Thursday, February 10, 2011

भारतीय पद्धति की खेती है ग्रीन हाउस गैसों का हल


इलाहाबाद ग्लोबल वार्मिग और ग्रीन हाउस गैसों से निजात का फार्मूला भारत की प्राचीन खेती पद्धति में छिपा है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आइईए) ने भी यह तथ्य स्वीकार कर लिया है। प्राचीन काल में मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए पेड़-पौधों की सूखी पत्तियों व गोबर को सड़ाकर उसे खेतों में जोता जाता था। यह तकनीक ग्रीन हाउस गैसों कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड का स्तर घटाने में बेहद कारगर है। भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक प्रो.केजी मित्तल बताते हैं कि सूखे पेड़-पौधों को खेतों में सड़ाकर जोतने से बड़ी मात्रा में कार्बन निकलता है, जिसे बायोचर कहते हैं, यह ग्रीन हाउस गैसों को मिट्टी में ही सोख उसकी उर्वरक क्षमता बढ़ा देता है। वहीं, मिट्टी में रोपे गये पौधे भी कार्बन डाई ऑक्साइड सोखकर वायुमंडल में उसकी मात्रा को घटा देते हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के रसायन विभाग में आयोजित संगोष्ठी के दौरान विशेष बातचीत में प्रो.मित्तल ने स्पष्ट किया कि अधिक खेती और शहरीकरण से गैसों और पर्यावरण में संतुलन नहीं बन पा रहा है। बायोचर तकनीक की मदद से हर साल 0.2 अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड मिट्टी में संरक्षित की जा सकती है। इस पद्धति में बेकार हो चुकी खाद्य सामग्री को भी खेतों में मिलाकर इस्तेमाल किया जा सकता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि आइईए ने विकसित देशों को बायोचर तकनीक का इस्तेमाल करने का सुझाव दिया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान विभाग में रीडर डॉ.आइआर सिद्दीकी भी इस बात की पुष्टि करते हैं। इस पद्धति से वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड का खतरा कम होता है। यह तरीका विकासशील देशों में ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को घटा सकता है।

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