Thursday, May 5, 2011

दरकार दूसरी श्वेत क्रांति की


 पिछले दिनों राजस्थान की राजधानी जयपुर में वाजिब दाम नहीं मिलने के कारण दुग्ध उत्पादकों ने सड़क पर दूध बहाया और तीन दिन तक हड़ताल पर बैठे रहे। जयपुर में दूध की किल्लत बढ़ने और मामला गरमाता देख प्रदेश की सतारूढ़ कांग्रेस सरकार ने दुग्ध उत्पादकों की मांग का फौरी समाधान किया है। दुग्ध उत्पादक कालाडेरा में पशु आहार संयंत्र शुरू करने और दूध संकलन 500 रुपये प्रति किलोग्राम फैट की दर से किए जाने की मांग कर रहे थे। बेशक अस्थायी तौर पर जयपुर के दुग्ध उत्पादकों की हड़ताल समाप्त हो गई है, लेकिन समूचे देश का डेयरी उद्योग इस संकट से दो-चार हो रहा है। अमूल और मदर डेयरी जैसे संगठित क्षेत्र के दुग्ध उत्पादक अप्रैल की शुरुआत में दूध की कीमतें एक रुपये प्रति लीटर बढ़ा चुके हैं। वहीं असंगठित क्षेत्र के उत्पादक भी दूध की कीमतों में छह रुपये प्रति लीटर का इजाफा कर चुके हैं। मांग और लागत में बढ़ोतरी और कम उत्पादन के चलते आगे भी दूध की कीमतों में उफान आने वाला है। भारत में श्वेत क्रांति लाने वाले डॉ. वर्गीज कुरियन ने कुछ समय पहले कहा था कि ऑपरेशन फ्लड के बाद लोगों को पानी के मोल दूध उपलब्ध था। यह बात काफी हद तक सही है, क्योंकि 1908 के दशक में दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में बोतलबंद पानी और दूध की कीमतें एक ही स्तर पर थीं। मगर भटकी हुई सरकारी नीतियों की वजह से श्वेत क्रांति का आधार ही बिखर गया है। नतीजन अब दूध की बढ़ती मांग के सामने डेयरी सेक्टर की सांस उखड़ती जा रही हैं। 1950 से 1960 के बीच डेयरी उद्योग की सालाना विकास दर 1.2 फीसदी थी और 2009-10 में डेयरी उद्योग की विकास दर चार फीसदी रही है। दूसरी ओर शहरी लोगों के खाने के खर्च में दूध की हिस्सेदारी 1971-72 में 14.47 फीसदी और ग्रामीण लोगों के खाने में दूध की हिस्सेदारी 10.01 फीसदी थी। अब ग्रामीण और शहरी लोगों के खाने में दूध की हिस्सेदारी बढकर क्रमश: 14.88 और 18.31 फीसदी हो गई है। जाहिर है कि लोगों की आमदनी बढ़ने के साथ दूध की मांग में तो इजाफा हुआ है, लेकिन इसी अनुपात में दूध का उत्पादन नहीं बढ़ा है। देश की बढ़ती दूध की मांग पूरी करने के लिए 1970 में ऑपरेशन फ्लड की शुरुआत की गई थी। व्यावसायिक रूप से सफल गुजरात के आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड यानी अमूल की तर्ज पर देश भर में डेयरी संघ बनाए गए और केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड का गठन किया गया। देश के 700 शहरों और कस्बों को जोड़कर राष्ट्रीय दूध जाल बनाया गया और इसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिले। 1951 में प्रति व्यक्ति 132 ग्राम दूध उपलब्ध था। वहीं, 1991 में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता बढ़कर 220 ग्राम हो गई। असल में श्वेत क्रांति के समय दूध के उत्पादन में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई, बल्कि उस समय दूध के संग्रहण, शीतलीकरण और विपणन तंत्र में सुधार किया गया था। सीधे शब्दों में कहें तो ऑपरेशन फ्लड के तहत ग्रामीण इलाकों के दूध को शहरी बाजार तक पहंुचाने का तंत्र खड़ा किया गया था। समय बीतने के साथ डेयरी संघों पर छुटभैये नेताओं का कब्जा होता गया और अब दूध विपणन का यह तंत्र दरक गया है। दूध उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं होने का एक कारण इस क्षेत्र में शोध और तकनीक का अभाव भी है। विश्व के कुल मवेशियों में से 12 फीसदी भारत में हैं और वैश्विक उत्पादन का 16 फीसदी दूध