Monday, April 11, 2011

किसान और दूसरी हरित क्रांति


दूसरी हरित क्रांति का सीधा मतलब है खेतीकि सानी को बाजार के दानव से बचाया जाये और उसे जीवन व जीविका के बुनियादी अधिकार से जोड़ा जाये, उसे संवैधानिक संरक्षण दिया जाये। खेती मनुष्य के जीने का आधार है। इसकी किसी व्यापार से तुलना नहीं हो सकती है और न किसी व्यापार के दबाव में इसे रखा जा सकता है। जमीन तेजी से सिकुड़ रही है क्योंकि खेतों को खत्म कर ही हमारे विकास की सारी इमारतें खड़ी होती हैं। इसलिए भी जरूरी है कि किसान व किसानी को हम अलग तरह से पहचानें और संभालें
सरकार की चिंता है कि देश में अनाज की सुनिश्चितता हो- फूड सेक्यूरिटी; और वह इसके लिए नया बिल ला रही है! बिल लाने से अगर देश की समस्याओं का समाधान होता तो इस देश में आज कोई समस्या बचती ही नहीं; क्योंकि हमारी सरकारों ने बिल लाने में कभी कोई कमी की ही नहीं है। बिल आते हैं और बिलों में समा जाते हैं। हमारे लोकतंत्र का यह सबसे बड़ा संकट है क्योंकि इस लोकतंत्र में बिल-ही-बिल हैं। उन्हें अनाज की सुनिश्चितता की चिंता है, जबकि हमें चिंता भूख की होनी चाहिए। भूख बहुत खतरनाक होती है क्योंकि यह पेट से उठती है और दिमाग तक पहुंच जाती है। भूख ने महल बनाये हैं और महल गिराये हैं। आज सारे अरब देशों में जो आंधी उठी हुई है वह पेट की भूख से लेकर दिमाग की भूख तक का ही परिणाम है। भूख से सभी डरते हैं - भूखा भी और जिसका पेट भरा है, वह भी। हरित क्रांति से भूख की समस्या हल करने का हमारा ख्वाब आज धूल-धूसरित पड़ा है। अनाज का उत्पादन कितना बढ़ा, यह तो सरकार व योजनाकार ही जानें लेकिन हम देख रहे हैं कि भूख बनी भी हुई है और बढ़ती भी जा रही है इसलिए कई लोग आवाज उठाने लगे हैं कि अब दूसरी 'हरित क्रांति' का वक्त आ गया है। फूड सेक्यूरिटी बिल इसका ही आगाज है लेकिन पहली हरित क्रांति के जनकों में एक एम.एम. स्वामीनाथन जोर से कह रहे हैं कि दूसरी हरित क्रांति भी सम्भव नहीं होगी। वे ऐसा क्यों कह रहे हैं? स्वामीनाथन की आपत्ति दो स्तरों पर है- पहली इस स्तर पर कि सरकार कृषि क्षेत्र के विकास के बारे में न ईमानदार है, और न सावधान है! वे आंकड़े देते हैं कि पिछले बजट में कहा गया था कि दलहन के उत्पादन में तेजी लाने के लिए सरकार 60 हजार गांवों को विशेष प्रोत्साहन देगी। बजट में इसके लिए 300 करोड़ रुपयों की व्यवस्था की गई; मतलब एक गांव को दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए 50 हजार रुपये दिये गये। क्या कोई कृषि जानकार व्यक्ति बता सकता है कि 50 हजार रुपयों की सहायता से आप किसी गांव की खेती का ढांचा बदल सकते हैं क्या? स्वामीनाथन यहां इसका हिसाब भी नहीं लगा रहे हैं कि कोई भी सरकारी रकम दिल्ली से चलकर किसी मोतिहारी तक पहुंचने में कितनी रह जाती है! वे तो कह रहे हैं कि अगर पूरी की पूरी रकम ही गांव तक पहुंच जाये तो भी वह इतनी कम है कि आप उससे कुछ कर नहीं सकते हैं। यह रही ईमानदारी में कमी की बात! फिर स्वामीनाथन दूसरा आंकड़ा देते हैं कि कृषि में बड़ी चिंता के साथ 300 करोड़ रुपयों का निवेश करने वाली सरकार, उद्योगों को उसी बजट में 3.73 लाख करोड़ रुपयों की कर छूट इस तरह दे देती है कि उस बारे में कोई र्चचा भी नहीं होती है। स्वामीनाथन नाराज हैं कि यह सरकार कृषि क्षेत्र की उपेक्षा ही नहीं कर रही है बल्कि वह इसे खोखला बनाने में भी लगी है। स्वामीनाथन बताते हैं कि दूसरी हरित क्रांति के लिए हमें चार जरूरी कारक चाहिए- हमें ऐसी टेक्नॉलाजी चाहिए जो उपज में कई गुना ज्यादा वृद्धि कर सके। हमें बेहतर सुविधाएं चाहिए, जैसे कि बिजली, सड़क आदि। हमें सरकारी नीतियों से बंधा अनुकूल बाजार चाहिए तथा अंतिम