Tuesday, October 18, 2011

खाद्य सुरक्षा का संकट


संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक विश्व की जनसंख्या 7 अरब के मौजूदा स्तर के मुकाबले 2050 में 9.1 अरब हो जाएगी। इस बढ़ी हुई आबादी का पेट भरने के लिए वैश्विक कृषि उत्पादन में 70 फीसदी बढ़ोतरी करनी होगी। चूंकि आबादी में अधिकांश बढ़ोतरी विकासशील देशों में होगी इसलिए इन देशों के कृषि क्षेत्र में हर साल 83 अरब डॉलर निवेश की जरूरत है, लेकिन प्रमुख समस्या यह है कि वैश्विक कृषि निवेश का लक्ष्य पेट भरने से आगे बढ़कर मुनाफा कमाने पर केंद्रित हो चुका है। तेजी से शहर केंद्रित होती दुनिया में भूख और गरीबी से पीडि़त लोगों की 82 फीसदी आबादी विकासशील देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इनमें अफ्रीका और दक्षिण एशिया की स्थिति अत्यंत खराब है। यहां गिरते कृषि उत्पादन की वजह से गरीबों का गुजारा मुश्किल हो रहा है और वे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। यह स्थिति कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश में आ रही लगातार गिरावट के कारण पैदा हुई है। दरअसल 1960 70 के दशक में नए बीजों, उर्वरकों और खेती के उन्नत तरीकों के चलते जो हरित क्रांति आई उससे पैदावार तेजी से बढ़ी और दुनिया भर में यही संदेश गया कि खाद्य संकट खत्म हो चुका है जबकि ऐसा था नहीं। सच्चाई यह थी कि हरित क्रांति का अफ्रीका के ज्यादातर हिस्सों और दक्षिण एशिया के वर्षा वाले क्षेत्रों पर कोई असर नहीं पड़ा। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अस्सी व नब्बे के दशक में विकासशील देशों को कृषि विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय सहायता मिलनी तो दूर जो सहायता मिल रही थी उसमें भी कटौती की गई। उदाहरण के लिए 1980 से 2005 के बीच गरीब देशों को कृषि विकास के लिए दी जाने वाली विदेशी सहायता 17 फीसदी कम हो गई। इसका परिणाम पैदावार में गिरावट के रूप में सामने आया। इसकी भरपाई के लिए विकसित देशों ने कृषि विकास के लिए सहायता देने के बजाय सस्ते आयात का प्रलोभन दिया जिसके परिणामस्वरूप विकासशील देशों में कृषि उपज का आयात तीन गुना बढ़ गया। अंतरराष्ट्रीय सहायता में कमी के साथ-साथ तीसरी दुनिया की सरकारों ने भी कृषि व ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश में रुचि नहीं ली और यह 1970 की तुलना में 75 फीसदी तक घट गया। हाल के दशकों में विकास रणनीति के केंद्र में उच्च आर्थिक विकास दर रही है। यह मान लिया गया उच्च आर्थिक वृद्धि दर से भुखमरी, कुपोषण, गरीबी, असमानता जैसी समस्याएं अपने आप दूर हो जाएंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भारत भी इस वैश्विक लहर से अछूता नहीं रहा। पांचवी पंचवर्षीय योजना में खेती और सहायक क्षेत्रों के लिए कुल योजनागत व्यय का 11.84 फीसदी आवंटित किया गया जो कि 10वीं पंचवर्षीय योजना में 3.86 तथा 11वीं पंचवर्षीय योजना में 3.2 फीसदी ही रह गया। कृषि में घटते निवेश का परिणाम उत्पादन में गिरावट के रूप में सामने आया। विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों से सब्सिडीयुक्त कृषि उत्पादों का आयात तेजी से बढ़ा। जब आयातित खाद्य पदार्थ सस्ते पड़ने लगे तो तीसरी दुनिया के देशों ने स्थानीय कृषि विकास पर ध्यान देना बंद कर दिया, लेकिन आगे चलकर यह भूल आत्मघाती साबित हुई। चावल के मामले में हैती 1980 90 के दशक में आत्मनिर्भर था, लेकिन आज वह पूरी तरह आयात पर निर्भर है। मैक्सिको के मक्के पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा हो गया है। ये कंपनियां जमाखोरी के जरिए कीमतों में मनमानी बढ़ोतरी कर रही हैं जिससे आम मैक्सिकोवासियों के लिए टारटिला मक्के की रोटी दुर्लभ होती जा रही है। दुर्भाग्यवश नवउदारवादी कृषि विशेषज्ञ खेती-किसानी के व्यवसायीकरण पर जोर दे रहे हैं। वह जीएम-हाइब्रिड बीज, महंगे उपकरण, रसायन व उर्वरक, खाद्य पदार्थो के मुक्त व्यापार जैसे उपाय सुझा रहे हैं, लेकिन ये पद्धतियां न केवल महंगी व पर्यावरण के प्रतिकूल हैं अपितु दुनिया के करोड़ों किसानों की पहुंच से दूर भी हैं। फिर ये उपाय तात्कालिक राहत भले ही दें दीर्घकालिक रूप से खाद्य सुरक्षा को नष्ट करने वाली हैं। हां, इससे एग्रीबिजनेस कंपनियों का कारोबार अवश्य फलेगा। इससे भूख की समस्या का समाधान कदापि नहीं होगा, क्योंकि इनका मूल उद्देश्य तिजोरी भरना होता है। जरूरत इस बात की है कि दुनिया भर की सरकारें कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाएं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) हिसार का नतीजा अनुमान के अनुरूप ही है, लेकिन यह तय कर पाना मुश्किल है कि कांग्रेस की हार में टीम अन्ना का कितना योगदान है? अफ्रीका और दक्षिण एशिया की स्थिति अत्यंत खराब है। यहां गिरते कृषि  उत्पादन की वजह से गरीबों का गुजारा मुश्किल हो रहा है

