Monday, May 9, 2011

मानसून नहीं, सरकारी नीति से है खेती की दुर्दशा


इस साल मानसून के अच्छे होने का अनुमान मौसम विभाग द्वारा लगाया गया है लेकिन इससे खाद्य पदार्थो की मुद्रास्फीति नहीं घटने वाली। अहम सवाल खाद्य पदार्थो के उत्पादन और वितरण को लेकर सरकारी नीतियों का है। सही नीतियों के अभाव और कुप्रबंधन ने देश को खाद्यान्न संकट के कगार पर ला खड़ा किया है। इसके लिए पूर्ववर्ती एनडीए और मौजूदा यूपीए, दोनों सरकारें दोषी हैं। अनाजों व दालों की जितनी मांग है उस अनुपात में आपूर्ति घटती जा रही है। मुद्रास्फीति का पारा रिजर्व बैंक की कोशिशों के बाद भी खास नीचे नहीं आ रहा। खाद्यान्न उत्पादन इतना घटा है कि अनाज की कीमत में प्रतिवर्ष 10 प्रतिशत से अधिक का इजाफा देखा जा रहा है। 5 सालों में गेहूं की कीमतों में 25 फीसद तक की वृद्धि हुई है। खाद्यान्न उत्पादन 10 सालों से 210 बिलियन टन पर रुका हुआ है। इस दौरान आबादी करोड़ों में बढ़ी है। खाद्यान्न संकट के पीछे ग्लोबल सप्लाई गड़बड़ाना भी एक पक्ष है किंतु असली समस्या देश के भीतर ही है। हमने कृषि को उतनी तरजीह नहीं दी जितनी जरूरी थी। मानसून को दोष देकर कमियां छुपाते रहे। आज कृषि क्षेत्र में विकास दर महज दो फीसद है जबकि देश की वास्तविक श्रमशक्ति का लगभग 55 प्रतिशत हिस्सा अब भी कृषि पर ही निर्भर है। देश में खाद्यान्न संकट दूर करने के जो फौरी उपाय अपनाए जा रहे हैं उनसे तात्कालिक फायदा ही हो सकता है। ऐसी समस्या आए ही नहीं, इसके लिए दीर्घकालिक नीति बनानी होगी। किसानों के लिए केवल कर्जमाफी जैसे लुभावने कार्य न कर उनकी वास्तविक बेहतरी के प्रयास करने होंगे। अनाज उत्पादन को देश की प्राथमिकता बनानी होगी। इस रास्ते के स्पीडब्रेकर भले ‘सेज’ ही क्यों न हों, उनका खात्मा करना जरूरी है। पहली हरित क्रांति के दुष्प्रभाव से बचते हुए हमें दूसरी हरित क्रांति के लिए खुद को तैयार करना होगा। सरकार को चाहिए कि वह किसानों की मूल समस्या दूर करने को लक्ष्य बनाए। सिंचाई, खाद और अच्छे बीज की कमी, भंडारण सुविधा का अभाव, मौसम की मार, परिवहन की समस्या, बीमा की अच्छी व्यवस्था जैसे पहलुओं पर गम्भीरता से ध्यान दे। मुनाफाखोरी की समस्या दिनोंदिन विकराल हो रही है। कांट्रेक्ट और कारपोरेट खेती के नुकसान वाले पक्ष पर भी ध्यान देना जरूरी है। इस व्यवस्था में किसान एक खरीददार पर आश्रित हो जाता है इसलिए जरूरी है कि सहकारी समितियों के तंत्र को पर्याप्त मजबूती मिले। आयातनि र्यात नीति पर पुनर्विचार की जरूरत है। आयात की इतनी छूट न हो कि देसी किसानों की फसल मंडी से उठे ही नहीं और वे हतोत्साहित होकर कैश क्राप की ओर बढ़ें। हर हाल में आयातकों को कीमत नियंत्रित करने की स्थिति में नहीं पहुंचने देना चाहिए। निर्यात को तभी प्रोत्साहन मिले जब बम्पर फसल हो। सही नीतियों के अभाव के कारण संकट की स्थिति में भी निर्यात जारी रहता है जिससे देसी बाजार में जिंसों की कमी हो जाती है। वायदा बाजार व ऑनलाइन कमोडिटी ट्रेडिंग की व्यवस्था पर पुनर्विचार किया जा सकता है। सरकार को खाद्य वस्तुओं का मैनेजमेंट ठीक से करने में दक्ष होना होगा। सार्वजनिक वितरण पण्राली को मजबूती देनी होगी। नीतियों के स्तर पर वाणिज्य, वित्त एवं कृषि मंत्रालयों में कोआर्डिनेशन को बेहतर बनाना होगा। कृषि क्षेत्र में सब्सिडी के साथ-साथ निवेश को बढ़ाने की जरूरत है। कृषि में निवेश व कृषि के लिए निवेश दोनों में आ रही गिरावट रोकनी होगी। यह जरूरी है कि कृषि के क्षेत्र में शोध कायरे को महत्व मिले। इसके लिए नए कृषि विश्वविद्यालय खोले जाएं और पुराने को सक्षम बनाया जाए।


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