Thursday, February 10, 2011

कृषि जगत के लिए होने वाले हैं भयावह हालात


आने वाले दिनों में भारतीय खेती-किसानी किनकिन बदलावों से होकर गुजरने वाली है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। लेकिन दिक्कत यह है कि एक ओर बाजार की तमाम शक्तियां यह दर्शाने की कोशिश में जुटी हैं कि भारत में खेती की तस्वीर आने वाले सालों में बेहतर होगी। ज्यादातर लोगों को भी लगने लगा है कि आने वाले दिनों में शायद कृषि की कायापलट हो जाए। इसमें केंद्र और राज्य सरकारें भी शामिल हैं जो मौजूदा आर्थिक नीतियों में ही सारी मुश्किलों का हल तलाश रही हैं। हालांकि हकीकत इसके बिलकुल उलट है। इन सरकारों को यह नहीं लग रहा है कि ज्यादातर समस्याएं मौजूदा आर्थिक नीतियों के चलते ही हैं। एक सच यह भी है कि आने वाले समय में ये आर्थिक नीतियां बदलने वाली भी नहीं हैं। ये तभी बदलेंगी जब हालात बेहद खराब हो जाएंगे। सरकारों की नींद भी तभी टूटेगी। बहरहाल, आने वाले दिन भारतीय कृषि जगत के लिए भयावह साबित होने वाले हैं। अगर थोड़ा पीछे जाकर देखें तो 2009 में दुनिया को देश ने दो चीजें दीं। वह भी एक ही महीने में। जुलाई, 2009 में भारत ने सबसे सस्ती कार बाजार में उतारी। ठीक उसी समय अरहर के दाल की कीमत 100 रु पये के पार जा पहुंची। अनाज की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं।
खेती से पलायन
आंकड़ों के लिहाज से देखें तो बीते एक दशक (जिसे आर्थिक उदारीकरण का दशक कहा जाता है) में देश में एक लाख, 86 हजार से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक 1991 से 2001 के बीच में 80 लाख लोगों ने खेती किसानी से तौबा कर ली है। किसान खेती से भागने में जुटा है। उसकी जमीन बिक चुकी है, या उन्होंने उसे बेच कर कोई दूसरा रास्ता चुन लिया है। यह सिलसिला भविष्य में थमने वाला नहीं है।
नई क्रांति का भ्रम
बाजार बता रहा है कि खेती में नई क्रांति आ रही है, किसानों की पैदावार बढ़ रही है। फूड प्रोसेसिंग के धंधे से उनके पास बेहतर विकल्प मिल रहा है।कांट्रैक्ट फार्मिंंगको सब मुश्किलों का इलाज बताया जा रहा है। लेकिन समस्या यहां नहीं है। खेती के साथ बुनियादी समस्याएं जुड़ी हुई हैं। तीन-चार दशक पहले तक खेती के स्वरूप को अगर याद करें तो किसान अपने बीजों को खुद तैयार करते थे। खेती में प्रयुक्त होने वाली खाद भी किसान गोबर इत्यादि से बनाता था। इससे खेती में खर्चे कम होते थे। यही वजह थी-तब के किसान समय के साथ अपनी जमीनों को जोड़ते थे। एक बीघे का मालिक खेती किसानी करते हुए दो बीघे का मालिक हो जाता था।
अंधानुकरण से बढ़ा खेती का खर्च
