Wednesday, February 9, 2011

कृषि क्षेत्र की लम्बी उपेक्षा का दंश


खाद्यान्न एवं खाद्य वस्तुओं की किल्लत और महंगाई के कारण कृषि क्षेत्र एक बार फिर सुर्खियों में है। लेकिन अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि पिछले दो वर्षो से खाद्यान्न और अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतों में भारी उछाल, अत्यधिक उतार-चढ़ाव और लगातार बढ़ोतरी एक तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था के नव उदारवादी आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं से कृषि क्षेत्र का बदला है। असल में, जिन आर्थिक मैनेजरों व नीति निर्माताओं ने यह मान लिया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र यानी कृषि क्षेत्र को बाईपासकरके भी ऊंची विकास दर हासिल की जा सकती है इसलिए कृषि क्षेत्र पर बहुत ध्यान देने की जरूरत नहीं है; उनकी सोच पर यह कृषि क्षेत्र का पलटवारहै।
मैनेजरों की खुशफहमी
उल्लेखनीय है कि पिछले दो-ढाई दशकों, खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नशे में कृषि क्षेत्र की जमकर उपेक्षा की गई है। इस उपेक्षा की वजह यह रही है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में कृषि क्षेत्र की औसतन सालाना दो फीसद से भी कम की वृद्धि दर के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर औसतन 7 से 8 फीसद तक पहुंच गई। अर्थव्यवस्था के इस प्रदर्शन से आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं को यह खुशफहमी हो गई कि कृषि क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के बावजूद जीडीपी की वृद्धि दर पर खास असर नहीं पड़नेवाला है। इस कारण उन्हें लगने लगा कि कृषि क्षेत्र की खास परवाह करना जरूरी नहीं है।
गलत समझदारी
यही नहीं, आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं ने इस आधार पर यह मान लिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था विकास की प्रक्रिया में कृषि की प्राथमिक भूमिका से सीधे छलांग लगाकर सेवा आधारित विकास के दौर में पहुंच गई है जिसमें कृषि की अत्यंत सीमित और उद्योग की उससे कुछ अधिक लेकिन सेवा क्षेत्र की सबसे बड़ी भूमिका होती है। इस सोच के पीछे वजह यह थी कि जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान घटते हुए 20 फीसद (अभी 14.6 फीसद) से भी नीचे पहुंच गया जबकि सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़ते हुए 50 फीसद (अभी 57.2 फीसद) के ऊपर पहुंच गया। इससे उत्साहित नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों ने यहां तक दावा करना शुरू कर दिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि और उद्योग क्षेत्र को बाईपास करके सेवा क्षेत्र के हाइवे पर फर्राटा भरने लगी है। कहा जाने लगा कि भारतीय अर्थव्यस्था दुनिया की अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह सेवा क्षेत्र पर आधारित विकास के दौर में पहुंच गई है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस समझदारीके आधार पर यह तर्क दिया जाने लगा कि अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार को बनाये रखने के लिए उसके असली इंजन सेवा क्षेत्रऔर कुछ हद तक उद्योग क्षेत्र पर अधिक जोर दिये जाने की जरूरत है। इस तर्क को विश्व बैंक और उस जैसी अन्य आर्थिक और वित्तीय कंसल्टेंसी कम्पनियों ने खूब बढ़ावा दिया। उन्होंने भी कहना शुरू किया कि भारत को खाद्यान्न आदि के उत्पादन की चिंता करने की जरूरत नहीं है। उसे सेवा और उद्योग क्षेत्र पर जोर देना चाहिए और उससे होने वाली आय से जरूरत का अनाज अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से आयात कर लेना चाहिए।
कृषि को उसके हाल पर छोड़ा
