Friday, April 29, 2011

मुसीबत में पान किसान


सरकार की अनदेखी से खफा लंबे समय से आंदोलनरत पान किसानों ने अब सामूहिक आत्महत्या की चेतावनी दी है। जनवरी माह में चली शीत लहर से पान की फसल चौपट हो चुकी है और किसान मुआवजे की मांग कर कर रहे हैं। प्रकृति के इस कहर का सबसे ज्यादा खमियाजा उत्तर प्रदेश के पान किसानों को भुगतना पड़ा है। पान की खेती पर आश्रित परिवार पलायन को मजबूर हैं और भुखमरी की नौबत आ गई है। आलम यह है कि उत्तर प्रदेश के किसानों को नई खेती के लिए पान की लताएं भी पश्चिम बंगाल, राजस्थान और मध्यप्रदेश से मंगवानी पड़ी हैं। उत्तर प्रदेश में पान की नई फसल मार्च के दूसरे हफ्ते से लेकर अप्रैल की शुरुआत तक लगाई जाती है। यूपी में यह चुनावी साल माना जा रहा है, ऐसे में पान किसानों की नाराजगी राजनीतिक रूप ले सकती है। कभी किसानों के चेहरे पर मुनाफे की लाली लाने वाला पान अब घाटे का पर्याय बन गया है। इसकी फसल बेहद नाजुक होती है और यह ज्यादा गरमी या ठंड सहन नहीं कर पाती। इसे गरमी के मौसम में रोजाना चार बार और ठंड के दौरान हफ्ते में दो बार सिंचाई की जरूरत होती है। नियमित सिंचाई की जरूरत के कारण ही परम्परागत रूप से पान की फसल जलाशयों के किनारे की जाती है। लेकिन पिछले कु छ सालों से पानी की कमी के कारण पान की फसल किसानों के लिए परेशानी का सबब बन गई है। कभी पाला तो कभी लू का कहर पान किसानों की नियति बन चुका है। उड़ीसा, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी इस साल पान की फसल को नुकसान पहुंचा है लेकिन उत्तर प्रदेश में यह सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। सूबे के 17 जिलों में पान की 90 फीसद से ज्यादा फसल तबाह हो गई है। महोबा और ललितपुर जिलों में ही पान की फसल थोड़ी-बहुत बच पाई है। पश्चिम बंगाल सरकार अपने पान किसानों को राहत दे चुकी है लेकिन उत्तर प्रदेश में 85 करोड़ रुपये से ज्यादा की फसल बर्बाद होने के बावजूद किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। सरकार की बेरुखी के कारण ही सूबे में पान का रकबा घटकर आधा रह गया है। लखनऊ और महोबा में पान प्रयोग व प्रशिक्षण संस्थान खोले गए थे लेकिन अब यह संस्थान बंद किए जा चुके हैं। नई तकनीक के अभाव में किसान पुराने तरीके से खेती करते हैं लिहाजा कम मुनाफे के साथ ही जोखिम भी बढ़ जाता है। गुटखा के बढ़ते प्रचलन ने भी किसानों की कमर तोड़ने का काम किया है। आम जन-जीवन में धार्मिंक अनुष्ठानों से लेकर भोजन तक पान के महत्व को देखते हुए यह कमी शुभ संकेत नहीं है। किसी जमाने में पान की खेती का गढ़ रह चुके महोबा की पान मंडी अब वीरान हो चली है। महोबा में पान की खेती तीन हजार एकड़ से सिमटकर पांच एकड़ तक रह गई है। यहां के देसावरी पान की मांग समूचे देश में है और पाकिस्तान व अरब देशों में भी इसका निर्यात किया जाता था। घटती वर्षा और बढ़ती मंहगाई ने इसे तबाही की कगार पर पहुंचा दिया और जो थोड़ी बहुत उम्मीदें शेष हैं, उस पर सरकारी उपेक्षाएं भारी पड़ रही हैं। महोबा के पान की खासियत यह है कि देश के दूसरे हिस्सों में उपजने वाली अन्य प्रजातियों की तासीर इसके जैसी नहीं है। मुसीबत से घिरे किसानों की मदद के लिए अब तक किसी नेता ने कोई ठोस पहल नहीं की है। साल-दर-साल कुदरत का सितम सहते पान किसान हुक्मरानों की अनदेखी से निराश होकर अब पान की खेती से तौबा कर रहे हैं। विडंबना यह है कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही पान की फसल खाद-बीज पर मिलने वाली सब्सिडी और फसल बीमा के दायरे से भी बाहर है। केंद्र और प्रदेश सरकार पान किसानों के दर्द से बेखबर कान में रूई डालकर सो रही हैं। पाले से पान की फसल काली होकर नष्ट हो गई है और किसानों के पास बीज के लिए भी पुरानी बेलें नहीं बची हैं। पान के पत्ते की कीमत में 300 फीसद तक की तेजी आ चुकी है और देशी बंगला पान की कीमत 600 रुपए प्रति ढोली ( एक ढोली में 150 से 200 पत्ते होते हैं) के स्तर को पार कर गई है। पिछले साल एक ढोली 150 रुपये में मिल रही थी। देश के मशहूर बनारसी पान के पत्ते की कीमतों में भी 50 फीसद तक की तेजी आ चुकी है। अगर सरकार की कुंभकर्णी नींद अब भी नहीं टूटी तो वह दिन दूर नहीं जब किसान पान की खेती से पूरी तरह मुंह मोड़ लेंगे। पान किसानों के जख्मों पर झूठे वादों का मरहम लगाने की बजाए तत्काल नकद मुआवजे की व्यवस्था की जानी चाहिए। किसानों को पान की बेलें उपलब्ध करवाने के साथ ही लखनऊ के पान प्रयोग व प्रशिक्षण केंद्र में अविलंब जान फूं कने की जरूरत है। सरकार को समय रहते पान किसानों का संकट दूर करने की कोशिश शुरू कर देनी चाहिए अन्यथा हालात बेकाबू होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।


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