Wednesday, January 26, 2011

कृषि पैदावार का घटना चिंतनीय


विकास का रास्ता कृषि से होकर गुजरता है। मगर आजादी के : दशक बाद हमारी कृषि व्यवस्था की हालत बदतर हो चुकी है। दूसरी ओर आबादी एक अरब,15 करोड़ से ऊपर जा चुकी है। बढ़ती आबादी, बेरोजगारी और घटती खाद्यान्न की पैदावार ने आम लोगों की दो जून की रोटी दूभर कर दी है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषि क्षेत्रों की विकास दर बढ़ने के बजाय 0.2 प्रतिशत घटना चिंतनीय है। भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार आज भी कृषि है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि और इससे सम्बंधित क्षेत्रों का योगदान करीब 18 फीसद है किंतु एक समय वह भी था जब कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 50 फीसद से अधिक था। लगभग 60-65 प्रतिशत जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए इसी पर निर्भर है। फिर भी कृषि व्यवस्था चमत्कारी विकास की रफ्तार में बुरे दौर से गुजर रही है। कृषि परिदृश्य और अन्य उत्पादन पर निगाह डाली जाये तो संतोष के साथ ढेर सारी चुनौतियां भी नजर आती हैं। खरीफ सत्र 2009-10 के दौरान कुल खाद्यान्न का क्षेत्रफल 2008-09 के 714.02 लाख हेक्टेयर के मुकाबले 667.84 लाख हेक्टेयर रहा जो 46.18 लाख हेक्टेयर की गिरावट दर्शाता है। हालांकि हमारा खाद्यान्न भंडार किसी प्राकृतिक आपदा से निपटने में सक्षम है। इसके बावजूद 37.2 प्रतिशत से अधिक आबादी गरीबी की मार झेल रही है। संप्रग सरकार के पूरे कार्यकाल में गरीबों पर खाद्यान्न की कीमतें बढ़ने की मार पड़ी, साथ ही इस दौरान खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता काफी कम हुई। 2002 में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता 494 ग्राम प्रतिदिन थी, पांच साल बाद घटकर 439 ग्राम पर पहुंच गयी है। वास्तव में कृषि के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती स्वयं इसका अस्तित्व बचाये रखना बन गया है। जीडीपी में कृषि का योगदान आजादी के समय के 51 प्रतिशत से घटकर मात्र 18 प्रतिशत रह गया है और रोजगार में हिस्सेदारी 72 फीसद से घटकर 52 फीसद पर पहुंच गई है। भारत के पास दुनिया की कुल 2.4 प्रतिशत जमीन है, पर दुनिया की आबादी का करीब 18 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है। खेतीलायक जमीन सिर्फ अमेरिका में हमसे ज्यादा है और जल क्षेत्र सिर्फ कनाडा और अमेरिका में अधिक है। फिर भी देश में आज कृषि की हालत बुरी है। कृषि भूमि दिन- प्रतिदिन घट रही है। हमारे यहां प्रति व्यक्ति 0.3 हेक्टेयर कृषि भूमि है जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा 11 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है। कृषि के आवश्यक साधनों की उपलब्धता भी विश्व के औसत की तुलना में चार से छठवें हिस्से के बराबर है। कृषि के लिए आवश्यक प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता लगातार घट रही है जबकि सूखा बाढ़ जैसी आपदाओं का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी आपदा भी कृषि के भविष्य के लिए चुनौती बन गई है। इससे देश में कृषि की स्थिति दयनीय हो गयी है। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव किसानों पर पड़ा है। यही कारण है कि किसानों की आत्महत्याओं के मामले बढ़ गये हैं। इस मामले में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ अग्रणी हैं। केंद्र सरकार के नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2008 में किसानों की आत्महत्या के कुल 16,196 मामले दर्ज किये गये जिसमें 10,797 अर्थात् 66.6 प्रतिशत मामले इससुसाइड बेल्टमें ही थे। इससे पूर्व 2007 में किसानों की 66.2 प्रतिशत आत्महत्याएं इन पांच राज्यों में दर्ज की गई थीं। इनमें भी अग्रणी राज्य महाराष्ट्र है। नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2008 में महाराष्ट्र के 3,802 किसानों ने खुदकुशी की जबकि 1997 से लेकर आज तक दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। सरकार को इसकी जानकारी है। फिर भी उसके पास ऐसा कोई सकारात्मक उपाय नहीं है, जो किसानों को मुहैया करा सके। यही वजह है कि भारत के किसान खेती को घाटे का सौदा मानने लगे हैं। 40 प्रतिशत किसान इच्छा जता चुके हैं कि उन्हें आजीविका का विकल्प मिल जाए तो वे खेती को एक पल खोये बिना तिलांजलि दे देंगे। आज ज्यादातर खाद्यान्न के दाम आसमान छू रहे हैं। ये 30 सालों में अधिकतम स्तर पर पहुंच गये हैं। आधुनिकता भूमंडलीकरण के बावजूद स्थिति में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं हो रहा है बल्कि इससे दुनिया की 100 करोड़ आबादी को स्थायी रूप से गरीबी में जकड़े जाने का खतरा बढ़ गया है। इस संकट को सबसे ज्यादा संगीन बनाता सूरतेहाल है- खाद्यान्न की कीमतों में इजाफे के साथ विश्व स्तर पर उनका स्टॉक सिमटना। उदाहरण के लिए गेहूं का भंडारण 2001 में 197 मिलियन टन था, 2007 में यह 107 मिलियन टन रह गया। इसी अवधि में चावल भंडारण 136 मिलियन टन से घटकर कुल 71 मिलियन टन रह गया। यही वजह है कि दुनिया के 37 गरीब देशों में खाद्यान्न के लिए मिस्र से लेकर पेरू और फिर इंडोनेशिया से लेकर हैती तक दंगे हुए हैं। इसकी तपिश से विकसित देश भी नहीं बच पाये हैं। फलत: खाद्यान्न के दामों में नाटकीय ढंग से इजाफा हुआ है। 2007-08 में एफएओ के मूल्य सूचकांक में खाद्यान्न के दामों में अभूतपूर्व 32 फीसद वृद्धि दर्ज हुई थी जबकि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के मुताबिक अब भी अनाज की कीमतें 2005 की तुलना में 63 प्रतिशत अधिक है। जाहिर है कि कृषि उत्पादकता में कमी और खेती-किसानी की बदहाली का असर ग्रामीण इलाके में बढ़ा है और वहां गरीबी में इजाफा हुआ है। हम चाहें या नहीं, कृषि अब भी अर्थव्यवस्था का मुख्य सहारा बनी हुई है। इसीलिए जरूरी है कि किसानों की दशा को ठीक किया जाये। किसानों के लिए अधिक आय कैसे सुनिश्चित हो, इस पर विशेष जोर देने की जरूरत है। साथ ही जरूरत है कि किसानों को दिये जाने वाले समर्थन मूल्य में वृद्धि की। इसके अलावा सबसे जरूरी है कि खाद्यान्न संकट से निपटने के लिए खाद्यान्न सुरक्षा नीति की दिशा में सकारात्मक सोच को विकसित करना। इसके लिए खेती और किसानों के हितों जरूरतों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

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