Wednesday, March 23, 2011

उनके सरोकारों की सरकार


पिछले साल फरवरी में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीटी बैंगन की खेती के जमीनी प्रयोगों को बंद करते हुए भरोसा दिया था कि जब तक इनके मानव स्वास्थ्य से जुड़े सुरक्षात्मक पहलुओं की वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हो जाती, इनके उत्पादन को मंजूरी नहीं दी जाएगी। इसके बावजूद गोपनीय ढंग से मक्का के संकर बीजों का प्रयोग बिहार में किया गया। बिहार में बीटी मक्का के और धारवाड़ में बीटी बैंगन के प्रयोगों से पहले राज्य सरकार को न सूचना दी गई और न ही जरूरी सावधानियां बरती गईं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जब इस वादाखिलाफी की खबर लगी तो उन्होंने सख्त आपत्ति जताते हुए केंद्रीय समिति में राज्य के प्रतिनिधि को शामिल करने व्यावहारिक मांग की। नतीजतन पर्यावरण मंत्रालय ने बिहार में बीटी मक्का के परीक्षण पर रोक लगा दी लेकिन यहां यह आशंका जरूर उठती है कि ये परीक्षण उन प्रदेशों में जारी होंगे, जहां कांग्रेस और यूपीए के सहयोगी दलों की सरकारें हैं। गुपचुप जारी इन प्रयोगों से पता चलता है कि सरकार विदेशी कम्पनियों के आगे इतनी दयनीय है कि उसे जनता से किए वादे से मुकरना पड़ रहा है। भारत के कृषि और डेयरी उद्योग पर नियंतण्रकरना अमेरिका की पहली प्राथमिकताओं में है। इन बीजों की नाकामी साबित हो जाने के बावजूद इनके प्रयोगों का मकसद है मोंसेंटो, माहिको, बालमार्ट और सिंजेटा जैसी कम्पनियों के कृषि बीज और कीटनाशकों के व्यापार को भारत में जबरन स्थापित करना। बिहार में मक्का-बीजों की पृष्ठभूमि में मोंसेंटों ही थी। इसके पहले धारवाड़ में बीटी बैंगन के बीजों के प्रयोग के साथ इसकी व्यावसायिक खेती को प्रोत्साहित करने में माहिको का हाथ था। यहां तो ये प्रयोग कुछ भारतीय वैज्ञानिकों को लालच देकर कृषि विश्वविद्यालय धारवाड़ और तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय कोयम्बटूर में चल रहे थे। जीएम बैगन पहली ऐसी सब्जी थी जो भारत में ही नहीं दुनिया में पहली मर्तबा प्रयोग में लाई जाती। इसके बाद एक-एक कर कुल 56 फसलें वर्ण संकर बीजों से उगाई जानी थीं। दरअसल आनुवंशिक बीजों से खेती को बढ़ावा देने के लिए देश के शासन-प्रशासन को मजबूर होना पड़ रहा है। 2008 में जब परमाणु करार का हो-हल्ला संसद और संसद से बाहर चल रहा था तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कृषि मंत्री शरद पवार और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की तिगड़ी ने अमेरिका से गुपचुप समझौता था। इसी के तहत बीटी बैंगन को बाजार का हिस्सा बनाने के लिए पवार और जयराम ने आनुवंशिक बीजों को सही ठहराने के लिए देश के कई नगरों में जन-सुनवाई के नजरिये से मुहिम भी चलाई थी। लेकिन जबरदस्त जन मुहिम के चलते राजनेताओं को इस जिद से तत्काल पीछे हटना पड़ा था। बीटी बैंगन मसलन संकर बीज ऐसा है, जिसे साधारण बीज में एक खास जीवाणु के जीन को आनुवंशिक अभियांत्रिकी तकनीक से प्रवेश कराकर बीटी बीज तैयार किए जाते हैं। बीज निर्माता कम्पनियों की दलील है कि कीटाणु इन्हें भोजन नहीं बनाते और इनसे पैदावार अधिक होती है। बड़ी आबादी के चलते भारत को इसकी सख्त जरूरत है। लेकिन कृषि और स्वास्थ्य से जुड़े भारतीय वैज्ञानिकों का दावा है कि ये बीज आहार की दृष्टि से तो उत्तम हैं ही नहीं स्थानीय और पारम्परिक फसलों के लिए भी खतरनाक हैं। राष्टीय पोषण संसथान, हैदराबाद के प्रसिद्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने चेतावनी दी थी कि बीटी बैंगन के प्रभाव से बैंगन की स्थानीय किस्म मट्टूगुल्ला लगभग समाप्त हो जाएगी। बीटी कपास के उत्पादन का दुष्परिणाम आज तक भुगत रहे हैं। सिलसिला 2002 में शुरू हुआ था। इस बीज की अब तक खपत लगभग दस हजार करोड़ रुपये की हो चुकी है। यदि यही धन किसानों के हाथ में होता तो देश के ढाई लाख किसानों को आत्महत्या करने की मजबूरी नहीं झेलनी पड़ती। यह धन विदेशी कम्पनियों की तिजोरियों में गया और देश का अन्नदाता कंगाल बना। जीन रूपांतरित बीजों के इस्तेमाल में शर्त होती है कि यदि बीज खराब निकलते हैं तो प्रयोग कर रही कम्पनी को किसान को पर्याप्त मुआवजा देना होगा। लेकिन बिहार में कम्पनी ने मुआवजा देने की जवाबदेही से पल्ला झाड़ लिया।

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