Monday, January 10, 2011

यूपी तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने में जुटा

गेहूं-चावल में आत्म निर्भरता के बाद प्रदेश में खाद्य तेलों की जरूरत पूरी करने के लिए कृषि विभाग ने अब धरती की कोख से तेल की धारा बहाने की पहल की है। इसके लिए इलाहाबाद से मिर्जापुर और आगरा से अलीगढ़ के बीच तिलहन पट्टी चिन्हित की गयी है। सूरजमुखी का उत्पादन बढ़ाने को कानपुर से इटावा के मध्य का इलाका छांटा गया है। बुंदेलखंड के प्रगतिशील किसानों की सूची तैयार की जायेगी जिससे तिलहन उत्पादन में वृद्धि की योजना से जोड़ने के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया जा सके। एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में 19.8 करोड़ जनसंख्या के हिसाब से 12.7 लाख मीट्रिक टन खाद्य तेलों की आवश्यकता है। जबकि सालाना औसतन उत्पादन 8.18 लाख मीट्रिक टन का होता है। चूंकि तिलहन की पेराई से 33 फीसदी के लगभग तेल निकलता है इस लिहाज से प्रदेश में तिलहन उत्पादन से खाद्य तेलों की महज एक चौथाई मांग ही पूरी हो पाती है। शेष 75 फीसदी खाद्य तेलों की जरूरत पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश व राजस्थान और विदेश से तेल आयात कर पूरी की जाती है। सूत्रों के अनुसार तिलहन उत्पादन से किसानों का मोह भंग होने का नतीजा है कि वर्ष 1996-97 में 15.2 लाख मीट्रिक टन तिलहन का उत्पादन था जो 1999-2000 में घटकर 12.68 लाख मीट्रिक टन पर पहुंच गया। उसके बाद उत्तर प्रदेश कभी इस आंकड़े को नहीं छू पाया। कृषि निदेशक मुकेश गौतम का कहना है कि गेहूं और धान के उन्नतशील बीजों से उत्पादन बढ़ने के कारण किसानों की दिलचस्पी इनमें अधिक रहती है और बहुत से क्षेत्रों में किसान तभी तिलहन बोते हैं जब धान की फसल के लिहाज से विलंब से बारिश हो या फिर सूखा पड़ जाय। वह कहते हैं कि वर्ष 2007-08 में तिलहन का क्षेत्रफल 10.84 लाख हेक्टेयर में था लेकिन इसके अगले साल बारिश अच्छी हो गयी तो लोगों ने धान को प्राथमिकता दी और तिलहन का क्षेत्रफल घटकर 9.42 लाख हेक्टेयर ही रह गया। उक्त योजना को लेकर कृषि निदेशक काफी उत्साहित हैं। उनका कहना है कि तिलहन की अच्छी उत्पादकता के बीजों की कमी दूर करने और बीजों पर सब्सीडी बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह किया जायेगा। इसके बाजारीकरण को लेकर नैफेड और मंडी परिषद के अधिकारियों से वार्ता हो गयी है और जल्दी ही प्रदेश स्तरीय कार्यशाला आयोजित कर योजना शुरू कर दी जायेगी।

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