Thursday, November 17, 2011

कैसे दूर होगा गन्ना किसानों का गम


महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के बीच हजारों किलोमीटर का फासला भले ही हो , लेकिन दोनों की त्रासदी एक-सी है। दोनों की नियति की कमान शासन के हाथ में है। शासन हर साल सर्दियों की शुरुआत से पहले लाखों गन्ना किसानों को अपने पैमाने पर कसता है। उन्हें सड़कों पर उतरवाता है। उन पर लाठी, गोलियां चलवाता है और अंत में काफी हद तक उनकी मांग मान भी लेता है। हर साल की यही कहानी है। इस साल यह महाराष्ट्र में दोहराई जा रही है तो उत्तर प्रदेश के किसानों को इसलिए राहत है, क्योंकि कुछ ही महीनों में यहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। यह अजीब त्रासदी है कि महाराष्ट्र के जिन गन्ना किसानों को बीते साल 200 रुपये क्विंटल गन्ने का मिला, उन्हें इस साल एक बार फिर से इसी मूल्य 235 रुपये प्रति क्विंटल को पाने के लिए सड़कों पर उतरना पड़ रहा है। स्वाभिमानी क्षेत्रकारी संगठन के राजू शेट्टी के नेतृत्व में हजारों किसान कृषि मंत्री शरद पवार के गृह जिले में पांच दिनों तक डेरा डाले रहे। गन्ना किसानों की यह आग पूरे पश्चिमी महाराष्ट्र में फैल गई और इसकी आंच दिल्ली तक भी महसूस की गई। महाराष्ट्र में जल्द ही स्थानीय निकाय (निगम, पालिका और परिषदों) के चुनाव होने जा रहे हैं। इसलिए अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए शिवसेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, भाजपा और यहां तक कि कांग्रेस भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को एक कोने में करने के लिए कूद पड़ी है। आंदोलन राजनीतिक रंग न पकड़ ले, इसके लिए राकांपा की सांसद और शरद पवार की पुत्री सुप्रिया सुले और राज्य के सहाकारिता मंत्री हर्षवर्धन पाटील आंदोलनरत किसानों के संपर्क में हैं। बहरहाल, जो भी हो, यह मामला किसानों से जुड़ा है। राजनीतिक दल इसका फायदा अपने-अपने हिसाब से उठाना चाहते हैं तो वे जानें, लेकिन यह महाराष्ट्र के 10 लाख गन्ना किसानों के लिए रोजी-रोटी का सवाल है और इसीलिए वे सड़कों पर उतरे हुए हैं। ऐसा नहीं है कि राज्य के गन्ना किसान इसी साल गन्ने के उचित मूल्य को लेकर सड़कों पर उतरे हैं। पिछले साल भी उनकी सर्दियां महाराष्ट्र की सड़कों पर ही कटी थीं। बीते साल भी केंद्र और राज्य सरकार ने क्रमश: गन्ने का खरीद मूल्य 145 रुपये प्रति क्विंटल और 137 रुपये प्रति क्विंटल तय किया था। राज्य के गन्ना किसानों ने जब आंदोलन किया तो राज्य सरकार किसानों को 200 रुपये प्रति क्विंटल तक देने को मान गई। लेकिन इस साल एक बार केंद्र और राज्य सरकार ने गन्ना किसानों को परेशान करने की ठान ली है। जिस राज्य सरकार ने बीते साल गन्ना किसानों को 200 रुपये प्रति क्विंटल तक दिया, अब वह किसानों को 140 रुपये प्रति क्विंटल देने की बात कर रही है। इतनी महंगाई, ईधन के बढ़ते दामों और मनरेगा योजना के कारण महंगी होती मजदूरी के बीच सरकार किसानों से कह रही है कि वह अपनी फसल दो साल पुराने रेट पर उसे बेचें। सरकार और चीनी मिल मालिकों का कहना है कि किसानों की मांग 235 रुपये प्रति क्विंटल मांग के मुताबिक गन्ना खरीदा गया तो बाजार में चीनी के दामों में पांच से सात रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी हो जाएगी। अब सवाल है कि कैसे हो जाएंगे? एक साल पहले जब चीनी 50 रुपये प्रति किलोग्राम गई थी तो क्या सरकार ने किसानों से 500 रुपये क्विंटल में गन्ना खरीदा था। नहीं