Wednesday, May 23, 2012

बंपर पैदावार, किसान फिर भी कंगाल


भारी-भरकम सरकारी अमले के बावजूद एक ओर गरीबों को दो जून की रोटी मयस्सर नहीं है, वहीं दूसरी और अनाज का सड़ना नियति बनता जा रहा है। गेहूं के बंपर उत्पादन, खरीद में सुस्ती और उसके भंडारण के लिए उपयुक्त व्यवस्था न होने से उसके सड़ने की खबरें आने लगी हैं। खाद्य मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल पंजाब में 70,000 टन गेहूं उचित रखरखाव के अभाव में बरबाद हो गया। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार राज्यों को गेहूं खरीद के लिए पर्याप्त बोरे भी उपलब्ध नहीं करा पा रही है। खरीद प्रक्रिया धीमी होने के कारण उन्हें मजबूरी में आढ़तियों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम कीमत पर गेहूं बेचना पड़ रहा है। जिन राज्यों में एफसीआइ की खरीद का नेटवर्क नहीं है, वहां तो किसान पूरी तरह महाजनों-साहूकारों की दया पर निर्भर हो चुके हैं। खाद्य मंत्रालय ने चालू खरीद सीजन में कुल 3.18 करोड़ टन गेहूं खरीदने का लक्ष्य निर्धारित किया है, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के पास भंडारण के लिए जितने गोदाम हैं, वे पिछले सालों के गेहूं और चावल से भरे पड़े हैं और लाखों टन अनाज अब भी खुले में बने अस्थायी गोदामों में रखा पड़ा है। नियमों के मुताबिक तिरपाल से ढके अस्थायी गोदामों में रखा अनाज हर हाल में सालभर के भीतर खाली करा लिया जाना चाहिए, लेकिन महंगाई से भयाक्रांत सरकार ने गेहूं निर्यात की अनुमति देने में देर कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में ऑस्ट्रेलिया, रूस और यूक्रेन का गेहूं आ जाने से भारतीय गेहूं का निर्यात लाभकारी नहीं रह गया। भंडारण के संबंध में एक दुर्भाग्य पूर्ण बात यह है कि देश में उपलब्ध भंडारण क्षमता के 76 फीसद का ही उपयोग हो पा रहा है, जबकि उपयुक्त योजना के अभाव में 24 फीसदी खाली पड़ा है। इस समय देश में 720 लाख टन अनाज भंडार है, जो सामान्य रणनीतिक रिजर्व और बफर स्टॉक की सीमा (320 लाख टन) से ज्यादा है। एफसीआइ के आंकड़ों के मुताबिक इस अतिरिक्त भंडार में अनाज के रखरखाव की लागत लगभग पांच रुपये प्रति किलो है। इस हिसाब से देखा जाए तो इस अतिरिक्त 400 लाख टन का रखरखाव खर्च लगभग 20,000 करोड़ रुपये है। अगर सरकार इस अनाज का निर्यात करती है तो 20,000 करोड़ रुपये की लगात तो बचेगी ही, जगह भी निकल आएगी। इससे नए अनाज के भंडारण की समस्या अपने आप दूर हो जाएगी। देर से ही सही, अब सरकार ने केंद्रीय पूल से गेहूं निर्यात के लिए निविदा मांगी है। इसमें विदेशी आयातक ही भाग ले सकेंगे और निर्यात कांडला और मुंद्रा बंदरगाहों से होगा। निर्यात विपणन सीजन 2011-12 और 2012-13 के गेहूं का होगा। हालांकि निविदा में निर्यात की मात्रा और कीमत तय नहीं है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कम कीमतों को देखें तो बिना निर्यात सब्सिडी के गेहूं का निर्यात संभव नहीं होगा। चालू फसल सीजन में 25.26 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन होने का अनुमान है, जिसमें मुख्य हिस्सेदारी गेहूं और धान की होगी। देखा जाए तो भंडारण समस्या की मूल वजह गेहूं और धान केंद्रित कृषि रणनीति ही है। आज ये फसलें निश्चित रिटर्न के चलते नकदी फसलों में तब्दील हो चुकी हैं, लेकिन दलहनों, तिलहनों और मोटे अनाजों की खेती घाटे का सौदा बनी हुई है। ऐसे में यदि गेहूं, धान किसानों को उनकी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिली तो इस मामले में भी देश का हाल खाद्य तेल और दालों जैसे ही होगा। गौरतलब है कि उदारीकरण की नीतियों के तहत जब देश में सस्ता पामोलिव-सोयाबीन तेल आयात होने लगा तब सरकार ने तिलहनों की खरीद से मुंह फेर लिया, जिसका परिणाम हुआ कि खाद्य तेल आयात तेजी से बढ़ा। जो देश 1993 तक खाद्य तेलों के मामले में लगभग आत्मनिर्भर था, वही आज दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक बन चुका है। 