने अपनी जमीन को परती रखा है यानी खेती नहीं की। इसका अर्थ है कि धान उगाने वाली 90,000 एकड़ जमीन परती रह गई और पिछले साल हुए धान के पांच लाख टन के उत्पादन के रिकार्ड को दोहराया नहीं जा सका। यह स्थिति देश के कई हिस्सों में शुरू हो चुकी है भले ही वहां के किसानों ने क्रॉप हालिडे की घोषणा न की हो। उदाहरण के लिए उड़ीसा में हजारों एकड़ जमीन परती पड़ी है क्योंकि खेती पुसाने लायक नहीं रह गई है। किसानों को सबसे बड़ी शिकायत खेती की लागत और समर्थन मूल्य के निर्धारण में कोई तालमेल नहीं होना है। यही निष्कर्ष सरकार द्वारा गठित समिति का भी है। मोहन कांडा समिति की रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे हालात बनने की करीब एक दर्जन वजहें है। इसमें सबसे बड़ी वजह सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) है जिसे लेकर किसानों में काफी गुस्सा है। दरअसल, एक क्विंटल धान पैदा करने की लागत 1583 रुपये हैं जबकि सरकार ने धान के लिए 1110 रुपये एमएसपी घोषित किया है। इसका मतलब यह है कि किसानों को 473 रुपये प्रति क्विंटल और प्रति एकड़ करीब 10,000 रुपये का नुकसान हो रहा है। ऐसे में धान की खेती कौन करेगा? यही कारण है कि खेत परती छोड़ने का चलन बढ़ता ही जा रहा है। एमएसपी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों के आधार पर तय किया जाता है और इसकी सिफारिशों को मानने के लिए केंद्र सरकार बाध्य नहीं है क्योंकि उसे महंगाई का भी ध्यान रखना पड़ता है। फिर आयोग अपनी सिफारिश करते समय स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में न रखकर पूरे देश के लिए एक समान मानक तय करता है जबकि असम से लेकर तमिलनाडु तक खेती की लागत में काफी अंतर है। मजदूरी में अंतर के अलावा खेती में लगने वाले अन्य संसाधनों की लागत में भी काफी अंतर है। फिर मजदूरों की कमी भी एक बड़ी समस्या बन चुकी है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के कारण खेती के लिए मजदूरों का मिलना मुश्किल हो गया है। देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां खेती-किसानी के लिए कभी दीर्घकालिक नीति बनी ही नहीं। इसे आंध्र प्रदेश में आम के पेड़ लगाने के उदाहरण से समझा जा सकता है। खेती के घाटे का सौदा बनने पर बागवानी विकास के तहत सरकार ने आम के पेड़ लगाने के लिए भारी सब्सिडी दी। इससे आम के भंडारण, विपणन, प्रसंस्करण आदि सुविधाओं का ध्यान रखे बिना बड़े पैमाने पर आम के पेड़ लगाए गए। इसका परिणाम यह हुआ कि जैसे ही फसल मंडी में आई वैसे ही कीमतें गिर गईं और बागान मालिकों को अपनी लागत निकालना कठिन हो गया। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Thursday, November 17, 2011

किसान तय करें गन्ने की कीमत


आगामी विधान सभा चुनावों को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने चालू गन्ना सीजन के लिए गन्ने के राज्य परामर्श मूल्य यानी एसएपी में 40 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी कर दी है। इसके चलते राज्य में गन्ने की विभिन्न किस्मों का एसएपी 235 से 250 रुपये प्रति क्विंटल हो गया। लेकिन निजी चीनी मिलों के संगठन इस्मा ने सरकार के इस फैसले का विरोध करते हुए कहा है कि यदि चीनी के दाम नहीं बढ़े तो जल्दी ही गन्ना किसानों के बकाया की स्थिति पैदा हो सकती है। दरअसल, उत्तर प्रदेश में चीनी की औसत रिकवरी (9.5 फीसदी) को देखें तो नए मूल्य पर चीनी उत्पादन की लागत 31 से 33 रुपये प्रति किलो आएगी, जबकि राज्य में इस समय चीनी का खुदरा मूल्य 31 से 32 रुपये प्रति किलो