Thursday, February 10, 2011

बढ़ते संकट के लिए जिम्मेदार हैं सरकार की सतही नीतियां


सवाल उठाया जाना चाहिए कि काफी खर्च के बावजूद 10वीं पंचवर्षीय योजना में सिंचाई क्षमता में कोई बढ़ोतरी क्यों नहीं हुई? इसके लिए हमें जरूरी कदम क्यों नहीं उठाना चाहिए? जमीनी स्थितियों की जरूरत यह है कि हमारी नीतियां इन समस्याओं के समाधान को ध्यान में रखकर तैयार की जाएं और भविष्य की योजना बनाते वक्त जल के मसले को केंद्र में रखा जाए। इन मोर्चों पर काम किये बगैर सम्भावित खाद्यान्न संकट से निपटने की बात नहीं सोची जा सकती है।


देश में खाद्यान्न और खेती की बात करते हुए जब भी हम इतिहास को टटोलते हैं तो आजादी के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की वह बात याद आती है जिसमें उन्होंने कहा था कि हर चीज इंतजार कर सकती है लेकिन कृषि नहीं। 1948 में महात्मा गांधी ने कहा था कि भूखे के लिए रोटी ही भगवान है। उस समय के इन दो महान नेताओं की बातों का नतीजा यह हुआ कि देश में कृषि शोध संस्थान विकसित किये गये और खेती में प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ा। इसका परिणामस्वरूप देश ने इस दिशा में तरक्की की। यह साफ है कि खेती के लिए जमीन जरूरी है लेकिन यह सीमित है। खेती के लिए जल ही जिंदगी है लेकिन यह दिनों दिन प्रदूषित होता जा रहा है। खेती के लिए जरूरी मौसम में भी लगातार बदलाव देखा जा रहा है। दूसरी तरफ हमारी जरूरतें बढ़ रही हैं। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि कम संसाधनों के साथ ज्यादा से ज्यादा उत्पादन किया जाए। पर अहम सवाल यह है कि आखिर ऐसा कैसे किया जाए?
किसानों की सहायक हों विकास की नीतियां
हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि उत्पादन बढ़ाने के चक्कर में कहीं पर्यावरण संरक्षण को कोशिशों को धक्का न पहुंचे। इसके लिए खेती के ऐसे तौरत रीके विकसित करने होंगे जिसमें नुकसान कम से कम हो और जिनका प्रबंधन बेहतर तरीके से हो सके। एकीकृत खाद्य प्रबंधन और एकीकृत पोषण प्रबंधन की बात तो होती है लेकिन इस दिशा में कुछ होता नहीं। इसलिए हमें उत्पादन, संरक्षण, प्रसंस्करण, भंडारण, विपणन को एकीकृत करने की दिशा में काम करना चाहिए। विकास की नीतियां ऐसी होनी चाहिए जो किसानों की आमदनी और रोजगार बढ़ाने का काम करे। पर्यावरण संरक्षण को लेकर देश में जो नीतियां अपनायी जा रही हैं, वे भ्रम में डालने वाली और सतही हैं। लिहाजा इसे सुधारने का काम होना चाहिए। शोध और विकास के एजेंडे पर भी पुनर्विचार होना चाहिए। यह केवल संसाधनों की वृद्धि को ध्यान में रखकर नहीं तय किया जाना चाहिए। एक तरफ तो हम जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों की बात स्वीकारते हैं लेकिन इसे रोकने को लेकर कोई प्रतिबद्धता जताने से पीछे हटते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे नीति निर्धारक किसी बड़ी तबाही का इंतजार कर रहे हों। क्या 100 साल के इतिहास में पिछले 11 साल का सबसे गर्म रहना चेतने के लिए पर्याप्त नहीं है? सभी प्रजातियों में से इंसान को भविष्य के बारे में जानकारी जुटाने से सबसे ज्यादा सक्षम माना जाता है लेकिन ऐसा लग रहा है कि जैसे इंसान सबसे ज्यादा जंगली बन गया है और जरूरी कदम उठाने के लिए किसी भीषण प्राकृतिक तबाही का इंतजार कर रहा है।