2011-12 में 94 लाख टन खाद्य तेल का आयात किया गया, जिसके लिए सरकार को 35,000 करोड़ रुपये चुकाने पड़े। यह धनराशि सरकार की बहुचर्चित योजना मनरेगा के साल भर के आवंटन के बराबर है। इसी प्रकार सरकार हर साल 5000 करोड़ रुपये की 25 से 30 लाख टन दालों का आयात करती है। एक ओर सरकार पूर्वी भारत में खाद्यान्नों की पैदावार बढ़ाने के लिए दूसरी हरित क्रांति लाने में जुटी हुई है, वहीं दूसरी ओर इन राज्यों के किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा बनी हुई है। सरकार हर साल करीब 14,000 केंद्रों से अनाज की खरीद करती है, लेकिन देश के दर्जन भर राज्य ऐसे हैं, जहां एफसीआइ खरीद नहीं कर पाती। इससे किसानों को सस्ती दरों पर अनाज खुले बाजार में बेचना पड़ता है। इसी को देखते हुए कृषि लागत एवं मूल्यन आयोग ने सरकार को सुझाव दिया है कि किसानों से खाद्यान्न की खरीद में एफसीआइ के साथ निजी क्षेत्र का भी सहयोग लिया जाना चाहिए। जब गोदाम बनाने में निजी क्षेत्र की मदद ले रहे हैं तो अनाज खरीद में संकोच क्यों? खरीद-भंडारण नीति को विकेंद्रित करने के उद्देश्य से भंडारण (विकास एवं विनियमन) अधिनियम 2007 के तहत सरकार ने 25 अक्टूबर 2010 को भंडारण विकास एवं नियामक प्राधिकरण (डब्ल्यूडीआरए) का गठन किया है। इसका उद्देश्य अनाज के खरीद-भंडारण क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना है। डब्ल्यूडीआरए स्थानीय करों, स्टॉक सीमा जैसे व्यापारिक बाधाओं को दूर करने के साथ-साथ भंडारण क्षमता बढ़ाने हेतु निजी-सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी मॉडल) के तहत दस साल की गारंटी स्कीम बनाई है। इसके तहत पिछले तीन सालों में सरकार ने 1.50 करोड़ टन क्षमता वाले गोदामों के निर्माण की योजना बनाई है, लेकिन जमीनी हकीकत इसके उलट है, क्योंकि 2011 तक मात्र 89 लाख टन क्षमता के गोदामों टेंडर फाइनल किए गए हैं। इन गोदामों के तैयार होने में अभी कई साल लगेंगे। भंडारण क्षमता बढ़ाने में राज्य सरकारों का असहयोग भी एक बड़ी बाधा बन चुका है। सरकार ने 1 अप्रैल 2011 में ग्रामीण भंडारण योजना की शुरुआत की, लेकिन उसे भी अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है। देखा जाए तो खाद्यान्न भंडारण के लिए जगह की व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती है। इसका कारण है कि खाद्यान्नों के उत्पादन और सरकारी खरीद में वृद्धि के बावजूद सरकार भंडारण क्षमता बढ़ाने के मुद्दे पर आंख बंद किए रही। उसकी नींद तभी टूटी, जब स्थिति विस्फोटक हो गई। फिर सरकार की खरीद और भंडानरण नीति बेहद केंद्रीकृत रही है। अभी तक अनाज उत्पादक क्षेत्रों में ही भंडारण सुविधा बनाने की नीति रही है, अब इसे बदलकर खपत केंद्रों को आधार बनाना होगा। इससे अनाज की अचानक ढुलाई और कीमतों में उतार-चढ़ाव की समस्या से मुक्ति मिलेगी। भंडारण समस्या से निपटने के लिए फिर अनाज के भंडारण को गेहूं, चावल के चक्र से मुक्ति दिलाकर विविधीकृत करना होगा। 

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