Tuesday, December 21, 2010

खोजा जा रहा दुधारू भैंस का रहस्य

 गुजरात का आणंद कृषि  विश्वविद्यालय ऐसे जैव प्रौद्योगिकीय अध्ययनों में लगा है, जिससे यह पता लग सकता है कि कोई भैंस ज्यादा अथवा कम दूध क्यों देती है या उसके गर्भधारण में देर क्यों होती है या फिर उस पर किसी आम बीमारी का असर क्यों नहीं पड़ता! विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक इसके लिए भैसों का जिनोम-मानचित्रण यानी इस पशु की कोशिकाओं का सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण कर रहे हैं। इसमें गुजरात में पाई जाने वाली भैंसों की चार नस्लों को चुना गया है। आणंद कृषि विश्वविद्यालय के पशु जैवप्रौद्योगिकी विभाग के प्रोफेसर और परियोजना के प्रभारी सीजे जोशी ने बताया, हम जाफराबादी, मेहसाणी, सूरती और बान्नी, गुजरात में पाई जाने वाली इन चारो नस्लों की भैंसों के एसएनपी (सिंगल निक्लियोटाइड पॉलीमॉरफिज्म) की पहचान करेंगे। उन्होंने कहा कि एसएनपी का संबंध दुधारूपन, प्रजनन क्षमता और रोग प्रतिरोधक क्षमता से है। यह पशुओं के जीन की व्यवस्था में परिवर्तन का परिणाम है। इस परियोजना के माध्यम से ऐसे भैंसे (नर) की पहचान की जाएगी जिनमें ऐसे अनुकूल जीन हों जो ज्यादा दूध देने वाले, अधिक प्रजनन क्षमता वाले पशुओं के प्रजनन में सहायक हो सकें। इस परियोजना में हर नस्ल की दस-दस भैंसे ली जा रही हैं। जोशी ने कहा कि कोई दुधारू भैंस कम या अधिक दूध देने वाली होगी यह निर्धारण उसमें पाए जाने वाले करीब 400 प्रकार के जीन से तय होता है। जोशी के अनुसार इस परियोजना में अब तक जाफराबादी भैंसों की 64,212 डीएनए कडि़यों का चित्रण किया जा चुका है। इन्हें वैज्ञानिकों की बोलचाल की भाषा में कांटिग कहा जाता है। अब तक के विश्लेषणों को नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन (एनसीबीआई) के पास जमा कराया गया है। एनसीबीआई एक जीन बैंक है जहां जीनोम सूचनाओं को सुरक्षित रखा जाता है। जीनोम मानचित्रण को सुगम बनाने के लिए गुजरात सरकार ने पहली बार आणंद विश्वविद्यालय में हाई थ्रूपुट जीनोम सीक्वेंसर सिस्टम लगाया है।


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