Monday, April 25, 2011

मुसीबत में पान किसान


सरकार की अनदेखी से खफा लंबे समय से आंदोलन कर रहे पान किसानों ने सामूहिक आत्महत्या की चेतावनी दी है। जनवरी माह में चली शीतलहर से पान की फसल चौपट हो चुकी है और किसान मुआवजे की मांग कर कर रहे हैं। प्रकृति के इस कहर का सबसे ज्यादा खामियाजा उत्तर प्रदेश के पान किसानों को भुगतना पड़ा है। पान की खेती पर आश्रित परिवार पलायन को मजबूर हैं और गरीब परिवारों में भुखमरी की नौबत आ गई है। आलम यह है कि उत्तर प्रदेश के किसान नई खेती के लिए पान की लताएं भी पश्चिम बंगाल, राजस्थान और मध्य प्रदेश से मंगवा रहे हैं। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में पान की नई फसल मार्च के दूसरे हफ्ते से लेकर अप्रैल की शुरुआत तक लगाई जाती है। उत्तर प्रदेश में यह साल चुनावी साल माना जा रहा है, ऐसे में पान किसानों की नाराजगी राजनीतिक रूप ले सकती है। किसी जमाने में किसानों के चेहरे पर मुनाफे की लाली लाने वाला पान अब घाटे का पर्याय बन गया है। पान की फसल बेहद नाजुक होती है और यह ज्यादा गरमी या ठंड सहन नहीं कर पाती है। पान की फसल को गरमी के मौसम में रोजाना चार बार और ठंड के दौरान हफ्ते में दो बार सिंचाई की जरूरत होती है। जाहिर है कि नियमित सिंचाई की जरूरत के कारण ही परंपरागत रूप से पान की फसल जलाशयों के किनारे की जाती है। मगर पिछले कुछ सालों से मौसम के बदलते मिजाज और पानी की कमी के कारण पान की फसल किसानों के लिए परेशानी का सबब बन गई है। कभी पाला तो कभी लू का कहर पान किसानों की नियति बन चुका है। उड़ीसा, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी इस साल पान की फसल को नुकसान पहुंचा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में पान की फसल की फसल सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। सूबे के बांदा, इलाहाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, हरदोई, सीतापुर, कानपुर, जौनपुर और आजमगढ़ समेत 17 जिलों में पान की 90 फीसदी से ज्यादा फसल तबाह हो गई है। बर्बादी के इस मंजर से महोबा और ललितपुर जिलों में पान की फसल थोड़ी-बहुत बच पाई है। पश्चिम बंगाल सरकार अपने प्रदेश के पान किसानों को राहत दे चुकी है, लेकिन उत्तर प्रदेश में 85 करोड़ रुपये से ज्यादा पान की फसल बर्बाद होने के बावजूद किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। उत्तर प्रदेश को अपना घर बताने वाले कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी से पान किसान मदद की गुहार लगा चुके हैं, लेकिन झूठे दिलासों के सिवाए अब तक कुछ नहीं मिला है। सरकार की बेरूखी के कारण ही सूबे में पान का रकबा घटकर आधा रह गया है। किसानों की लंबी मांग के बाद लखनऊ और महोबा में पान प्रयोग और प्रशिक्षण संस्थान खोले गए थे, लेकिन अब दोनों जगह ये संस्थान बंद किए जा चुके हैं। नई तकनीक के अभाव में किसान पुराने तरीके से खेती करते हैं। लिहाजा, कम मुनाफे के साथ ही जोखिम भी बढ़ जाता है। गुटके के बढ़ते प्रचलन ने भी पान किसानों की कमर तोड़ने का काम किया है। सरकारी उदासीनता और मौसम की मार के चलते पिछले एक दशक में पान की खेती का ग्राफ तेजी से नीचे आया है। आम जन-जीवन में धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर भोजन तक पान के महत्व को देखते हुए यह कमी शुभ संकेत नहीं है। किसी जमाने में पान की खेती का गढ़ रह चुके महोबा की पान मंडी अब वीरान हो चली है। महोबा जिले में पान की खेती तीन हजार एकड़ से सिमटकर पांच एकड़ रह गई है। महोबा के देसावरी पान की मांग समूचे देश में है और पाकिस्तान व अरब देशों में भी इसका निर्यात किया जाता था। घटती वर्षा दर और बढ़ती महंगाई ने इसे तबाही की कगार पर पहुंचा दिया और जो थोड़ी बहुत उम्मीदें शेष हैं, उस पर सरकारी उपेक्षाएं भारी पड़ रही हैं। महोबा के पान की खासियत है कि देश और दुनिया के दूसरे हिस्सों में यह नहीं उपजता है और दूसरी प्रजातियों की तासीर इसके जैसी नहीं है। किसानों की आत्महत्याओं के कारण चर्चा में आए बुंदेलखंड में सियासी गोटियां खेलने के लिए राहुल गांधी, राजा बुंदेला और रीता बहुगुणा जोशी समेत कई नेता पहुंचे, लेकिन इलाके में दम तोड़ती पान की फसल को बचाने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है। साल-दर-साल कुदरत के सितम सहते पान किसान हुक्मरानों की अनदेखी से निराश होकर अब पान की खेती से तौबा कर चुके हैं। सूखे की मार झेल रहे इस इलाके के किसान पहले से ही मुसीबतों में घिरे थे, अब पान की बर्बाद फसल ने कहर बरपाया है। पान की फसल को बर्बादी के दंश से बचाने और पान किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए किसी भी सरकार ने पहल नहीं की है। कोई बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की मुहिम चला रहा है तो कोई गरीबों की झोपडि़यों में रात बिताकर अपने गरीब-हितैषी होने का प्रमाण-पत्र दे रहा है। मगर पान किसानों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए कोई आगे नहीं आया है। जब राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप लगाने तक ही सिमट जाएं तो उनसे किसानों के हित की उम्मीद लगाना बेमानी होगा। विडंबना यह है कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही पान की फसल खाद-बीज पर मिलने वाली सब्सिडी और फसल बीमा के दायरे से भी बाहर है। केंद्र और प्रदेश सरकार पान किसानों के दर्द से बेखबर कान में रूई डालकर सो रही हैं। पाले से पान की फसल काली होकर नष्ट हो गई है और किसानों के पास बीज के लिए भी पुरानी बेलें नहीं बची हैं। पान के पत्ते की कीमत में 300 फीसदी तक की तेजी आ चुकी है और देसी बांग्ला पान की कीमत 600 रुपये प्रति ढोली (एक ढोली में 150 से 200 पत्ते होते हैं) के स्तर को पार कर गई है। पिछले साल एक ढोली 150 रुपये में मिल रही थी। देश के मशहूर बनारसी पान के पत्ते की कीमतों में भी 50 फीसदी तक की तेजी आ चुकी है। अगर सरकार की कुंभकर्णी नींद अब भी नहीं टूटी तो वह दिन दूर नहीं, जब खाना तो दूर पूजा के लिए भी पान का पत्ता मयस्सर नहीं होगा। पान किसानों के जख्मों पर झूठे वादों का मरहम लगाने की बजाए नकद मुआवजे की व्यवस्था की जानी चाहिए। नई फसल के लिए किसानों को पान की बेलें उपलब्ध करवाने के साथ ही लखनऊ के पान प्रयोग व प्रशिक्षण केंद्र में अविलंब नई जान फूंकने की जरूरत है। सरकार को समय रहते पान किसानों के संकट को दूर करने की कोशिश शुरू कर देनी चाहिए। अन्यथा हालात बेकाबू होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

No comments:

Post a Comment