उत्पादित किया जाता है। अमेरिका में मवेशियों की संख्या विश्व की मात्र 4-5 फीसदी है, जबकि वहां विश्व के 11 फीसदी दूध का उत्पादन होता है। हमारे देश में प्रति दुधारू पशु 1,000 लीटर सालाना दूध का उत्पादन होता है, जबकि वैश्विक औसत 8,000 से 10,000 लीटर सालाना का है। किसानों में पशुपालन की वैज्ञानिक जानकारी का अभाव है और संक्रामक रोगों के कारण हर साल बड़े पैमाने पर दुधारू पशुओं की मौत हो जाती है। श्वेत क्रांति के शोरगुल में गाय-भैंसों की देसी नस्लों की जमकर उपेक्षा की गई और विदेशी नस्ल के पशुओं को बढ़ावा दिया गया। विदेशी नस्ल के पशुओं का रख-रखाव महंगा है और कृत्रिम गर्भाधान के आधे-अधूरे ज्ञान से पैदा की गई संकर नस्लों ने किसानों की कब्र खोदने का काम किया है। यह अजीब संकर नस्ल के पशु न तो दूध देते हैं और खेती के काम भी नहीं आते हैं। सदियों से सम्मान पाती आई देसी गाय घरों से बेदखल होकर सड़कों पर घूम रही हैं। दोषपूर्ण सरकारी नीतियों के कारण देश में बूचड़खानों की संख्या तो बढ़ती जा रही है, लेकिन इससे पशुओं की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। मांस और चमड़े के लालच में पशु-वध की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और 120 करोड़ लोगों के इस देश महज 16 करोड़ पशु बचे हैं। मोटे अनुमान के अनुसार, गौधन की रक्षा के लिए 25,000 गौशालाओं की जरूरत है, लेकिन फिलहाल यह संख्या 6,000 ही है। दुधारू पशुओं के वध पर रोक के बावजूद इंदौर और बुंदेलखंड गाय समेत दूसरे पशुओं के कटान के अड्डों में तब्दील हो गए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि देशभर में केवल 40 फीसदी पशुओं के लिए ही पौष्टिक चारा उपलब्ध है, लेकिन सरकार खली के निर्यात में लगी हुई है। चारागाह सिकुड़ते जा रहे हैं और मवेशियों को पौष्टिक चारा मुहैया करवाए बगैर दूध उत्पादन में बढ़ोतरी का दावा खोखला ही कहा जाएगा। हमारे देश में 70 फीसदी दूध का उत्पादन छोटे, सीमांत और भूमिहीन किसान करते हैं और किसानों की आय का यह बेहतरीन जरिया है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि डेयरी सेक्टर के फैलाव वाले इलाकों में किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं। गुजरात में अमूल की वलसाड यूनियन अपना 80 फीसदी दूध जनजातीय इलाकों से इकट्ठा करती है। डेयरी की मार्फत किसानों के विकास की यह कहानी मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ और दूसरे नक्सल प्रभावित इलाकों में भी दोहराई जा सकती है। गुजरात का डेयरी सेक्टर सफल है, क्योंकि अमूल के नफे-नुकसान में किसानों की सीधी भागीदारी है। पिछले दिनों सरकार ने दूध की ऊंची कीमतों से राहत देने के नाम पर डेयरी उत्पादों के आयात शुल्क में कमी की थी। सवाल है कि भारतीय खली का निर्यात करके विदेशी मिल्क पाउडर मंगाने की बजाए सरकार किसानों को प्रोत्साहन क्यों नहीं देती है। संसद में पेश आर्थिक समीक्षा में सरकार ने स्वीकार किया है कि 2021-22 तक दूध की मांग 18 करोड़ टन हो जाएगी। दूध का मौजूदा उत्पादन 11.2 करोड़ टन है और मांग को पूरा करने के लिए सालाना 5.5 फीसदी की रफ्तार से दुग्ध उत्पादन में बढ़ोतरी करनी होगी। कोई दोराय नहीं है कि चॉकलेट और मिठाई की बढ़ती मांग के चलते दूध की कीमतें और ऊपर जाएंगी। अगर नीति-निर्धारक देश में दूसरी श्वेत क्रांति लाना चाहते हैं तो डेयरी संघों पर नेताओं का कब्जा हटाकर किसानों के हित में बुनियादी कदम उठाने होंगे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

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