Wednesday, June 1, 2011

कृषि क्षेत्र में लुक ईस्ट नीति से उम्मीद


इसी महीने के पहले हफ्ते जब मेघालय में उमियम स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्वोत्तर पर्वतीय क्षेत्र अनुसंधान परिसर मेंकिरनके नाम से नई पहल आरंभ हुई तो राष्ट्रीय मीडिया का इस तरफ ध्यान नहीं गया। यह मौका क्षेत्रीय समिति की 20वीं बैठक का था जहां पूर्वोत्तर के सभी राज्यों के कृषि वैज्ञानिक और देश के कुछ अन्य विशेषज्ञ उपस्थित थे। यह मौका इसलिए खास महत्व का था कि इस माध्यम से कृषि क्षेत्र में पूरब की तरफ देखने की नीति को अमली जामा पहनाने के प्रयास को अच्छी पहल के रूप में स्थापित किया जा सकता था। देश में बढ़ती जनसंख्या और कृषि भूमि पर निरन्तर दबाव के चलते खाद्य सुरक्षा की चुनौती गंभीर है। देश की आबादी में हर साल डेढ़ करोड़ का इजाफा हो रहा है और खेती में इस्तेमाल जमीन के दूसरे उपयोगों के लिए मांग निरन्तर बढ़ रही है। लिहाजा उत्पादन वृद्धि के बावजूद कीमतों में भी वृद्धि का रुख है। अनुमान है कि 2020 तक खाद्यान्न उत्पादन को 23.58 करोड़ टन के मौजूदा स्तर से बढ़ा कर 28.5 करोड़ टन तक ले जाना होगा। प्रयासों के बावजूद अब तक उत्पादन में वांछित वृद्धि नहीं हो पाई। कृषि विकास दर अनेक सालों में दो प्रतिशत के आसपास सिमट कर रह गई। अपवादस्वरूप इस साल फसल अच्छी हुई और विकास दर चार प्रतिशत के अपेक्षित लक्ष्य से ऊपर 5.4 प्रतिशत रही। बुनियादी बात यह है कि देश के अनेक इलाके पिछली हरित क्रांति के लाभ से वंचित रह गए। इनमें पूर्वी भारत पूर्वोत्तर के क्षेत्र शामिल हैं। कृषि मामले में अब तक उपेक्षित पूर्वोत्तर के लिएकिरनके माध्यम से सार्थक टेक्नोलॉजी और जरूरी संसाधन सुलभ करवाने की उम्मीद की जा सकती है। खाद्य सुरक्षा संबंधी चुनौतियों के संदर्भ में हरित क्रांति से वंचित इलाकों की उत्पादक क्षमता का दोहन अनिवार्यता माना जाने लगा है परन्तु देश के अन्य पूर्वी क्षेत्रों की तुलना में विशिष्ट भौगोलिक जलवायु परिस्थितियों वाले पूर्वोत्तर के लिए वही पैकेज लागू करना संभव नहीं है जो बिहार, बंगाल, उड़ीसा या उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्सों में लागू किया जा सकता है। प्राय: मांसाहार और जूम खेती के लिए चर्चित पूर्वोत्तर में खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भरता नहीं है। ऐसे में समूचे पूर्वोत्तर के लिए अलग से कृषि संबंधी ज्ञान, जानकारी और क्षेत्र विशेष के लिए सार्थक सुसंगत टेक्नोलॉजी तैयार करना अत्यावश्यक हो गया है। क्षेत्र के कृषि सम्बद्ध संगठनों, किसानों और प्रसार से जुड़े लोगों के लिए साझे मंच का गठन समय की मांग है।किरनइन जरूरतों को पूरा करने के साथ इस तरह से ज्ञान-प्रबंधन सुनिश्चित करेगी कि उत्पादन की परिस्थितियों में आने वाले तमाम बदलावों को इस प्रयास में समाहित करने के साथ ही उत्पादक गतिविधियों के लिए उत्प्रेरक की भूमिका का ठीक-ठीक निर्वहन हो सके। उम्मीद की जा सकती है कि इस पहल पर आगे मजबूती से बढ़ने पर क्षेत्र के किसानों और उनके हित साधकों को विश्वसनीय आंकड़े, उपयोगी सूचनाएं, खेती की सटीक एवं सार्थक टेक्नालॉजी एक स्थान पर सुलभ हो सकेगी। इसी साल फरवरी में जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए लचीली कृषि पर राष्ट्रीय पहल आरंभ करने के तीन महीने बाद ही भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नेकिरनके रूप में जो पहल की है, वह पूर्वोत्तर की आकांक्ष और खाद्य सुरक्षा की जरूरत पूरा करने की क्षमता रखती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डॉ. एस. अय्यप्पन ने रेखांकित किया किकिरनको क्षेत्र में उद्यमशीलता को उत्प्रेरित करने के अलावा सहारा