Thursday, February 10, 2011

भूख मिटाने के लिए काफी है दुनिया का खाद्यान्न


अभी दुनिया की आबादी 6.7 अरब है पर जितना दुनिया में जितना खाद्यान्न पैदा होता है उससे 11.5 अरब लोगों की भूख मिटायी जा सकती है। इसलिए एक और अनाज संकट का कोई संतोषजनक कारण नहीं दिखता। पहले भी जो अनाज संकट हुए हैं उसके लिए मुख्य तौर पर चार वजहें जिम्मेदार रही हैं। पहला था रियायती अनाज का भंडार किया जाना और दूसरा अमेरिका और यूरोप में अनाज उत्पादन करने वाली जमीन पर इथेनॉल और जैव ईंधन तैयार किया जाना। तीसरी वजह अनाज की कीमतों को लेकर अटकलबाजी व चौथा है अनाज पर कुछ निगमों का कब्जा होना। ऐसे में साफ है कि अनाज की मात्रा समस्या की कोई वजह नहीं है। समस्या है अनाज तक पहुंच बनाना। यह सच है कि जिस स्थिति का उल्लेख पहले किया गया उनमें कोई खास बदलाव नहीं हुआ है इसलिए अनाज संकट की संभावना न सिर्फ 2011 में बल्कि बाद में भी बनी रहेगी।
हमें करनी होगी मौसम की फिक्र
जलवायु परिवर्तन का असर तापमान में काफी उतार-चढ़ाव, बेमौसम वर्षा, सूखा और आंधी-तूफान के रूप में दिख रहा है। दुनिया में अमीरी और गरीबी का फर्क भले ही हो लेकिन मौसम इन बातों की परवाह नहीं करता। खेती तथा मौसम के गहरे रिश्ते उपज पर जलवायु परिवर्तन के गम्भीर परिणाम होंगे। भारत के लिए आईपीसीसी ने अनुमान लगाया है कि 2080 तक अनाज उत्पादन में 10 से 40 फीसद तक कमी आ जाएगी। कृषि और पशुपालन क्षेत्रों की गिनती सबसे ज्यादा हरित गैस उत्सर्जित करने वाले क्षेत्रों में की जाती है क्योंकि इन क्षेत्रों में वैसे बाहरी तकनीक का इस्तेमाल शुरू हो गया है जो ऐसे गैसों का उत्सर्जन करते हैं। इसकी शुरुआत बड़े देशों ने की थी और अब विकासशील देशों में इसकी नकल हो रही है। अगर जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटना चाहते हैं तो ऐसा होने से रोका जाना चाहिए। छोटे खेत और छोटे किसान इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं। इस दिशा में जल्द गंभीर कदम उठाए जाने चाहिए।
जोत की घटती जमीन
दुनिया के कुछ हिस्सों के अलावा भारत के कुछ भागों में खेती योग्य जमीन घटती जा रही है। हालांकि, अब भी देश में इतने अनाज उत्पादित होता है कि यहां के सभी लोगों की पेट की आग शांत की जा सके। इसके बाद भी देश के पास अनाज बचा रहेगा जिसका निर्यात किया जा सकता है। फिर भी देश दालों व खाद्य तेलों का बड़ा आयातक है। अगर इन दोनों चीजों में आत्मनिर्भर होना है तो देश में खेती योग्य जमीन को मौजूदा स्तर से करीब 200 लाख हेक्टेयर और बढ़ाना होगा। इसके उलट यह जानना भयावह है कि यहां औद्योगिकरण, सड़क निर्माण और रियल एस्टेट के नाम पर खेती योग्य जमीन की बंदरबांट हो रही है। इसे हर हाल में रोका जाना चाहिए। इस निमित्त जमीन संरक्षण कानून की तत्काल जरूरत है। कुछ लोग खाद्यान्न संकट को बढ़ती आबादी से जोड़कर देख रहे हैं। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अभी जितने लोग इस दुनिया में हैं, उससे दोगुने लोगों की भूख मिटाने के अनाज का उत्पादन अभी हो रहा है। खाद्यान्न की महंगाई के लिए कुछ अनाजों की आपूर्ति में कमी तो जिम्मेदार है ही साथ में इसके लिए थोक व खुदरा बाजारों में दामों की अटकलबाजी भी जिम्मेदार है। उत्पादन लागत में हो रही बढ़ोतरी भी अनाज की कीमतों में वृद्धि के लिए जिम्मेदार है। इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि खेती करने में होने वाले खर्चों में कई गुना बढ़ोतरी हो गई है। बीज, खाद और डीजल की कीमतों में इजाफा के अलावा मजदूरी भी काफी बढ़ गई है इसका असर अनाज के बाजार भाव पर दिख रहा है। ऐसे में यह समझ लिया जाना चाहिए कि सस्ते अनाज का दौर खत्म हो गया है।
भारत में अभी कुछ सब्जियों के अलावा प्रोटीन वाले खाद्य पदार्थों की कीमतों में खासी तेजी देखी जा रही है। वैश्विक कीमतों को ध्यान में रखकर देखा जाए तो अनाज की कीमतों में कोई खास तेजी नहीं है। गरीब अपनी कैलोरी जरूरतों के लिए अनाज पर निर्भर करते हैं। लिहाजा असरदार सार्वजनिक वितरण पण्राली की जरूरत है पर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने यह सुनिश्चित करने का काम जरूर किया है कि पीडीएस का अनाज गरीबों तक नहीं पहुंच पाए। तकनीकी तौर पर देखा जाए तो अनाज की बढ़ी हुई कीमतों से किसानों को लाभ मिलना चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। नतीजा यह है किसानों के अलावा गरीब उपभोक्ताओं को नुकसान उठाना पड़ रहा है। आवश्यक वस्तु अधिनियम को ईमानदारी व कड़ाई से लागू करने की जरूरत है ताकि जमाखोरी रोकी जा सके व मनमाफिक तरीके से कीमतों का निर्धारण बंद हो। याद कीजिए 2009 का अगस्त महीना जब चीनी की कीमतें आसमान छू रही थीं। उस वक्त एक दिन भोपाल में छापा पड़ा और 2,000 टन चीनी जब्त की गई। नतीजा यह हुआ कि चार दिनों के अंदर थोक मूल्य में 15 फीसद कमी आ गई। अब इसकी तुलना बीते दिसम्बर में दिल्ली में प्याज के बढ़े भाव से कीजिए। 2010 के दिसम्बर में आजादपुर मंडी में प्याज के थोक भाव से 135 फीसद अधिक पर प्याज खुदरा बाजार में बेचा जा रहा था लेकिन सरकार ने कुछ करना ठीक नहीं समझा। इससे साफ है कि अगर सरकार चाहे तो कीमतों की अनाप-शनाप बढ़ोतरी को रोक सकती है लेकिन इसके लिए जरूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है।

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