यह कि किसानों में इसके प्रति उत्साह चाहिए। वे दूसरी हरित क्रांति के लिए इस उत्साह को सबसे अहम मानते हैं। स्वामीनाथन फिर एक आंकड़ा पेश करते हैं कि अगर मौका मिले तो देश के 45 फीसद किसान खेती का काम छोड़ देना चाहते हैं। वे कारण यह बताते हैं कि खेती में कमाई नहीं होती है और किसान की कमाई बढ़े, इसकी हमारे बजट में कोई व्यवस्था नहीं होती है। अब हम स्वामीनाथन की बातों को यहीं छोड़ते हैं और उनकी ही बातों के कुछ दूसरे पहलू देखते हैं। जब पहली हरित क्रांति की दिशा में काम चल रहा था और सरकार स्वामीनाथन की पूरी मदद कर रही थी तब भी जो हुआ, क्या वह पर्याप्त था और सही दिशा में था? पर्याप्त होता तो इतनी जल्दी हम भूख से हारने नहीं लगते, सही दिशा में होता तो इतनी जल्दी हम दिशाहीन नहीं हो जाते। स्वामीनाथन किसानों के बीच जिस उत्साह की बात कर रहे हैं, वह तो हरित क्रांति के पहले दौर में भी नहीं था। सरकारी आदेश व संसाधन लेकर वैज्ञानिक खेतों में पहुंचे, किसानों को बताया गया कि उनकी परम्परागत खेती गलत और अवैज्ञानिक है। रासायनिक खादों का इस्तेमाल रामबाण की तरह प्रचारित किया गया, देशी बीजों में जीन-परिवर्तन की शुरुआत हुई जिसने धीरे-धीरे देशी बीजों को खेती से बाहर कर दिया, किसानी की भारतीय शैली, ऋतु-चक्र की हमारी पूरी समझ को तहस-नहस कर, नकदी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया गया। यह सब था जिनके आधार पर पहली हरित क्रांति सम्भव हुई। उसकी अपनी उपलब्धियां भी हुई। अनाज के मामले में देश आत्मनिर्भर हुआ और हमारे गोदामों के पेट भरे। यह सब प्रारम्भिक काल का सच है लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, इसकी सीमाएं स्पष्ट होने लगीं। आज इस स्थिति से स्वामीनाथन परेशान व दु:खी हैं। वह उसी का विकास है जिसका बीजारोपण उन्होंने ही किया था। आज भारतीय किसान से ज्यादा परावलम्बी दूसरा कोई नहीं है। वह जमीन, पानी, बीज, खाद से लेकर बिजली, कीटनाशक, दूसरी रासायनिक दवाएं, बाजार जाने के परिवहन तक के लिए दूसरों का मोहताज है। बाजार और उसके उत्पादन के भाव के बारे में तो उसकी स्थिति और भी दयनीय है। बाजार और सरकार का आज जैसा गठबंधन पहले नहीं था। आज वह किसान की आंख भी बंद कर रहा है और नाक भी। आज किसानी निशाने पर है क्योंकि वैश्विक बाजार उसे अपनी मुट्ठी में करने पर तुला हुआ है। विदेशी कम्पनियां खेती भी अपने हाथ में चाहती हैं और उसका उत्पाद भी। इसलिए छोटी खेती, आत्मनिर्भर किसान, किसानी और समाज का सीधा रिश्ता कुछ भी उन्हें स्वीकार नहीं है। उसे हमारे देश की यह वास्तविकता ही स्वीकार नहीं है कि देश के जी.डी.पी. में मात्र 15 फीसद का योगदान करने वाला कृषि- क्षेत्र देश की 50 फीसद से ज्यादा आबादी को रोजगार देता है। जीने के साधन मुहैया कराता है। और यह तब है जबकि हमने इस क्षेत्र की कमर तोड़ रखी है। इसलिए दूसरी हरित क्रांति का सीधा मतलब है खेतीकि सानी को बाजार के दानव से बचाया जाये और उसे जीवन व जीविका के बुनियादी अधिकार से जोड़ा जाये, उसे संवैधानिक संरक्षण दिया जाये। खेती मनुष्य के जीने का आधार है। इसकी किसी व्यापार से तुलना नहीं हो सकती है और न किसी व्यापार के दबाव में इसे रखा जा सकता है। जमीन तेजी से सिकुड़ रही है क्योंकि खेतों को खत्म कर ही हमारे विकास की सारी इमारतें खड़ी होती हैं। इसलिए भी जरूरी है कि किसान व किसानी को हम अलग तरह से पहचानें और संभालें। नयी हरित क्रांति का नया सूत्र है - स्वावलम्बी खेती : स्वावलम्बन के लिए खेती! पहली हरित क्रांति ने इसकी जड़ पर ही प्रहार किया था, दूसरी हरित क्रांति इसे जड़समेत बचाएगी।

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