चल रहा है। इस्मा के मुताबिक जब यह मूल्य 36 रुपये प्रति किलो होगा, तभी गन्ना किसानों को भुगतान संभव हो पाएगा। इसीलिए इस्मा ने मौजूदा एसएपी पर गन्ना खरीदने में असमर्थता जताते हुए अदालत जाने की घोषणा की है। दूसरी ओर किसान संगठन गन्ने के समर्थन मूल्य में 40 रुपये की बढ़ोतरी को नाकाफी बता रहे हैं। उनका कहना है कि खाद, बीज, सिंचाई, कीटनाशक के साथ यदि मजदूरी का खर्च जोड़ दिया जाए तो गन्ना पैदा करने की लागत सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य से कहीं ज्यादा आएगी। उत्तर प्रदेश में गन्ने के एसएपी में बढ़ोतरी को देखते हुए महाराष्ट्र के किसानों ने भी गन्ने का दाम 235 रुपये प्रति क्विंटल करने की मांग को लेकर आंदोलन छेड़ दिया। पांच दिनों तक चले आंदोलन के बाद किसानों व सरकार के बीच राज्य में तीन अलग-अलग जगहों में अलग-अलग समर्थन मूल्य (एसएपी) लागू करने पर सहमति बनी। इसके तहत कोल्हापुर, सतारा, सांगली के लिए 205 रुपये, पुणे, शोलापुर, अहमदनगर जिलों के लिए 185 रुपये और मराठवाड़ा व विदर्भ के लिए 180 रुपये प्रति क्विंटल की दर से गन्ने की खरीद की जाएगी। दरअसल, चीनी के मामले में सरकारी नीतियों के पीछे जहां दूरदर्शिता का अभाव रहा है, वहीं इस मुद्दे पर लंबे समय से राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। जब चुनाव सिर पर होते हैं, तब सरकारों को गन्ना किसानों की याद आती है और चुनाव बीतते ही सरकारें मिल मालिकों की शुभचिंतक बन जाती हैं। देखा जाए तो उदारीकण के दो दशकों के बाद भी गन्ना और चीनी ऐसे कृषि उत्पाद हैं, जो सबसे ज्यादा नियंत्रित हैं। इनके उत्पादन और बिक्री के हर कदम पर सरकार की दखलंदाजी है। इसके चलते ही किसान और चीनी मिलों के बीच गन्ना मूल्य को लेकर एक अघोषित युद्ध चलता रहता है। इसमें जब बाजी मिलों के हाथ में होती है तो किसानों को गन्ने के वाजिब दाम के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है और जब किसान फायदे में होते हैं तो मिलें बीमार हो जाती हैं। चीनी उद्योग के संकट की पड़ताल की जाए तो मिल मालिकों की केवल अपने हितों के लिए की जा रही लामबंदी ही मुख्य कारण नजर आएगी, क्योंकि चीनी उद्योग यह चाहता है कि चीनी और उसके कच्चे माल गन्ने दोनों का मूल्य निर्धारित करने का अधिकार उसे मिले। गन्ने को 11 से 13 महीने तक अपने खेत में तैयार करने वाले किसान को यह हक देने के लिए चीनी उद्योग तैयार नहीं हैं। यह काम उसके लिए केंद्र व राज्य सरकारें करती हैं, लेकिन राज्यों की ओर से तय कीमत यदि उद्योग के मुताबिक नहीं होती तो उसे वे न्यायालय में चुनौती देने से नहीं चूकता। चीनी उद्योग अपने पक्ष में तर्क देता है कि ज्यादा पैदावार लेने की होड़ और रसायनों के इस्तेमाल से गन्ने में पानी की मात्रा बढ़ी है, जिससे चीनी की रिकवरी कम होती जा रही है। ऐसे में गन्ने के बढ़ते मूल्य और गिरती रिकवरी से मिल चलाना घाटे का सौदा हो गया है। दूसरी ओर किसान संगठनों का कहना है कि अब केवल चीनी ही मिलों की आय का स्त्रोत नहीं रह गई है। मिलें गन्ने व चीनी के उप-उत्पाद से अल्कोहल, कागज, बिजली आदि बना रही हैं, जिससे उनके मुनाफे में भारी बढ़ोतरी हुई है। अत: गन्ना मूल्य निर्धारित करते समय चीनी मिलों के इस मुनाफे की भी गणना की जानी चाहिए। देखा जाए तो चीनी और उप-उत्पादों की कीमतों के अनुपात में गन्ना मूल्य निर्धारण ही इस समस्या का स्थायी उपाय है। अति उत्पादन की स्थिति में किसानों का बकाया न बढ़े, इसके लिए सरकार को लाभकारी मूल्य पर चीनी निर्यात के मौकों का फायदा उठाने में नहीं चूकना चाहिए। (लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं)

