Thursday, March 3, 2011

कहां खप रहे खेत


किसी विद्वान का कहना है, हो सके तो जमीन खरीद लो क्योंकि अब इसका बनना बंद हो गया है। अपने देश में इसका स्थूल मतलब निकालते हुए खेती की जमीन की गैर-खेतिहर कामों के लिए अंधाधुंध खरीद शुरू हो गई। सरकार की ही रिपोर्ट पर केंद्रीय कृषि मंत्री का बयान है कि गत दो दशकों में खेती की दो फीसद जमीन घट गई है। यह रकबा लगभग 28 लाख हेक्टेयर बैठता है। कहां गायब हो गई इतनी जमीन? आसपास के बदलावों पर नजर रखने वाले भी जानते हैं कि यह जमीन शहरों के फैलाव, फैक्टरियों, दुकानों और दफ्तरों की भेंट चढ़ गई। खेती की जमीन के प्रति हमारा यह रवैया तब है जबकि गांधी के वचन को तोते की तरह दोहराते आए हैं कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। इसलिए कि वहां रहने वाली 80 फीसद आबादी खेतों में अन्न उपजा कर देश का पेट भरती है। खेती आजीविका का मूलभूत साधन ही नहीं, इस देश की संस्कृति में भी समायी हुई है। अत: शहरों जैसी सुविधाएं तथा खुशहाली गांवों तक ले जाकर उनके अस्तित्व को आबाद रखना है। अब जब खेत के खेत गायब हो रहे हैं तो जाहिर है, हमने उनके वचन या इसके जरिये समझ आने वाले भारत के वास्तविक अभिप्राय को नहीं समझा है। उदारीकरण के तकाजे इस ओर से आंख मूंद लेने के लिए उकसाते रहते हैं। खेत किस तरह गैर कृषि कामों में खपाए जा रहे हैं, यह राष्ट्रीय राजधानी के अनियंत्रित विस्तार को देखने पर मालूम होता है। इसके लिए कभी किसानों को धमकाया जाता है तो कभी मोटी राशि के जरिये फुसलाया जाता है। जिन्हें यह समझ है कि जमीन बेचने के बाद खाएंगे क्या, वे प्रदर्शन करते हैं, तो उन्हें दबाया भी जाता है। सिंगुर, नंदीग्राम, अलीगढ़ और गुड़गांव तक इसके उदाहरण हैं। इसके लिए राज्य के कानून उनके दरबार बजाते हैं, जिनकी नजरें किसानों के खेतों पर गड़ गई हैं। ऐसा नहीं है कि कानून में खेती की जमीन का इतर कामों में उपयोग रोकने की मनाही नहीं है। अगर शब्दश: इसका पालन होता तो राजधानी समेत किस भी महानगर-शहर का अतार्किक विस्तार सम्भव नहीं हो पाता। प्रगति का सिद्धांत:-व्यवहारत: केंद्रीकरण कर देंगे तो खेत घटेंगे ओैर विस्थापन भी बढ़ेगा। सरकार में बैठे उदारीकरण के एक बड़े पैरोकार ने अभी कहा है कि खेती पर आश्रित आबादी को घटा कर 54 फीसद कर देना चाहिए। औद्योगिकीकरण को बढ़ाना चाहिए। विस्थापन से शहरों को और फूलने देना चाहिए। खेती पर आश्रित कोई अर्थव्यवस्था खुशहाल हुई है, उन्हें भरोसा नहीं है। शायद वे चाहते हैं कि डिब्बाबंद लंच और डिनर विदेशों से मंगाए जाएं और यहां के लोग खेती से बाज आएं। उन्हें यह जानकारी होनी चाहिए कि अमेरिका तक में घटते खेतों पर गहरी चिंता जताई जा रही है। जहां हरेक साल 10 लाख एकड़ जमीन हाईवे, मॉल्स और अनगढ़ विकास की बलि चढ़ रही है। पड़ोसी चीन में भी यह चिंता है। हम खाद्य उत्पादन में 38 फीसद वृद्धि पर नहीं इतराना चाहिए क्योंकि जमीन की भी अपनी जैविक संरचना है, जो ताबड़तोड़ दोहन से बंजर बन कर पैदावार देने से इनकार भी कर सकती है। इस स्थिति को जेहन में रख कर कार्ययोजना बनाने की आवश्यकता है।


No comments:

Post a Comment