तो फिर अभी-अभी क्यों चीनी की सिरदर्दी किसानों के सिर मढ़ी जा रही है। दूसरा, सरकार और चीनी मिल मालिकों की यह दलील भी सच्चाई से कोसों दूर है। केंद्र सरकार के अगर एफआरपी 145 रुपये की बात करें तो बाजार में चीनी की कीमत अधिक से अधिक 15 रुपये प्रति किलो से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, लेकिन बाजार में आज की तारीख में चीनी औसतन 35 रुपये प्रति किलोग्राम बिक रही है। इस हिसाब से तो गन्ना किसानों को गन्ने का 350 रुपये प्रति क्विंटल मिलना चाहिए, क्योंकि एक क्विंटल गन्ने में औसतन 9.5 किलोग्राम चीनी निकलती है। चीनी की इन कीमतों पर हल्ला मचाकर भारी मुनाफा कमाने वाली चीनी मिलें यह भूल जाती हैं कि एक क्विंटल में 9.5 किलोग्राम चीनी के अलावा इन मिलों को गन्ने की इसी मात्रा से शीरा, खोई और मैली सह-उत्पाद के रूप में मिलती है। जिन्हें खुले बाजार में बेचकर ये मिलें लाखों तक कमाती हैं। इनमें से कुछ मिलें तो अब खोई से बिजली उत्पादन भी करने लगी हैं। सीरे से शराब बनाने में और इसे तेल उत्पादों में मिलाने से चीनी मिलों को हर साल कितना फायदा होता है, यहां किसी को बताने की जरूरत नहीं है। महाराष्ट्र में 168 चीनी मिलें हैं। इनमें से 121 सहकारी क्षेत्र में और 47 निजी क्षेत्र में है। देश में महाराष्ट्र ही एकमात्र ऐसा राज्य हैं, जहां गन्ने जैसी नकदी फसल में किसानों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सहकारिता को अंजाम तक पहुंचाया गया है। लेकिन आज यह सहकारिता ही किसान हितों के आड़े आने लगी है। राज्य के सहकारी बैंकों ने चीनी मिलों को निर्देश दिए हैं कि अगर किसानों से 137.5 रुपये प्रति क्विंटल से ज्यादा दर में गन्ना खरीदा गया तो वे ऐसी मिलों को ऋण उपलब्ध नहीं कराएंगे। महाराष्ट्र के सहकारिता मंत्री हर्षवर्धन पाटील और इस क्षेत्र के कद्दावर नेता शरद पवार को इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा कि सहकारी बैंक किसानों की मदद के लिए हैं या उनकी मुश्किलें और बढ़ाने के लिए। स्वाभिमानी क्षेत्रकारी संगठन के राजू शेट्टी के साथ आंदोलन कर रहे हजारों किसानों की मांगें कल को मान भी ली जाती हैं, लेकिन यह कौन-सा तरीका है कि राज्य के गन्ना किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य लेने के लिए हर साल सड़कों पर उतरना पड़ता है। यह समय उसके फसल-चक्र में सबसे कीमती समय होता है, जब वह अपनी फसल को चीनी मिलों के दरवाजे तक पहुंचाता है। ठीक इसी समय अपनी फसल को खेत में ही छोड़ वह सड़कों पर उसका सही मूल्य पाने के लिए सरकार से लड़ रहा होता है। यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि गन्ने का क्या मूल्य हो, इसका निर्धारण केंद्र और राज्य सरकार आखिर कब तक करती रहेगी। क्यों सरकार की एजेंसी फसल उत्पादन मूल्यांकन आयोग फसलों का मूल्य निर्धारण करती हैं। क्यों नहीं यह अधिकार गन्ना किसानों को दिया जाता है कि वह अपनी फसल की उपज का निर्धारण खुद करें। जब बाजार में जूते सीने वालों, बाल काटने वालों से लेकर मोटरसाइकिल और कार बेचने वालों को यह आजादी है कि वह अपने उत्पाद का मूल्य खुद निर्धारित करें तो गन्ना किसान को यह अधिकार क्यों नहीं दिया गया है। जब तक महाराष्ट्र में ही नहीं, देशभर के गन्ना किसानों को उनकी फसल का मूल्य निर्धारण करने का अधिकार नहीं दिया जाता, तब तक गन्ने पर राजनीति चलती रहेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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