कैसे दूर होगा गन्ना किसानों का गम


महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के बीच हजारों किलोमीटर का फासला भले ही हो , लेकिन दोनों की त्रासदी एक-सी है। दोनों की नियति की कमान शासन के हाथ में है। शासन हर साल सर्दियों की शुरुआत से पहले लाखों गन्ना किसानों को अपने पैमाने पर कसता है। उन्हें सड़कों पर उतरवाता है। उन पर लाठी, गोलियां चलवाता है और अंत में काफी हद तक उनकी मांग मान भी लेता है। हर साल की यही कहानी है। इस साल यह महाराष्ट्र में दोहराई जा रही है तो उत्तर प्रदेश के किसानों को इसलिए राहत है, क्योंकि कुछ ही महीनों में यहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। यह अजीब त्रासदी है कि महाराष्ट्र के जिन गन्ना किसानों को बीते साल 200 रुपये क्विंटल गन्ने का मिला, उन्हें इस साल एक बार फिर से इसी मूल्य 235 रुपये प्रति क्विंटल को पाने के लिए सड़कों पर उतरना पड़ रहा है। स्वाभिमानी क्षेत्रकारी संगठन के राजू शेट्टी के नेतृत्व में हजारों किसान कृषि मंत्री शरद पवार के गृह जिले में पांच दिनों तक डेरा डाले रहे। गन्ना किसानों की यह आग पूरे पश्चिमी महाराष्ट्र में फैल गई और इसकी आंच दिल्ली तक भी महसूस की गई। महाराष्ट्र में जल्द ही स्थानीय निकाय (निगम, पालिका और परिषदों) के चुनाव होने जा रहे हैं। इसलिए अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए शिवसेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, भाजपा और यहां तक कि कांग्रेस भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को एक कोने में करने के लिए कूद पड़ी है। आंदोलन राजनीतिक रंग न पकड़ ले, इसके लिए राकांपा की सांसद और शरद पवार की पुत्री सुप्रिया सुले और राज्य के सहाकारिता मंत्री हर्षवर्धन पाटील आंदोलनरत किसानों के संपर्क में हैं। बहरहाल, जो भी हो, यह मामला किसानों से जुड़ा है। राजनीतिक दल इसका फायदा अपने-अपने हिसाब से उठाना चाहते हैं तो वे जानें, लेकिन यह महाराष्ट्र के 10 लाख गन्ना किसानों के लिए रोजी-रोटी का सवाल है और इसीलिए वे सड़कों पर उतरे हुए हैं। ऐसा नहीं है कि राज्य के गन्ना किसान इसी साल गन्ने के उचित मूल्य को लेकर सड़कों पर उतरे हैं। पिछले साल भी उनकी सर्दियां महाराष्ट्र की सड़कों पर ही कटी थीं। बीते साल भी केंद्र और राज्य सरकार ने क्रमश: गन्ने का खरीद मूल्य 145 रुपये प्रति क्विंटल और 137 रुपये प्रति क्विंटल तय किया था। राज्य के गन्ना किसानों ने जब आंदोलन किया तो राज्य सरकार किसानों को 200 रुपये प्रति क्विंटल तक देने को मान गई। लेकिन इस साल एक बार केंद्र और राज्य सरकार ने गन्ना किसानों को परेशान करने की ठान ली है। जिस राज्य सरकार ने बीते साल गन्ना किसानों को 200 रुपये प्रति क्विंटल तक दिया, अब वह किसानों को 140 रुपये प्रति क्विंटल देने की बात कर रही है। इतनी महंगाई, ईधन के बढ़ते दामों और मनरेगा योजना के कारण महंगी होती मजदूरी के बीच सरकार किसानों से कह रही है कि वह अपनी फसल दो साल पुराने रेट पर उसे बेचें। सरकार और चीनी मिल मालिकों का कहना है कि किसानों की मांग 235 रुपये प्रति क्विंटल मांग के मुताबिक गन्ना खरीदा गया तो बाजार में चीनी के दामों में पांच से सात रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी हो जाएगी। अब सवाल है कि कैसे हो जाएंगे? एक साल पहले जब चीनी 50 रुपये प्रति किलोग्राम गई थी तो क्या सरकार ने किसानों से 500 रुपये क्विंटल में गन्ना खरीदा था। नहीं तो फिर अभी-अभी