Saturday, February 19, 2011

कृषि की अनदेखी


कृषि और किसानों की दुर्दशा की ओर ध्यान खींच रहे हैं लेखक
सरकार की ओर से जारी विकास दर के आकलन के अग्रिम आंकड़ों के मुताबिक 2010-11 में कृषि उत्पादन में वृद्धि दर 5.4 फीसदी रहने की संभावना है जो पिछले साल महज 0.4 फीसदी थी। कृषि क्षेत्र के शानदार प्रदर्शन के चलते ही सकल घरेलू उत्पाद में 8.6 फीसदी बढ़ोतरी की उम्मीद है। इस प्रकार कृषि क्षेत्र के ताजा आंकड़ों ने बजट से पहले ही सरकार को मुस्कराने का मौका दे दिया है। लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या किसानों के चेहरों पर मुस्कान नजर आ रही है? कैसी विडंबना है कि एक ओर कृषि क्षेत्र में उत्साहजनक वृद्धि का अनुमान है, वहीं दूसरी ओर अनेक राज्यों से किसानों की खुदकुशी की खबरें आ रही हैं। देखा जाए तो देश में ऊंची विकास दर के साल किसानों की आत्महत्या के साल भी रहे हैं। विकास दर के संदर्भ में एक सवाल यह भी उठता है कि इससे हम रोजगार सृजन की कितनी उम्मीद कर सकते हैं। सरकार और योजना आयोग तक इस बात पर जोर देते रहे हैं कि ऊंची विकास दर सभी आर्थिक समस्याओं का रामबाण इलाज है, गरीबी और बेरोजगारी भी इसी से मिटेगी। लेकिन यह आश्वासन खोखला साबित हुआ है। ऑस्ट्रेलिया व कनाडा में बारिश, रूस व कालासागर इलाके में सूखे के अलावा अर्जेंटीना, अमेरिका में मौसम शुष्क होने के चलते विश्वस्तर पर खाद्यान्न की स्थिति नाजुक बनी हुई है। लेकिन भारत में अनाज के गोदाम ठसाठस भरे हैं। इसमें किसानों के पसीने की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। इसके बावजूद सरकार न तो यह सुनिश्चित कर पा रही है कि किसानों को उनकी उपज की लाभकारी मूल्य मिले और न ही यह कि आम जनता को उचित दर पर खाने-पीने का सामान मिले। इसलिए यह सवाल उठता है कि इस बढ़ी हुई उपज दर के लाभ को बीच में कौन हड़प ले रहा है? पैदावार बढ़ने पर सरकार निर्यात करके पैसा बनाने की सोचती है और फिर कमी होने पर उसी जिंस का आयात करने लगती है जैसा चीनी के मामले में हुआ और दो साल पहले गेहूं के मामले में। अर्थव्यवस्था को मुसीबत में सहारा देने वाले कृषि क्षेत्र में निवेश लगातार घट रहा है। कृषि उत्पादकता बढ़ाने की योजनाएं सब्सिडी, ऋण माफी, मुफ्त बिजली जैसी रेवडि़यां बांटने तक सिमटी हुई हैं। ग्रामीण इलाकों में आय का प्रमुख श्चोत होने के बावजूद कृषि क्षेत्र में ढांचागत सुधारों को लेकर कुछ नहीं हो रहा है। बिजली की सुचारू आपूर्ति नहीं है। भूजल दोहन को छोड़कर सिंचाई सुविधा विकसित करने पर सरकारों का जोर नहीं है। उर्वरक नीति पर भी लचर रवैया अपनाया जा रहा है। सहकारिता का ढांचा दरक रहा है। सरकार ने भले ही कृषि ऋणों की मात्रा बढ़ा दी हो, लेकिन लाभार्थियों का दायरा बढ़ा दिए जाने से छोटे व सीमांत किसान उससे लाभान्वित नहीं हुए। देश के कृषि अनुसंधान संस्थानों में शोध व विकास की स्थिति अच्छी नहीं है। भारी अनुदानों और सरकारी सहायता के बावजूद हम उन्नत बीजों के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर होते जा रहे हैं। यही कारण है कि खेती आज भी मानसून का जुआ बनी हुई है और जीडीपी में उसकी हिस्सेदारी लगातार घट रही है। भले ही देश में औद्योगिक रफ्तार तेज हो लेकिन खेती अभी भी सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है। देश में कुल रोजगार का करीब आधा हिस्से की पूर्ति कृषि ही कर रही है। लेकिन ऊंची विकास दर का हवाला देते हुए अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश करते समय कृषि व सहायक क्षेत्रों की दयनीय हालत नजरअंदाज कर दी जाती है। बात सिर्फ कृषि क्षेत्र और किसानों की नहीं है बल्कि छोटे शहरों, कस्बों और गांवों को जोड़कर बनने वाली बहुसंख्यक आबादी की भी है। जो लोग आर्थिक विकास की मुख्यधारा में पीछे छूट गए है, उनको केंद्र में रखकर योजना बनाने की जरूरत है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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