समय के साथ चीजें बदली हैं। इस बदलाव से किसान को कोई फायदा नहीं हुआ। अब खेती करने के लिए उसे बीज खरीदने होते हैं। मोंसेंटो, बी.टी. का बीज भारत में बिकने लगा है। पूरे महाराष्ट्र में ढूंढने पर भी आपको देसी कपास नहीं मिलेगा। किसानों को कीटनाशक और र्फटलिाइजर भी बाजार से खरीदना होता है। इस पर सरकार जो अनुदान देती है, वह इसे बनाने वाली कम्पनियों को मिलता है। किसानों के खेती के खर्चे बढ़ते जा रहे हैं। 1991 में एक एकड़ कपास की खेती के लिए महाराष्ट्र में Rs2,500 का खर्च बैठता था। बी.टी. कॉटन के पैर जमाने से 2009-10 में यह Rs13,500 हो गया है। यह हर फसल के साथ हो रहा है। किसानों की लागत बढ़ती जा रही है। उसके लिए पानी और बिजली महंगी होती जा रही है। लागत बढ़ने का असर है कि किसान अब जमीन नहीं जोड़ पाते हैं। सरकार चाहती भी नहीं है कि किसानों की जमीन बढ़े। सरकार को खुद जमीन चाहिए ताकि वह सेज के नाम पर उसे मल्टीनेशनल कारोबारियों को सौंप सके।
नेशनल सैम्पल सव्रे खोलता है पोल
इन सबका असर क्या हो रहा है। यह देखना जरूरी है। क्योंकि हाल के दिनों में यह भी जोर शोर से प्रचारित किया जाता रहा है कि किसानों के पास अब ज्यादा आमदनी आ रही है। हकीकत केंद्र सरकार का नेशनल सैम्पल सर्वेबताता है। 59वें राउंड के बाद उसका आकलन है कि देश के औसत किसानों को प्रति माह गुजारा महज Rs503/- की आमदनी में करना पड़ रहा है। इसमें केरल और पंजाब जैसे सम्पन्न राज्यों के किसान भी शामिल हैं। इस Rs503/- प्रति महीने में से उसे 60 फीसद हिस्सा अपने भोजन के लिए खर्च करना होता है। वह अपने खाने लायक फसल भी नहीं उपजा पाता है। आधी से ज्यादा आमदनी बाजार में चली जाती है। हिंदी प्रदेश में उसमें यह औसत रकम गिरकर Rs325/- प्रति महीने के आसपास है। इन किसानों की हालात में कैसे सुधार हो, इस पर भी सरकारों का ध्यान नहीं है। देश और राज्यों की सरकारों ने देश के कृषि क्षेत्रों में रोजगार के मौके बनाने की कोशिश नहीं की। खेती किसानी को फायदे का सौदा नहीं बनने की नीतियां लागू की जा रही हैं।
कांट्रैक्ट खेती की हकीकत
खेती को चकाचक बताने के लिए हाल के दिनों में कांट्रैक्ट खेती की वकालत की जा रही है। लेकिन लोग इसकी वास्तविकता से अनजान हैं। इसके तहत मान लीजिए पंजाब के एक किसान को एक फूड प्रोसेसिंग कम्पनी कहती है कि एक एकड़ में टमाटर उपजा कर दो, हम आपको 3 लाख रु पये देंगे।वह जैसा टमाटर कहेगी, वही उपजाना होगा। यहां तक मामला चकाचक लग रहा है, लेकिन अगले साल क्या होगा। वह कम्पनी टमाटर उपजाने के बाद कहेगी कि इंटरनेशनल मार्केट में इस टमाटर की कीमत गिर गई, आपको हम 70 हजार रु पये देंगे। सरकारें कह रही है कि किसानों के पास ऐसे अन्याय के लिए अदालत में जाने का रास्ता खुला रहेगा। लेकिन वास्तव में कितने किसान पेप्सी आदि मल्टीनेशनल कम्पनियों के खिलाफ अदालत में जाएंगे।
टेढ़ी ही है किसानों की कमर
मोटा-मोटी यही लगता है कि आने वाले दशकों में नकदी फसलों की तरफ किसानों का जोर ज्यादा रहेगा, लेकिन अनाज का संकट गहराता जाएगा। यह भी सम्भव होगा कि हमारी अपनी फसल की उपज बाजार से गायब होती जाएगी। विदेशी बीजों के अनाज हमारे यहां बड़े पैमाने पर उत्पादित होंगे। लेकिन इन सबके बावजूद आम किसानों की कमर सीधी नहीं होगी। वह मुसीबतों का मारा ही रहेगा। कई बार यही लगता है कि इन किसानों की समस्याओं को अगर नहीं सुना गया तो आने वाले दिनों में समाज में हालात और ज्यादा खराब होंगे।

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