Friday, October 5, 2012

अपनी जमीन का सवाल




 भरत डोगरा 3 अक्टूबर को ग्वालियर से एक विशाल जन-समूह की पदयात्रा आरंभ हुई। 60 हजार से अधिक पदयात्रियों के इस कारवां में आगे चलकर एक लाख लोगों तक के जुड़ने की उम्मीद है। 26 दिनों में लगभग 350 किलोमीटर की दूरी तय कर यह विशाल जनसमूह दिल्ली पहुंचेगा। यह पदयात्रा भूमि-सुधारों के जन-सत्याग्रह के तहत की जा रही है। इस आंदोलन की मांग है कि भूमि सुधार के भुला दिए गए एजेंडे को सरकार की कृषि और ग्रामीण विकास नीतियों के केंद्र में लाया जाए, भूमिहीनों को भूमि दी जाए और किसानों को भूमिहीन बनने से रोका जाए। विशेष तौर पर आदिवासियों की भूमि हकदारी का मुद्दा इसमें अधिक मजबूती से उठाया गया है। इसकी एक वजह यह भी है कि जन-सत्याग्रह में एकता परिषद की सबसे प्रमुख भूमिका है और इस जन-संगठन का आदिवासी क्षेत्रों में अधिक व्यापक आधार है। इससे पहले कई पदयात्राओं के दौरान मध्य प्रदेश, बिहार, ओडिशा आदि राज्यों में एकता परिषद की निर्धन वर्ग और आदिवासियों की भूमि हकदारी संबंधी मांगों को राज्य सरकारों ने स्वीकार किया था। इससे कई परिवारों को राहत भी मिली थी, लेकिन साथ ही नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के इस दौर में किसानों और आदिवासियों की भूमि छिनने की प्रक्रिया लगातार और तेज होती गई। सेज (विशेष आर्थिक जोन) जैसे नए कानून बनने से इस प्रक्रिया को बढ़ावा मिला। इस स्थिति में भूमि सुधारों को अधिक व्यापक स्तर पर मजबूत बनाने के लिए एकता-परिषद ने 2007 में जनादेश नाम का एक आंदोलन चलाया, जिसके अंतर्गत 25,000 निर्धन वर्ग के प्रतिनिधियों ने ग्वालियर से दिल्ली तक की पदयात्रा की। थके हुए यात्री दिल्ली के रामलीला मैदान में पहंुचे तो सरकार से वार्ता में तेजी आई। सरकार ने उस समय कई वादे तो कर दिए, पर उन्हें पूरा नहीं किया। यहां तक कि भूमि सुधार परिषद की कोई मीटिंग भी ठीक से नहीं की गई। केंद्र सरकार की इस लापरवाही से परेशान होकर एकता परिषद ने और भी व्यापक स्तर के आंदोलन जन-सत्याग्रह की तैयारी शुरू कर दी। पहले देश के लगभग 350 जिलों में जन-संवाद यात्राएं की गई। व्यापक स्तर पर जनसंपर्क किया गया और अहिंसक बदलाव में विश्वास रखने वाले लगभग 2000 जन-संगठनों का सहयोग हासिल किया गया। उसके बाद ही दूसरी ग्वालियर दिल्ली पदयात्रा शुरू हुई है। यह निर्विवाद सत्य है कि नव-उदारवाद की आर्थिक नीतियों के दो दशकों में भूमि-सुधारों की उपेक्षा हुई है, इन्हें पीछे झकेला गया है। यह कड़वी सच्चाई कई सरकारी दस्तावेजों में भी स्वीकार की जा रही है। 10वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में योजना आयोग ने कहा है कि भूमि पुनर्वितरण के संदर्भ में नौवीं योजना के अंत में स्थिति वही थी जो योजना के आरंभ में थी। दूसरे शब्दों में नौवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इस क्षेत्र में कोई प्रगति ही नहीं हुई। यह दस्तावेज स्पष्ट कहता है कि छपाई गई भूमि का पता लगाने और उसे ग्रामीण भूमिहीन निर्धन परिवारों में वितरण करने में कोई प्रगति नहीं हुई। यही नहीं, आगे यह दस्तावेज स्वीकार करता है, 1990 के दशक के मध्य में लगता है कि भूमि-सुधारों को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। हाल के समय में राज्य सरकारों की पहल इससे संबंधित रही है कि भूमि कानूनों का उदारीकरण हो, ताकि बड़े पैमाने की कॉरपोरेट कृषि को बढ़ावा मिल सके। भूमि सुधारों