Wednesday, February 2, 2011

उत्तराखंड जानेगा बंजरखेतों व पलायन का राज


उत्तराखंड के गांवों में लगातार खेतों के बंजर होने और बढ़ते पलायन से चिंतित राज्य के कृषि विभाग की नींद टूट गई है। राज्य के गठन के एक दशक के बाद जागे कृषि विभाग के अफसर गांवों में जाकर न सिर्फ किसानों के दर पर दस्तक देंगे, बल्कि यह पता भी लगाएंगे कि समस्या कहां आ रही है और इसका निदान भी कराएंगे। केंद्र हो या राज्य सरकार, सभी की चिंता में कृषि शामिल है। खेती-किसानी की दशा सुधारने को अनेक योजनाएं भी चल रही हैं, लेकिन किसानों के हालात जस के तस हैं। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहां स्थिति ज्यादा खराब है। पहाड़, मैदान और घाटी वाले इलाकों में सिमटी कृषि वक्त की मार झेल रही है। योजनाओं का लाभ किसानों तक नहीं पहंुच पा रहा और हुक्मरानों ने भी कभी इस पर गंभीरता से गौर करने की जरूरत नहीं समझी। राज्य बनने के दस साल बाद भी कृषि नीति धरातल पर नहीं आ पाई है। सरकारी उपेक्षा का सबसे ज्यादा असर पहाड़ पर पड़ा है, जहां तमाम कारणों से लोग कृषि से विमुख हो रहे हैं। हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कृषि भूमि 7.5 लाख हेक्टेयर है, जबकि बंजर भूमि का दायरा 8.5 लाख हेक्टेयर। कृषि की इस तस्वीर ने अब राज्य की रमेश पोखरियाल निशंक की सरकार को गंभीरता से सोचने पर विवश कर दिया है। यही वजह है कि उसने अब अफसरों को किसान के द्वार पर दस्तक देने को कहा है। इसके लिए बाकायदा शेड्यूल तय किया गया है। इसके तहत सचिव से लेकर अपर व उप सचिव तक माह में एक दिन, निदेशक चार दिन, मंडल स्तर के अफसर प्रत्येक 15 दिन में, मुख्य कृषि अधिकारी हफ्ते में दो दिन और कृषि एवं भूमि संरक्षण अधिकारी 15 दिन फील्ड में रहेंगे।



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