Monday, March 14, 2011

इंतजार दूसरी हरित क्रांति का


वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इस बार भी अपने बजट भाषण में देश के पूर्वी भागों में हरित क्रांति लाने का जिक्र किया है। इस बार भी इस मद पर 400 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है। इस क्रांति को मुख्य रूप से धान की पैदावार पर केंद्रित रखने का प्रयास किया जाएगा। इस तरह के प्रयास फलीभूत होते हैं तो यह देश में ‘दूसरी हरित क्रांति’ होगी। इसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि देश के जिन हिस्सों ने पहली हरित क्रांति में योगदान किया उनमें से अधिकांश में उत्पादकता में ठहराव आ गया है और वहां की मिट्टी भी बीमार होने लगी है जिसकी मुख्य वजह उर्वरकों का अत्यधिक इस्तेमाल है। इसके अलावा सस्ती बिजली के चलते भूमिगत पानी का भी आवश्यकता से अधिक उपयोग किया जाना एक कारण है। दूसरी हरित क्रांति के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आई.सी.ए.आर.) और उसकी सहायक संस्थाओं के वैज्ञानिकों को आवश्यक टेक्नॉलॉजी सुलभ करवानी होगी तथा पूर्वी क्षेत्र की राज्य सरकारों को भी इसमें पूरा सहयोग करना होगा। पहली हरित क्रांति में देश के अग्रणी अनुसंधान संगठन आई.सी.ए.आर. से सम्बद्ध भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आई.ए.आर.आई.) की अविस्मरणीय भूमिका रही है। इसमें संदेह नहीं है कि पूर्वी भारत में कृषि उपज बढ़ाने की अपार सम्भावनाएं हैं। परंतु अनियंत्रित बाढ़, जल प्रबंधन की खामियों और बिजली की कमी बुनियादी समस्याओं में हैं। इनके चलते भी उन्नत और संकर बीजों के इस्तेमाल तथा किसानों को सही सलाह देकर हरित क्रांति की दिशा में आगे बढ़ना होगा। बिहार सरकार ने पहले ही इस दिशा में कदम उठाने शुरू कर दिये हैं। राज्य में परम्परागत बीजों के स्थान पर उन्नत किस्म के बीजों को बढ़ावा देने का काम व्यवस्थित तरीके से एक निश्चित ‘रोड मैप’ के तहत किया जा रहा है। पूर्वी भारत के जिन राज्यों को दूसरी हरित क्रांति की प्रयोग भूमि के रूप में चुना गया है, वहां प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं, भूमि उर्वराशक्ति से सम्पन्न है, और जलवायु की स्थिति भी कमोबेश अनुकूल है। सबसे बड़ी बात जो अनुकूल है वह यह कि वहां के किसान भी बहुत परिश्रमी हैं। परंतु पहली हरित क्रांति के क्षेत्रों के विपरीत पूर्वी भारत के ये क्षेत्र बुनियादी ढांचे के साथ ही कृषि पर निवेश से भी वंचित रहे हैं। यद्यपि अब नई खेती तकनीकों के साथ ही पशुधन में समृद्धि लाने, मात्स्यकी के विस्तार, बागवानी और सहायक कृषि गतिविधियों को बढ़ावा देकर किसान की आय बढ़ाने की जरूरत है। इसके साथ ही लघु सिंचाई, खास तौर पर माइक्रो इरिगेशन को अपनाने, जल व मृदा संरक्षण सुनिश्चित करने, छोटे कृषि उपकरणों को बढ़ावा देने के साथ ही छोटे- छोटे केंद्रों की स्थापना कर किसानों को मौसम के अनुरूप सुझाव देने जैसे कदम जरूरी हैं। बिहार का ‘किसान पाठशाला प्रयोग’ उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर रहा है। विभिन्न राज्यों की सफलताओं को जरूरी संशोधनों के साथ अन्य राज्यों में अपनाने की जरूरत है। बिहार के अलावा उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और असम जैसे अनेक राज्यों में व उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्सों में कृषि सुधार के कार्यक्रमों को तेजी से अपनाने की जरूरत बनी हुई है। यदि सुव्यवस्थित तरीके से इस दिशा में प्रयास हुए तो अगले पांच सालों में खाद्यान्न सुरक्षा में दूसरी हरित क्रांति का अविस्मरणीय योगदान सम्भव हो सकेगा। इस संदर्भ में पहली हरित क्रांति का स्मरण स्वाभाविक है। इसी के साथ आई.ए.आर.आई. में हुए काम व उससे पहले 1965-’66 में दक्षिण पश्चिमी मानसून की विफलता की याद आती है। तब इस बात की आशंका होने लगी थी कि कहीं देश को ’43 में बंगाल में पड़े अकाल जैसी स्थिति का सामना तो नहीं करना पड़ेगा। उस समय विश्वविख्यात कृषि वैज्ञानिक डॉ. नारमन बोरलाग ने उपज बढ़ाने के लिए सहयोग का हाथ बढ़ाया और वे अपने साथ 250 टन मैक्सिको के गेहूं का बीज लेकर आए। कुछ आरम्भिक कठिनाइयों के बाद दो प्रजातियों ‘सोनोरा-64’ और ‘लेरमा रोजो’ की सफलता ने तत्कालीन कृषिमंत्री सी. सुब्रह्मण्यम को तुरंत 18,000 टन मैक्सिकन बीज आयात करने के लिए प्रेरित किया। परिणामत: पहली बार में ही गेहूं का उत्पादन 1.2 करोड़ टन के स्तर से बढ़कर 1.64 करोड़ टन के स्तर पर पहुंचा तो इसे हरित क्रांति का नाम दिया गया। भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने इसे गहन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस संदर्भ में संस्थान के निदेशकों डॉ. बी.पी. पाल, डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन , डॉ. ए. बी. जोशी, डॉ. एम. बी. राव, डॉ. एच. के. जैन, डॉ. माथुर व डॉ. कोहली जैसे अनेक कृषि वैज्ञानिकों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। सौभाग्य की बात है कि आज के कृषि वैज्ञानिक बिना किसी विदेशी मदद के ही दूसरी हरित क्रांति के सपने को साकार करने की क्षमता रखते हैं।

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