Thursday, February 17, 2011

उत्तम प्रदेश तो खेती से ही बनेगा


देश के सबसे विस्तृत राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कैनवास वाले राज्य उत्तर प्रदेश का ताना-बाना गड़बड़ा-सा रहा है। न तो केंद्र में पहले जैसी धमक रह गई और न ही पहले जैसी आर्थिक आत्म-निर्भरता। आंकड़ों के सहारे विकास के रथ को खींचने की नाकाम कोशिश के बाद भी नीति-निर्धारक नहीं समझ पा रहे कि उत्तम प्रदेशका सपना खेत की हरियाली से होकर गुजरता है, हरे-भरे खेतों के बीच कंकरीट का जंगल या तारकोल की सड़क बिछाकर नहीं। राज्य में खेत उजड़ रहे हैं और आम लोगों के चेहरे की हरियाली नदारद हो रही है।
उत्तर प्रदेश में 2,42,02,000 वर्ग हेक्टेयर भूमि है, जिनमें से बुवाई का रकबा 1,68,12,000 हेक्टेयर है, जो कुल जमीन का 69.5 प्रतिशत है। राज्य के 53 प्रतिशत लोग किसान हैं और कोई 20 फीसदी खेतिहर मजदूर। यानी लगभग तीन-चौथाई आबादी इसी जमीन से अन्न जुटाती है। लेकिन बुआई का रकबा लगातार घट रहा है। उत्तर प्रदेश की पूरी अर्थव्यवस्था खेती पर निर्भर है और खेत घट रहे हैं, पर किसी को चिंता नहीं है। आंकड़ा बताता है कि सालाना कोई 48,000 हेक्टेयर खेती की जमीन कंकरीट निगल रही है।
उत्तर प्रदेश की सालाना आय का 31.8 प्रतिशत खेती से आता है। जबकि 1971 में 57, 1981 में 50 और 1991 में 41 प्रतिशत हुआ करती थी। साफ नजर आ रहा है कि लोगों से खेती दूर हो रही है। एक और आंकड़ा चौंकाने वाला है कि राज्य में एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों का प्रतिशत 75.4 है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 61.6 फीसदी ही है।
दिल्ली से सटे गाजियाबाद, बागपत और गौतमबु़द्धनगर जिलों में बीते तीन दशकों में खेत उजड़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उससे कुछ लोगों के पास भले ही पैसा आ गया हो, लेकिन वह अपने साथ कई ऐसी बुराइयां व अपराध लाया कि गांवों की संस्कृति, संस्कार और सभ्यता-सब नष्ट हो गई। जिनके पास खेत थे, उन्हें कार, मकान और मौज-मस्ती के लिए पैसे मिल गए, लेकिन उनके खेतों में काम करने वाले तो बेरोजगार हो गए। उनके लिए महानगर में आकर रिक्शा चलाने या छोटी-मोटी नौकरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। देश के अन्न भंडार भरने वाले खेतों पर जो आवासीय परिसर खड़े हो रहे हैं, वे बगैर घर वाले लोगों की जरूरत पूरा करने के बजाय निवेश का काम ज्यादा कर रहे हैं। वहीं अधिगृहित भूमि पर लगने वाले कारखानों में स्थानीय लोगों के लिए मजदूर या चौकीदार से ज्यादा रोजगार के अवसर नहीं। इन कारखानों में बाहर से मोटे वेतन पर आए लोग स्थानीय बाजार को महंगा कर रहे हैं, जो स्थानीय लोगों के लिए नए किस्म की दिक्कतें पैदा कर रहा है।
राज्य में बड़े या मंझोले उद्योग स्थापित करने में बिजली-पानी की कमी, कानून-व्यवस्था की जर्जर स्थिति, राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और इच्छाशक्ति का अभाव जैसी कई समस्याएं हैं। ऐसे में खेती पर जीविकोपार्जन और रोजगार का जोर बढ़ जाता है। इससे बेखबर सरकार पक्के निर्माण और सड़कों में अपना भविष्य तलाश रही है। यही हाल रहा, तो आनेवाले पांच वर्षों में राज्य की कोई तीन लाख हेक्टेयर जमीन से खेती का नामोनिशान मिट जाएगा।
प्रदेश के चहुंमुखी विकास के लिए कारखाने, बिजली परियोजना और सड़कें सभी कुछ जरूरी हैं, लेकिन अन्नपूर्णा धरती को उजाड़ना अदूरदर्शिता है। उल्लेखनीय है कि राज्य की करीब 11 फीसदी भूमि खेती में काम नहीं आती। ऐसे इलाकों में कारखाने लगाने के बारे में क्यों नहीं सोचा जाता। इससे एक तो नए इलाके विकसित होंगे, खेत बचे रहेंगे और विकास बहुजन हिताय-बहुजन सुखायवाला होगा। हालांकि राज्य सरकार ने ऊसर-बंजर जमीन के सुधार के नाम पर विश्व बैंक से 1,332 करोड़ रुपये कर्ज लिए हैं। लेकिन यह कैसी नौटंकी है कि एक तरफ तो सरकार करोड़ों का कर्ज लेकर बंजर जमीन को खेती योग्य बनाने के कागजी घोड़े दौड़ा रही है, दूसरी तरफ उपजाऊ खेतों को बंजर बनाया जा रहा है।
जब तक खेत उजडेंगे, तब तक न तो महानगरों की ओर पलायन रुकेगा, न अपराध रुकेंगे और न ही जन सुविधाओं का मूलभूत ढांचा लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप होगा। यदि सरकार दिल से चाहती है कि लोगों की भीड़ दिल्ली की ओर न आए, तो दिल्ली या लखनऊ को उनकेखेत पर नजर रखना बंद करना होगा।

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