Tuesday, September 27, 2011

जमीन की नई सीमारेखा

भारत को दुनिया भले गांवों का देश मानती हो और इसकी अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान कहलाती हो लेकिन इस तल्ख हकीकत से मुंह नहीं चुरा सकते कि इस देश में सबसे उपेक्षित कोई वर्ग अगर है तो वह किसान ही है। अगर किसी को इस बात पर एतराज है तो उसके सामने बखूबी राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषदका उदाहरण रख सकते हैं जिसका गठन मनमोहन सिंह सरकार की पहली पारी में हुआ था और जिसे हथियार बना कर किसानों और ग्रामीण इलाकों की तकदीर बदलने के जोर-शोर से वायदे किए गए थे। हकीकत यह है कि गठन के बाद से साढ़े तीन साल बीत चुके हैं लेकिन इस परिषद की एक भी बैठक आज तक नहीं हुई। ऐसा उस कमेटी के साथ हो रहा है जिसके अध्यक्ष खुद प्रधानमंत्री हैं और योजना आयोग के उपाध्यक्ष समेत पांच असरदार केंद्रीय मंत्री और दस मुख्यमंत्री जिसके सदस्य हैं। पिछले दिनों भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर जबरदस्त बवाल के बाद केंद्रीय मंत्रिपरिषद ने आनन-फानन में इस मसले पर विधेयक पारित कर दिया लेकिन उस वक्त भी किसी को इस परिषद की याद नहीं आई। पिछले तीन केंद्रीय ग्रामीण मंत्रियों की विफलता के बाद अब वर्तमान मंत्री जयराम रमेश इसकी पहली बैठक करवाने जा रहे हैं जो प्रधानमंत्री की विदेश से वापसी के बाद कभी भी हो सकती है। लेकिन इस उद्घाटन बैठक का एजेंडा ही इतना विस्फोटक है कि इस पर अभी से सवाल उठने लगे हैं। परिषद को दो अहम मसलों पर फैसला देना है-खेतिहर जमीन रखने की सीमा को और घटाना तथा सभी राज्यों में एकरूपता के साथ इस सीमा को लागू करना। अनुमान है कि इस फैसले के तहत किसान अब पांच से पंद्रह एकड़ जमीन तक ही अपने पास रख पाएंगे, फालतू जमीन सरकार के कब्जे में चली जाएगी जो या तो भूमिहीनों के बीच वितरित की जाएगी या विकास कायरे में इस्तेमाल होगी। ग्रामीण इलाकों में व्याप्त भारी आर्थिक असमानता और गरीबी को देखते हुए इस क्रांतिकारी विचार को नकारा नहीं जा सकता। सवाल ये हैं कि क्या सरकार ऐसा फैसला लेने में और उसे कार्य रूप देने में सक्षम है? वर्तमान केंद्र सरकार जिस प्रकार चारों ओर से घिरी हुई है उसमें क्या वह ऐसा गंभीर कदम उठा सकती है? कृषि और खेतिहर जमीन का मामला राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है लेकिन केंद्र सरकार कानून के जरिए जमीन की न्यूनतम सीमा का निर्धारण तो कर ही सकती है बशत्रे इसके लिए उसके पास दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। वोट बैंक की राजनीति क्या इस इच्छाशक्ति को सिर उठाने का मौका देगी? जिनकी जमीन कटेगी उनके गुस्से का सामना तो करना होगा। फिर, उन भूमिहीनों की अपेक्षाओं पर भी सरकार को खरा उतरना होगा जो जमीन के मालिक बनने के सपनों में जी रहे हैं। इस मसले पर पुराने अनुभव हौसला बढ़ाने वाले नहीं हैं। आचार्य विनोबा भावे ने देशभर में अभियान चला कर चालीस लाख एकड़ जमीन इकट्ठी की थी जो भूमिहीनों में बंटनी थी। आंकड़े बताते हैं कि इसमें से केवल बीस लाख एकड़ जमीन भूमिहीनों तक पहुंच पाई। बाकी जमीन कहां है, इसका पता नहीं लग पाया है। जरा उन भूमिहीनों के हाल पर सोचिए जिन्हें सरकार ने जमीन देने का वायदा करते हुए पट्टा दे दिया लेकिन वे सालों से इस पट्टे को लेकर दर-दर भटक रहे हैं। यही हाल जमीनों से जुड़े आंकड़ों का है जिसकी पर्याप्त जानकारी तक सरकार के पास नहीं है। अफसोस,आज के डीजिटल युग में भी हम जमीन की जानकारी कम्प्यूटर तक नहीं पहुंचा पाए हैं।

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