Thursday, November 17, 2011

किसान तय करें गन्ने की कीमत


आगामी विधान सभा चुनावों को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने चालू गन्ना सीजन के लिए गन्ने के राज्य परामर्श मूल्य यानी एसएपी में 40 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी कर दी है। इसके चलते राज्य में गन्ने की विभिन्न किस्मों का एसएपी 235 से 250 रुपये प्रति क्विंटल हो गया। लेकिन निजी चीनी मिलों के संगठन इस्मा ने सरकार के इस फैसले का विरोध करते हुए कहा है कि यदि चीनी के दाम नहीं बढ़े तो जल्दी ही गन्ना किसानों के बकाया की स्थिति पैदा हो सकती है। दरअसल, उत्तर प्रदेश में चीनी की औसत रिकवरी (9.5 फीसदी) को देखें तो नए मूल्य पर चीनी उत्पादन की लागत 31 से 33 रुपये प्रति किलो आएगी, जबकि राज्य में इस समय चीनी का खुदरा मूल्य 31 से 32 रुपये प्रति किलो चल रहा है। इस्मा के मुताबिक जब यह मूल्य 36 रुपये प्रति किलो होगा, तभी गन्ना किसानों को भुगतान संभव हो पाएगा। इसीलिए इस्मा ने मौजूदा एसएपी पर गन्ना खरीदने में असमर्थता जताते हुए अदालत जाने की घोषणा की है। दूसरी ओर किसान संगठन गन्ने के समर्थन मूल्य में 40 रुपये की बढ़ोतरी को नाकाफी बता रहे हैं। उनका कहना है कि खाद, बीज, सिंचाई, कीटनाशक के साथ यदि मजदूरी का खर्च जोड़ दिया जाए तो गन्ना पैदा करने की लागत सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य से कहीं ज्यादा आएगी। उत्तर प्रदेश में गन्ने के एसएपी में बढ़ोतरी को देखते हुए महाराष्ट्र के किसानों ने भी गन्ने का दाम 235 रुपये प्रति क्विंटल करने की मांग को लेकर आंदोलन छेड़ दिया। पांच दिनों तक चले आंदोलन के बाद किसानों व सरकार के बीच राज्य में तीन अलग-अलग जगहों में अलग-अलग समर्थन मूल्य (एसएपी) लागू करने पर सहमति बनी। इसके तहत कोल्हापुर, सतारा, सांगली के लिए 205 रुपये, पुणे, शोलापुर, अहमदनगर जिलों के लिए 185 रुपये और मराठवाड़ा व विदर्भ के लिए 180 रुपये प्रति क्विंटल की दर से गन्ने की खरीद की जाएगी। दरअसल, चीनी के मामले में सरकारी नीतियों के पीछे जहां दूरदर्शिता का अभाव रहा है, वहीं इस मुद्दे पर लंबे समय से राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। जब चुनाव सिर पर होते हैं, तब सरकारों को गन्ना किसानों की याद आती है और चुनाव बीतते ही सरकारें मिल मालिकों की शुभचिंतक बन जाती हैं। देखा जाए तो उदारीकण के दो दशकों के बाद भी गन्ना और चीनी ऐसे कृषि उत्पाद हैं, जो सबसे ज्यादा नियंत्रित हैं। इनके उत्पादन और बिक्री के हर कदम पर सरकार की दखलंदाजी है। इसके चलते ही किसान और चीनी मिलों के बीच गन्ना मूल्य को लेकर एक अघोषित युद्ध चलता रहता है। इसमें जब बाजी मिलों के हाथ में होती है तो किसानों को गन्ने के वाजिब दाम के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है और जब किसान फायदे में होते हैं तो मिलें बीमार हो जाती हैं। चीनी उद्योग के संकट की पड़ताल की जाए तो मिल मालिकों की केवल अपने हितों के लिए की जा रही लामबंदी ही मुख्य कारण नजर आएगी, क्योंकि चीनी उद्योग यह चाहता है कि चीनी और उसके कच्चे माल गन्ने दोनों का मूल्य निर्धारित करने का अधिकार उसे मिले। गन्ने को 11 से 13 महीने तक अपने खेत में तैयार करने वाले किसान को यह हक देने के लिए चीनी उद्योग तैयार नहीं हैं। यह काम उसके लिए केंद्र व राज्य सरकारें करती हैं, लेकिन राज्यों की ओर से तय कीमत यदि उद्योग के मुताबिक नहीं होती तो उसे वे न्यायालय में चुनौती देने से नहीं चूकता। चीनी उद्योग अपने पक्ष में तर्क देता है कि ज्यादा पैदावार लेने की होड़ और रसायनों के इस्तेमाल से गन्ने में पानी की मात्रा बढ़ी है, जिससे चीनी की रिकवरी कम होती जा रही है। ऐसे में गन्ने के बढ़ते मूल्य और गिरती रिकवरी से मिल चलाना घाटे का सौदा हो गया है। दूसरी ओर किसान संगठनों का कहना है कि अब केवल चीनी ही मिलों की आय का स्त्रोत नहीं रह गई है। मिलें गन्ने व चीनी के उप-उत्पाद से अल्कोहल, कागज, बिजली आदि बना रही हैं, जिससे उनके मुनाफे में भारी बढ़ोतरी हुई है। अत: गन्ना मूल्य निर्धारित करते समय चीनी मिलों के इस मुनाफे की भी गणना की जानी चाहिए। देखा जाए तो चीनी और उप-उत्पादों की कीमतों के अनुपात में गन्ना मूल्य निर्धारण ही इस समस्या का स्थायी उपाय है। अति उत्पादन की स्थिति में किसानों का बकाया न बढ़े, इसके लिए सरकार को लाभकारी मूल्य पर चीनी निर्यात के मौकों का फायदा उठाने में नहीं चूकना चाहिए। (लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं)

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