भी देना होगा। उन्होंने पूर्वोत्तर के युवा कृषि वैज्ञानिकों से नौकरी के बजाय उद्यमशीलता का वरण करने की जो सलाह दी। इस पर अमल हुआ तो क्षेत्र में कृषि में आत्म निर्भरता खाद्य सुरक्षा के युग का आरंभ होगा। इस पहल में क्षेत्रीय जैव विविधता के संरक्षण, संवर्धन संस्कार के बीज भी छिपे हैं। यह प्रयास सफल रहा तो पूरे भारत के लिए नए सोपान तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त होगा। पूर्वोत्तर के लिएकिरनके रूप में नए प्रयास के नतीजों पर ध्यान केन्द्रित करने के अलावा खाद्यान्न सुरक्षा को अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। अनाज उत्पादन के साथ ही बागवानी उत्पादों और पशुधन के विकास पर भी समुचित ध्यान देना होगा। क्षेत्र में सब्जी और फलोत्पादन की अनुकूल परिस्थितियां हैं। जरूरत किसानों तक पहुंचने और उन्हें सही दिशा देने की है। भंडारण की समस्या देखते हुए प्राथमिक उत्पाद के प्रसंस्करण की जरूरत है। बागवानी उत्पादों का और क्षेत्र के जाने माने उत्पादों अदरक, हल्दी और फलों आदि के प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन के उपायों से किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है। चुनिंदा उत्पादों और वनस्पति से बहुमूल्य यौगिकों जैसे एंटी वायोटिक पदाथोर्ं आदि को अलग निकालने की व्यवस्था की जा सकती है। इस प्रकार के विकास के कुछ मॉडल विकसित किये जा रहे हैं। यह जरूरी है कि कृषि उत्पादों के मूल्य संवर्धन के साथ उनकी गुणवत्ता भी सुनिश्चित की जाए। इसके लिए सभी मानकों का निर्धारण और अनुपालन सुनिश्चित करना होगा। पूर्वोत्तर राज्यों में सुअर पालन उल्लेखनीय सहायक कृषि गतिविधि है। देश में सुअरों की कुल संख्या का 28 प्रतिशत पूर्वोत्तर राज्यों में है। सुअर के मांस इससे तैयार अन्य उत्पादों की बढ़ती मांग के चलते अधिक वैज्ञानिक ढंग से सुअर पालन को बढ़ावा दिया जा रहा है। गुवाहाटी स्थित राष्ट्रीय शूकर अनुसंधान केन्द्र ने नस्ल सुधार की दिशा में अच्छी पहल की है। नई नस्लों से उत्पादकता में वृद्धि संभव होगी। क्षेत्र के कृषि विकास के प्रयास की श्रृंखला में उमियम में हुए विचार-विमर्श को भी देखा जाना चाहिए। वहां सम्पन्न र्चचा के आलोक में 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए ठोस रणनीति निर्धारित की जा सकेगी। दूसरी हरित क्रांति के लक्ष्य देखते हुए ही लुक ईस्ट नीति पर जोर दिया जा रहा है। सघन और मिश्रित खेती के तरीकों पर काम चल रहा है। फसल के रोग और कटाई के बाद बर्बादी रोकने पर भी ध्यान देना होगा। कृषि-वानिकी इस क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण है। यहां की विशेष जरूरतें देखते हुएकिरनके माध्यम से पूर्वोत्तर के किसानों को चौबीसों घंटे आवश्यक तकनीकी जानकारी और सलाह मिल सकेगी। वहां की भौगोलिक और जलवायु संबंधी परिस्थितियां देखते हुए उच्च-मूल्य उत्पादों और बागवानी के साथ अधिक उपज देने वाली धान की किस्मों को बढ़ावा मिले। वहां जैविक खेती की अनुकूल परिस्थितियां हैं परन्तु भूमि की उर्वरा शक्ति ठीक रखने के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों की तरफ ध्यान देने की जरूरत है। वैसे राष्ट्रीय स्तर पर 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के औसत की तुलना में पूर्वोत्तर में उर्वरकों का इस्तेमाल मात्र 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के स्तर पर रहा है। यहां जैविक खेती सुदृढ़ कर भूमि की उर्वरता वर्तमान स्तर से आगे ले जाने की जरूरत है। पूर्वोत्तर की समस्याएं जटिल जरूर हैं परन्तु समन्वित प्रयासों से वांछित परिणाम निकल सकते हैं।

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