क्यों चीनी की सिरदर्दी किसानों के सिर मढ़ी जा रही है। दूसरा, सरकार और चीनी मिल मालिकों की यह दलील भी सच्चाई से कोसों दूर है। केंद्र सरकार के अगर एफआरपी 145 रुपये की बात करें तो बाजार में चीनी की कीमत अधिक से अधिक 15 रुपये प्रति किलो से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, लेकिन बाजार में आज की तारीख में चीनी औसतन 35 रुपये प्रति किलोग्राम बिक रही है। इस हिसाब से तो गन्ना किसानों को गन्ने का 350 रुपये प्रति क्विंटल मिलना चाहिए, क्योंकि एक क्विंटल गन्ने में औसतन 9.5 किलोग्राम चीनी निकलती है। चीनी की इन कीमतों पर हल्ला मचाकर भारी मुनाफा कमाने वाली चीनी मिलें यह भूल जाती हैं कि एक क्विंटल में 9.5 किलोग्राम चीनी के अलावा इन मिलों को गन्ने की इसी मात्रा से शीरा, खोई और मैली सह-उत्पाद के रूप में मिलती है। जिन्हें खुले बाजार में बेचकर ये मिलें लाखों तक कमाती हैं। इनमें से कुछ मिलें तो अब खोई से बिजली उत्पादन भी करने लगी हैं। सीरे से शराब बनाने में और इसे तेल उत्पादों में मिलाने से चीनी मिलों को हर साल कितना फायदा होता है, यहां किसी को बताने की जरूरत नहीं है। महाराष्ट्र में 168 चीनी मिलें हैं। इनमें से 121 सहकारी क्षेत्र में और 47 निजी क्षेत्र में है। देश में महाराष्ट्र ही एकमात्र ऐसा राज्य हैं, जहां गन्ने जैसी नकदी फसल में किसानों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सहकारिता को अंजाम तक पहुंचाया गया है। लेकिन आज यह सहकारिता ही किसान हितों के आड़े आने लगी है। राज्य के सहकारी बैंकों ने चीनी मिलों को निर्देश दिए हैं कि अगर किसानों से 137.5 रुपये प्रति क्विंटल से ज्यादा दर में गन्ना खरीदा गया तो वे ऐसी मिलों को ऋण उपलब्ध नहीं कराएंगे। महाराष्ट्र के सहकारिता मंत्री हर्षवर्धन पाटील और इस क्षेत्र के कद्दावर नेता शरद पवार को इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा कि सहकारी बैंक किसानों की मदद के लिए हैं या उनकी मुश्किलें और बढ़ाने के लिए। स्वाभिमानी क्षेत्रकारी संगठन के राजू शेट्टी के साथ आंदोलन कर रहे हजारों किसानों की मांगें कल को मान भी ली जाती हैं, लेकिन यह कौन-सा तरीका है कि राज्य के गन्ना किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य लेने के लिए हर साल सड़कों पर उतरना पड़ता है। यह समय उसके फसल-चक्र में सबसे कीमती समय होता है, जब वह अपनी फसल को चीनी मिलों के दरवाजे तक पहुंचाता है। ठीक इसी समय अपनी फसल को खेत में ही छोड़ वह सड़कों पर उसका सही मूल्य पाने के लिए सरकार से लड़ रहा होता है। यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि गन्ने का क्या मूल्य हो, इसका निर्धारण केंद्र और राज्य सरकार आखिर कब तक करती रहेगी। क्यों सरकार की एजेंसी फसल उत्पादन मूल्यांकन आयोग फसलों का मूल्य निर्धारण करती हैं। क्यों नहीं यह अधिकार गन्ना किसानों को दिया जाता है कि वह अपनी फसल की उपज का निर्धारण खुद करें। जब बाजार में जूते सीने वालों, बाल काटने वालों से लेकर मोटरसाइकिल और कार बेचने वालों को यह आजादी है कि वह अपने उत्पाद का मूल्य खुद निर्धारित करें तो गन्ना किसान को यह अधिकार क्यों नहीं दिया गया है। जब तक महाराष्ट्र में ही नहीं, देशभर के गन्ना किसानों को उनकी फसल का मूल्य निर्धारण करने का अधिकार नहीं दिया जाता, तब तक गन्ने पर राजनीति चलती रहेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Tuesday, October 18, 2011

खाद्य सुरक्षा का संकट


संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक विश्व की जनसंख्या 7 अरब के मौजूदा स्तर के मुकाबले 2050 में 9.1 अरब हो जाएगी। इस बढ़ी हुई आबादी का पेट भरने के लिए वैश्विक कृषि उत्पादन में 70 फीसदी बढ़ोतरी करनी होगी। चूंकि आबादी में अधिकांश बढ़ोतरी विकासशील देशों में होगी इसलिए इन देशों के कृषि क्षेत्र में हर साल 83 अरब डॉलर निवेश की जरूरत है, लेकिन प्रमुख समस्या यह है कि वैश्विक कृषि निवेश का लक्ष्य पेट भरने से आगे बढ़कर मुनाफा कमाने पर केंद्रित हो चुका है। तेजी से शहर केंद्रित होती दुनिया में भूख और गरीबी से पीडि़त लोगों की 82 फीसदी आबादी विकासशील देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इनमें अफ्रीका और दक्षिण एशिया की स्थिति अत्यंत खराब है। यहां गिरते कृषि उत्पादन की वजह से गरीबों का गुजारा मुश्किल हो रहा है और वे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। यह स्थिति कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश में आ रही लगातार गिरावट के कारण पैदा हुई है। दरअसल 1960 70 के दशक में नए बीजों, उर्वरकों और खेती के उन्नत तरीकों के चलते जो हरित क्रांति आई उससे पैदावार तेजी से बढ़ी और दुनिया भर में यही संदेश गया कि खाद्य संकट खत्म हो चुका है जबकि ऐसा था नहीं। सच्चाई यह थी कि हरित क्रांति का अफ्रीका के ज्यादातर हिस्सों और दक्षिण एशिया के वर्षा वाले क्षेत्रों पर कोई असर नहीं पड़ा। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अस्सी व नब्बे के दशक में विकासशील देशों को कृषि विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय सहायता मिलनी तो दूर जो सहायता मिल रही थी उसमें भी कटौती की गई। उदाहरण के लिए 1980 से 2005 के बीच गरीब देशों को कृषि विकास के लिए दी जाने वाली विदेशी सहायता 17 फीसदी कम हो गई। इसका परिणाम पैदावार में गिरावट के रूप में सामने आया। इसकी भरपाई के लिए विकसित देशों ने कृषि विकास के लिए सहायता देने के बजाय सस्ते आयात का प्रलोभन दिया जिसके परिणामस्वरूप विकासशील देशों में कृषि उपज का आयात तीन गुना बढ़ गया। अंतरराष्ट्रीय सहायता में कमी के साथ-साथ तीसरी दुनिया की सरकारों ने भी कृषि व ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश में रुचि नहीं ली और यह 1970 की तुलना में 75 फीसदी तक घट गया। हाल के दशकों में विकास रणनीति के केंद्र में उच्च आर्थिक विकास दर रही है। यह मान लिया गया उच्च आर्थिक वृद्धि दर से भुखमरी, कुपोषण, गरीबी, असमानता जैसी समस्याएं अपने आप दूर हो जाएंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भारत भी इस वैश्विक लहर से अछूता नहीं रहा। पांचवी पंचवर्षीय योजना में खेती और सहायक क्षेत्रों के लिए कुल योजनागत व्यय का 11.84 फीसदी आवंटित किया गया जो कि 10वीं पंचवर्षीय योजना में 3.86 तथा 11वीं पंचवर्षीय योजना में 3.2 फीसदी ही रह गया। कृषि में घटते निवेश का परिणाम उत्पादन में गिरावट के रूप में सामने आया। विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों से सब्सिडीयुक्त कृषि उत्पादों का आयात तेजी से बढ़ा। जब आयातित खाद्य पदार्थ सस्ते पड़ने लगे तो तीसरी दुनिया के देशों ने स्थानीय कृषि विकास पर ध्यान देना बंद कर दिया, लेकिन आगे चलकर यह भूल आत्मघाती साबित हुई। चावल के मामले में हैती 1980 90 के दशक में आत्मनिर्भर था, लेकिन आज वह पूरी तरह आयात पर निर्भर है। मैक्सिको के मक्के पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा हो गया है। ये कंपनियां जमाखोरी के जरिए कीमतों में मनमानी बढ़ोतरी कर रही हैं जिससे आम मैक्सिकोवासियों के लिए टारटिला