Monday, October 17, 2011

पंजाब, केरल जैसे राज्यों में घटी खाद्यान्न पैदावार



देश में पिछले पांच साल में एक तरफ जहां पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल जैसे प्रमुख उत्पादक प्रदेशों की देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में हिस्सेदारी घटी है वहीं दूसरी तरफ राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड जैसे राज्यों का योगदान बढ़ा है। उद्योग मंडल पीएचडी चैंबर के अध्ययन के अनुसार, ‘पिछले पांच साल में राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड तथा कर्नाटक में कृषि उत्पादन में उच्च वृद्धि दर्ज की गई है और इनकी देश के कुल अनाज उत्पादन में हिस्सेदारी 2002-06 में 17.4 प्रतिशत से बढ़कर 2007-11 में 19 प्रतिशत हो गई।पीएचडी चैंबर रिसर्च ब्यूरो के अध्ययन के मुताबिक, ‘वहीं दूसरी तरफ पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश जैसे उच्च कृषि उत्पादक राज्यों की देश के कुल अनाज उत्पादन में हिस्सेदारी आलोच्य अवधि में 41 प्रतिशत से घटकर 38 फीसद रही।
पिछले पांच वर्ष की अवधि के दौरान झारखंड में खाद्यान्न उत्पादन में 40 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई। राज्य में वर्ष 2002-06 के दौरान जहां औसतन 22.8 लाख टन सालाना खाद्यान्न का उत्पादन हुआ वहीं 2007-11 में यह बढ़कर औसतन 32 लाख टन सालाना हो गया। इसी प्रकार, राजस्थान में 2007-11 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन 21.84 प्रतिशत बढ़कर औसतन 1.54 करोड़ टन सालाना रहा जो 2002-06 के दौरान यह औसतन 1.26 करोड़ टन सालाना था। आलोच्य अवधि में महाराष्ट्र और कर्नाटक में खाद्यान उत्पादन में क्र मश: 22.3 प्रतिशत तथा 24.09 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। महाराष्ट्र में खाद्यान्न उत्पादन 2002-06 के दौरान औसतन 1.09 करोड़ टन सालाना था जो 2007-11 के दौरान बढ़कर 1.34 करोड़ टन हो गया। कर्नाटक में खाद्यान्न उत्पादन आलोच्य अवधि में 91.8 लाख टन से बढ़कर 1.14 करोड़ टन हो गया। अध्ययन में कहा गया है, ‘‘पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश जैसे खाद्यान्न के प्रमुख उत्पादक राज्यों में अब हरित क्रांति का प्रभाव मद्धिम पड़ने लगा है। इन राज्यों में खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि दर अब स्थिर अवस्था में पहुंच गयी है।