नतीजा यह कि पिछले दो दशकों में कृषि क्षेत्र को उसके हाल पर छोड़ दिया गया। कृषि क्षेत्र की उपेक्षा का अंदाज़ा सिर्फ एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार गिरता गया है। खुद सरकार की आर्थिक समीक्षा (2009- 10) के मुताबिक, छठी पंचवर्षीय योजना (1980- 85) के बाद से लगातार नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) तक कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में कटौती जारी रही। समीक्षा के अनुसार, छठी योजना में कृषि क्षेत्र में Rs64,012 करोड़ का सार्वजनिक निवेश हुआ जो सातवीं योजना में यह घटकर Rs52,108 करोड़, आठवीं योजना में Rs45,565 करोड़ और नवीं में और गिरकर मात्र Rs42,226 करोड़ रह गया।
राशि बढ़ी, महत्व नहीं
हालांकि यूपीए सरकार का दावा है कि दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) में कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाकर Rs67,267 करोड़ हो गया लेकिन यह निवेश बढ़ोतरी के बावजूद छठी योजना के निवेश से थोड़ा सा ही ज्यादा हो पाया है। इसका अर्थ यह हुआ कि कृषि क्षेत्र के लिए यूपीए के नई डीलके दावों के बावजूद तथ्य यह है कि अब भी कृषि में सार्वजनिक निवेश 1980-85 के स्तर तक ही पहुंच पाया है। आश्र्चय नहीं कि पिछले दो-ढाई दशकों की इस उपेक्षा के कारण कृषि क्षेत्र गहरे संकट में फंस गया है। नतीजा, कृषि क्षेत्र के इस चौतरफा संकट की कीमत पूरे देश के साथ-साथ किसान और आम उपभोक्ता सभी चुका रहे हैं।
आबादी की वृद्धि से भी कम रही उपज दर
संकट का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि डेढ़-दो दशकों में कृषि उत्पादन की वृद्धि दर जनसंख्या की वृद्धि दर से भी कम हो गई है। आर्थिक समीक्षा (2008-09) के अनुसार, 1990 -07 के बीच कृषि उत्पादन की वृद्धि दर सालाना औसतन मात्र 1.2 प्रतिशत रह गई है जो कि जनसंख्या की सालाना वृद्धि 1.7 प्रतिशत से कम है। इससे ज्यादा बड़ा संकट और क्या हो सकता है? यह साफ तौर पर खाद्य संकट को न्योता है। हैरानी की बात नहीं है कि देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता घटती जा रही है। तेज आर्थिक विकास के बावजूद रंगराजन समिति ने खाद्य सुरक्षा कानून के मुद्दे पर एनएसी के प्रस्ताव को इस आधार पर खारिज कर दिया कि आबादी के 75 प्रतिशत लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने भर का अनाज उपलब्ध नहीं है।
22 फीसद आबादी हर दिन भूखे पेट
सच यह है कि अगर इस देश में सभी लोग दो जून भरपेट भोजन करने लगें तो देश में अनाज की भारी किल्लत पैदा हो जाएगी। वास्तव में, खाद्य वस्तुओं की भारी महंगाई बाज़ार का अपना एक मैकेनिज्म
है जिसके जरिये वह खाद्यान्न को आबादी के एक बड़े हिस्से की पहुंच से दूर कर देता है। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि देश की आबादी के लगभग 22 प्रतिशत हिस्से को हर दिन भूखे पेट सोना पड़ता है। भुखमरी का यह साम्राज्य कृषि संकट का ही एक और चेहरा है। असल में, कृषि क्षेत्र जिस जबरदस्त संकट में फंसा हुआ है, उसका एक असर बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्याओं में दिखाई पड़ रहा है। दूसरी ओर- इसका नतीजा यह हुआ है कि खाद्यान्न और अन्य खाद्य वस्तुओं के उत्पादन में उतार-चढ़ाव और किल्लत के कारण उनकी कीमतें आसमान छू रही हैं और तीसरी ओर- खाद्यान्न उत्पादन में कभी आत्मनिर्भर हो चुका देश एक बार फिर आयात निर्भरता की तरह बढ़ रहा है। कृषि क्षेत्र की दो फीसद से भी कम की सालाना औसत वृद्धि दर के कारण अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि दर को भी झटके लगते दिख रहे हैं।
बड़ी दुर्घटना को आमंतण्र!
निश्चय ही, यह अर्थव्यवस्था के मैनेजरों के लिए बड़ा सबक है। कृषि क्षेत्र की अब और उपेक्षा देश के लिए बहुत भारी पड़ सकती है। अफसोस की बात यह है कि पिछले दो दशकों की निरंतर उपेक्षा से कृषि क्षेत्र जिस गहरे संकट में फंस गया है, उससे निकलने के लिए जितने बड़े, व्यापक और साहसिक उपायों और फैसलों की जरूरत है, उसे देखते यूपीए सरकार के सीमित और कामचलाऊ उपायों से कुछ खास नहीं बदलनेवाला है। साफ है कि सरकार का जवाब कृषि संकट की व्यापकता के मुताबिक नहीं है। यह एक बड़ी दुर्घटना को आमंतण्रहै।

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