मक्के की रोटी दुर्लभ होती जा रही है। दुर्भाग्यवश नवउदारवादी कृषि विशेषज्ञ खेती-किसानी के व्यवसायीकरण पर जोर दे रहे हैं। वह जीएम-हाइब्रिड बीज, महंगे उपकरण, रसायन व उर्वरक, खाद्य पदार्थो के मुक्त व्यापार जैसे उपाय सुझा रहे हैं, लेकिन ये पद्धतियां न केवल महंगी व पर्यावरण के प्रतिकूल हैं अपितु दुनिया के करोड़ों किसानों की पहुंच से दूर भी हैं। फिर ये उपाय तात्कालिक राहत भले ही दें दीर्घकालिक रूप से खाद्य सुरक्षा को नष्ट करने वाली हैं। हां, इससे एग्रीबिजनेस कंपनियों का कारोबार अवश्य फलेगा। इससे भूख की समस्या का समाधान कदापि नहीं होगा, क्योंकि इनका मूल उद्देश्य तिजोरी भरना होता है। जरूरत इस बात की है कि दुनिया भर की सरकारें कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाएं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) हिसार का नतीजा अनुमान के अनुरूप ही है, लेकिन यह तय कर पाना मुश्किल है कि कांग्रेस की हार में टीम अन्ना का कितना योगदान है? अफ्रीका और दक्षिण एशिया की स्थिति अत्यंत खराब है। यहां गिरते कृषि  उत्पादन की वजह से गरीबों का गुजारा मुश्किल हो रहा है

Monday, October 17, 2011

पंजाब, केरल जैसे राज्यों में घटी खाद्यान्न पैदावार



देश में पिछले पांच साल में एक तरफ जहां पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल जैसे प्रमुख उत्पादक प्रदेशों की देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में हिस्सेदारी घटी है वहीं दूसरी तरफ राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड जैसे राज्यों का योगदान बढ़ा है। उद्योग मंडल पीएचडी चैंबर के अध्ययन के अनुसार, ‘पिछले पांच साल में राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड तथा कर्नाटक में कृषि उत्पादन में उच्च वृद्धि दर्ज की गई है और इनकी देश के कुल अनाज उत्पादन में हिस्सेदारी 2002-06 में 17.4 प्रतिशत से बढ़कर 2007-11 में 19 प्रतिशत हो गई।पीएचडी चैंबर रिसर्च ब्यूरो के अध्ययन के मुताबिक, ‘वहीं दूसरी तरफ पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश जैसे उच्च कृषि उत्पादक राज्यों की देश के कुल अनाज उत्पादन में हिस्सेदारी आलोच्य अवधि में 41 प्रतिशत से घटकर 38 फीसद रही।
पिछले पांच वर्ष की अवधि के दौरान झारखंड में खाद्यान्न उत्पादन में 40 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई। राज्य में वर्ष 2002-06 के दौरान जहां औसतन 22.8 लाख टन सालाना खाद्यान्न का उत्पादन हुआ वहीं 2007-11 में यह बढ़कर औसतन 32 लाख टन सालाना हो गया। इसी प्रकार, राजस्थान में 2007-11 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन 21.84 प्रतिशत बढ़कर औसतन 1.54 करोड़ टन सालाना रहा जो 2002-06 के दौरान यह औसतन 1.26 करोड़ टन सालाना था। आलोच्य अवधि में महाराष्ट्र और कर्नाटक में खाद्यान उत्पादन में क्र मश: 22.3 प्रतिशत तथा 24.09 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। महाराष्ट्र में खाद्यान्न उत्पादन 2002-06 के दौरान औसतन 1.09 करोड़ टन सालाना था जो 2007-11 के दौरान बढ़कर 1.34 करोड़ टन हो गया। कर्नाटक में खाद्यान्न उत्पादन आलोच्य अवधि में 91.8 लाख टन से बढ़कर 1.14 करोड़ टन हो गया। अध्ययन में कहा गया है, ‘‘पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश जैसे खाद्यान्न के प्रमुख उत्पादक राज्यों में अब हरित क्रांति का प्रभाव मद्धिम पड़ने लगा है। इन राज्यों में खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि दर अब स्थिर अवस्था में पहुंच गयी है।