दुनियाभर की सरकारों ने अब यह मान लिया है कि वैसे काम पर पैसा क्यों खर्च किया जाए जिस काम को निजी क्षेत्र बगैर सरकारी खजाने की मदद के कर सकते हैं। इसलिए कृषि के क्षेत्र में शोध और विकास का काम घटता जा रहा है। हालत यह हो गयी है कि बीज को सार्वजनिक के बजाय निजी माना जाने लगा है। क्या नीतियां तय करने वालों को इस बात का होश है कि खाद्यान्न सुरक्षा पर इसका कितना गम्भीर असर होगा? आज क्या यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि आखिर दालों की किस्म सुधारने में निजी क्षेत्र कितना कामयाब रहा है? सार्वजनिक क्षेत्र को इस दिशा में अहम कदम उठाना चाहिए और जितना जल्दी ऐसा किया जाए उतना ही अधिक भला होगा। अगर खेती से मुनाफा नहीं होता है तो फिर कृषि क्षेत्र के विकास की बात नहीं की जानी चाहिए। आलम यह है कि अब कहा जाने लगा है कि जितना ज्यादा उत्पादन, उतना ही ज्यादा नुकसान, जितना कम उत्पादन-उतना कम नुकसान और उत्पादन नहीं, तो कोई नुकसान नहीं।क्या इस भावना को बरकरार रखा जा सकता है? बिल्कुल नहीं, क्योंकि पिछले 40 साल से खेती योग्य जमीन तो 14 लाख हेक्टेयर पर ही है तो ऐसे में इसी जमीन में उत्पादन बढ़ाने के रास्ते तलाशने होंगे। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कृषि उत्पाद बहुत जल्दी खराब भी होते हैं। लिहाजा इनकी पैकेजिंग, मार्केटिंग और भंडारण हेतु भी खास बंदोबस्त किए जाने चाहिए। सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि अनाज, फल, सब्जियां और अन्य कृषि उत्पाद भंडार में पड़े-पड़े सड़ते नहीं रहें।
खेती को बचाने के लिए उपयुक्त रियायत भी बरकरार रखी जानी चाहिए। पर ऐसी रियायतों को सही नहीं ठहराया जा सकता है जिन्हें किसान और किसानी की सेहत सुधारने के लिए दिया जा रहा हो लेकिन इसका इस्तेमाल प्रबंधकीय नाकामी और कृषि क्षेत्र में अव्यवस्था फैलाने के लिए किया जा रहा हो। इसके अलावा किसानों की क्षमता बढ़ाने, उन्हें प्रशिक्षित करने और उनके बीच उद्यमिता को बढ़ावा देने की दिशा में काम किया जाए। खेती में अच्छे बीजों का इस्तेमाल हो ताकि अच्छी उपज मिल सके। इसके अलावा खेती में बेहतर गुणवत्ता वाली अन्य चीजों का भी इस्तेमाल हो। इससे उत्पादन में भी बढ़ोतरी होगी और फसल की गुणवत्ता भी अच्छी होगी। इससे खाद्यान्न के मोर्चे पर भी कई समस्याएं हल होंगी और साथ ही पर्यावरण संरक्षण की कोशिशों को भी खासा बल मिल सकता है।
सिंचाई प्रबंध
जल बिना जिंदगी की कल्पना नहीं हो सकती। इसके बावजूद, पानी व इससे सम्बंधित नीति को लेकर गम्भीरता का अभाव दिखता है। 2020 तक हमें सिंचाई के लिए 25 फीसद अतिरिक्त पानी की जरूरत होगी पर तब तक उपलब्धता मौजूदा स्तर से 12 फीसद घट जाएगी। क्या ऐसे में जल दोहन, प्रबंधन व अन्य सम्बंधित मसलों पर विचार नहीं करना चाहिए? क्या यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि काफी खर्च के बावजूद 10वीं पंचवर्षीय योजना में सिंचाई क्षमता में कोई बढ़ोतरी क्यों नहीं हुई? इसके लिए हमें जरूरी कदम क्यों नहीं उठाना चाहिए? जमीनी स्थितियों की जरूरत यह है कि हमारी नीतियां इन समस्याओं के समाधान को ध्यान में रखकर तैयार की जाएं और भविष्य की योजना बनाते वक्त जल के मसले को केंद्र में रखा जाए। इन मोर्चों पर काम किए बगैर संभावित खाद्यान्न संकट से निपटने की बात नहीं सोची जा सकती है। (लेखक आईसीएआर के पूर्व महानिदेशक हैं)


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