का यह पक्ष हमेशा से ही सबसे महत्वपूर्ण रहा है कि भूमिहीन ग्रामीण परिवारों विशेषकर खेतिहर मजदूर परिवारों में भूमि वितरण किया जाए। यह उद्देश्य आज भी सबसे महत्वपूर्ण है कि भूमिहीन को किसान बनाया जाए, पर इसके साथ ही यह नया खतरा तेजी से बढ़ने लगा है कि बहुत से किसानों की भूमि छिनने की स्थिति कई कारणों से उत्पन्न हो रही है। इन पर रोक लगाना भी बहुत जरूरी है। इस तरह भूमि-सूधारों का यह दो तरफा एजेंडा है कि भूमिहीन को किसान बनाया जाए और किसान को भूमिहीन बनने से रोका जाए। कुल मिलाकर लगभग 2-3 करोड़ तक भूमिहीन व सीमान्त किसान परिवारों को कृषि-भूमि और आवास-भूमि वितरण की सम्यक योजना बनानी चाहिए। एक परिवार को औसतन कम से कम दो एकड़ भूमि अवश्य मिलनी चाहिए। इसके साथ ही लघु सिंचाई, भूमि व जल संरक्षण, भूमि समतलीकरण संबंधी सहयोग मिलना भी जरूरी है। तभी वे सफल किसान बन सकेंगे। इसके अलावा गांववासियों के जल संसाधनों की रक्षा करते हुए जल-जंगल और जमीन की समग्र सोच को लेकर आगे बढ़ना चाहिए। जरूरतमंद लाखों परिवारों को कृषि भूमि सुनिश्चित करवाने का एक अतिमहत्वपूर्ण कार्य सरकार तुरंत कर सकती है, यदि वह वन अधिकार कानून के भटकाव को रोककर इसका सही क्रियान्वयन सुनिश्चित कर दे। यह कानून तो पहले ही बन चुका है, सरकार को तो बस इतना करना है कि इसका समुचित क्रियान्वयन सुनिश्चित कर दे। दूसरी ओर किसानों को भूमिहीन बनने से रोकने के प्रयास भी बराबरप रूप से जरूरी हैं। आज कुछ स्थानों पर किसानों की उपेक्षा और छोटे किसानों के हितों के प्रतिकूल नीतियों की मार इतनी बढ़ गई है कि उनका जीना मुहाल हो गया है। इसलिए छोटे किसानों के हितों को ध्यान में रखकर नीतियां अपनाकर इन किसानों की आजीविका की रक्षा अवश्य ही की जा सकती है। इसके अतिरिक्त सरकार को उन कानूनों को बदलना चाहिए जो किसानों को उपजाऊ भूमि से वंचित करने में अन्यायपूर्ण साबित हुए हैं। भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अन्यायपूर्ण पक्षों को बदलने की जरूरत सरकार ने खुद स्वीकार की है। सेज या विशेष आर्थिक क्षेत्र के कानून पर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है। इसी तरह वन्य जीव संरक्षण जैसे कानून में इस तरह बदलाव होना चाहिए ताकि किसान विस्थापित होने के बजाय वन्य जीवन संरक्षण से जुड़ सकें। भूमि-सुधारों को हमारे देश में अपेक्षित सफलता न मिल पाने का एक प्रमुख कारण यह भी रहा है कि जब भूमिहीन अपने अधिकारों की आवाज उठाते हैं तो उन पर बड़े भूस्वामी वर्ग के साथ-साथ पुलिस-प्रशासन का रवैया भी अक्सर दमन-उत्पीड़न का ही रहता है। सरकार को इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर कड़े निर्देश जारी करने चाहिए कि भूमि सुधारों संबंधी या इससे मिलती-जुलती मांगों के लिए जो भी आंदोलन करते हैं, उनके प्रति दमन की नीति नहीं अपनानी चाहिए। जन-सत्याग्रह राष्ट्रव्यापी स्तर का ऐसा प्रयास है, जिससे भूमि-सुधारों के उपेक्षित एजेंडे को नवजीवन मिल सकता है। इसमें समग्रता से भूमिहीनों, आदिवासियों, किसानों, मछुआरों, घुमंतुओं, शहरी आवासहीनों और हाशिए पर धकेले गए समुदायों की जरूरी मांगों को समाहित किया गया है। साथ में महिला किसानों की समान हकदारी को भी बुलंद किया है। इस प्रयास को व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Dainik Jagran National Edition 5-10-2012  कृषि Pej -9 

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